भोपाल [संजय मिश्र]। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की सरकार का विस्तार भारतीय जनता पार्टी के लिए कठिन परीक्षा का विषय बन गया है। 23 मार्च को अकेले मुख्यमंत्री की शपथ के साथ अस्तित्व में आई भारतीय जनता पार्टी सरकार का पहला विस्तार 21 अप्रैल को हुआ था। तब नरोत्तम मिश्र सहित केवल पांच मंत्री यह कहकर शामिल किए गए थे कि कोरोना संकट टलने के बाद बड़ा विस्तार होगा। तब से दो माह से अधिक हो चुके हैं, लेकिन विस्तार पर संशय बना हुआ है।

मुख्यमंत्री द्वारा तीन बार संकेत दिए जाने के बावजूद विस्तार खिसकता रहा है। इससे भाजपा कार्यकर्ताओं एवं नौकरशाही में असमंजस कायम है। सत्ता से बेदखल हुई कांग्रेस इस मुद्दे को लेकर शिवराज को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ रही है। मंत्रिमंडल विस्तार में देरी क्यों हो रही है, भाजपा इसका कोई स्पष्ट कारण नहीं बता पा रही है। अलबत्ता मुख्यमंत्री से लेकर उसके दूसरे नेता तक देरी के लिए कोरोना काल को जिम्मेदार बता रहे हैं, लेकिन असल वजह यही नहीं है।

विस्तार के अवरोधों पर लोग खुलकर अपनी राय रख रहे हैं। मतलब साफ है कि सबसे बड़ी बाधा भारतीय जनता पार्टी की अंदरूनी मतभिन्न्ता है, जो खेमेबंदी तक पहुंच गई है। कौन मंत्री बनेगा और किसे संगठन में भेजा जाएगा, इसको लेकर भी आम राय नहीं है। हाल ही में भाजपा के टिकट पर राज्यसभा सदस्य बने ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थकों को मंत्रिमंडल में किस तरह समायोजित किया जाए, इसे लेकर भी संगठन लगभग बंटा हुआ है। शायद देरी का बड़ा कारण यह भी है। यह देरी भारतीय जनता पार्टी और सरकार की छवि को बड़ा नुकसान पहुंचा रही है। इससे 24 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव की तैयारी भी प्रभावित हो रही है। 

सबसे बड़ा नुकसान मध्य प्रदेश में लोकप्रिय एवं संगठन में निर्विवाद माने जाने वाले शिवराज की छवि को पहुंच रहा है। मुख्यमंत्री के रूप में तीन कार्यकाल पूरा कर चुके शिवराज को झटपट निर्णय लेने वाला नेता माना जाता है। सरकार पर पूर्ण नियंत्रण की उनकी छवि को भी इससे धक्का लग रहा है, जिसका सीधा असर भारतीय जनता पार्टी के प्रदर्शन पर ही पड़ेगा। माना जा रहा है कि इसके पीछे कोई न कोई ऐसा पेच है, जिसे सुलझा पाने में भाजपा का राज्य और केंद्रीय नेतृत्व अभी तक सफल नहीं हो पाया है। 

दरअसल पूरे देश में अल्पमत सरकार चलाने की जो चुनौतियां हैं, वह लगभग एक जैसी हैं। भारतीय जनता पार्टी की सरकार भी उन्हीं चुनौतियों को ङोल रही है। अगर हम पिछली कांग्रेस सरकार की बात करें तो उसने भी जोड़-तोड़ करके ही बहुमत हासिल किया था। यही कारण है कि कांग्रेस ने अपनी सरकार में छोटे दलों-छत्रपों को फिट करने के लिए अनेक बार समझौते किए। यहां तक कि कमल नाथ सरकार के गठन के बाद से ही सिंधिया अपनी बड़ी हिस्सेदारी को लेकर आक्रामक रहे। कमल नाथ उन्हें खुश नहीं कर पा रहे थे। आखिरकार उनकी नाखुशी सरकार के पतन का कारण बन गई।

विधानसभा की कुल सदस्य संख्या के हिसाब से देखें तो शिवराज सरकार भी अल्पमत की ही है। इसको चलाने के लिए अधिक धैर्य और प्रबंधन की जरूरत है। जो परिस्थितियां कांग्रेस के समय निíमत हुईं लगभग वैसी ही भाजपा सरकार में भी हैं। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के साथ वही निर्दलीय विधायक समर्थन दे रहे हैं, जो तीन माह पूर्व तक कमल नाथ सरकार के साथ थे। उनकी इच्छाएं भी बड़ी हैं। इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि सिंधिया के कारण यह सरकार बनी है। जाहिर है उनकी हिस्सेदारी बड़ी होगी।

अब तक लगभग एक दर्जन बार राज्य स्तरीय नेताओं की बैठकें हो चुकी हैं। अनेक बार सूचियां बनने और बदलने तक की चर्चाएं चल चुकी हैं, लेकिन निष्कर्ष नहीं आया कि कब तक विस्तार हो पाएगा। दो अवसरों पर मुख्यमंत्री ने पत्रकारों से बातचीत में जरूर कहा कि जल्दी ही विस्तार होगा, लेकिन कब, यह स्पष्ट नहीं हुआ है। उन्होंने बुधवार को भी यही कहा कि हम सबने बैठकर बातचीत की है। जल्दी ही मंत्रिमंडल का विस्तार होगा, लेकिन आगे की बातचीत दिल्ली में होगी।

इससे जाहिर है कि कोई न कोई ऐसा पेच है, जिसे सुलझाना राज्य नेतृत्व के लिए मुश्किल बन गया है। यही कारण है कि राज्य नेतृत्व दिल्ली की ओर ताक रहा है। संभव है कि विस्तार अगले सप्ताह हो जाए, लेकिन कब यह तय नहीं है। इसलिए विपक्ष भी ताना मार रहा है कि शिवराज की सरकार के गठन का मामला बीरबल की खिचड़ी की तरह हो गया है, जिसमें हांडी में चावल-पानी डालकर नीचे आग लगा दी गई है, लेकिन खिचड़ी पक नहीं पा रही है। 

एक-एक विधायक का मोल क्या है, यह भाजपा से अधिक और कौन जान सकता है। यही कारण है कि राज्यसभा के चुनाव में क्रॉस वोटिंग करने वाले अपने विधायक के खिलाफ भारतीय जनता पार्टी कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। यह अपने आप में बड़ा सवाल है कि अनुशासन की बुनियाद पर खड़ी भाजपा आखिर ऐसी स्थिति में आई तो क्यों? यद्यपि मामले की जांच की औपचारिकता और पूछताछ की रस्म अदायगी की जा रही है, लेकिन कार्रवाई को लेकर भारतीय जनता पार्टी ने मुंह सिल लिया है।

यह पहला मौका नहीं है, जब पार्टी लाइन के खिलाफ कोई विधायक गया हो। इसके पहले नारायण त्रिपाठी और शरद कोल विधानसभा में एक विधेयक पर कमल नाथ सरकार के पक्ष में खड़े हो गए थे। तब भी संगठन ने कोई कार्रवाई नहीं की। दरअसल भाजपा को भी पता चल गया है कि एक विधायक गंवाने का मतलब सरकार के साथ छेड़छाड़ करना है। (स्थानीय संपादक, नवदुनिया, भोपाल)