[ आशीष चांदोरकर ]: मोदी सरकार ने कुछ समय पहले वादा किया था कि वर्ष 2022 तक वह किसानों की आमदनी दोगुना करेगी। पिछले साल हुए आम चुनाव में यह वादा भाजपा के चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा भी बना। एक ऐसे वक्त में जब भारतीय कृषि तमाम संकट से जूझ रही हो तब किसानों की आमदनी में इस स्तर का इजाफा आसान नहीं लगता। लगातार छोटी होती जा रही जोत के चलते किसान मामूली उत्पादन ही कर पाते हैं। इससे तकनीक में निवेश के लिए कुछ खास नहीं बचता। वहीं बाजार तक पहुंच भी नहीं बन पाती। छोटे किसान खासकर बटाईदारों को अपनी फसल के लिए बड़े खरीदार नहीं मिल पाते। हालांकि उनके पास कृषि उत्पाद विपणन समितियों यानी एपीएमसी के जरिये अपने उत्पाद बेचने का विकल्प होता है, लेकिन बाजार तक यह पहुंच भी सीमित ही है।

केंद्र की इलेक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय कृषि बाजार की पहल पर राज्यों ने नहीं दिखाया उत्साह

इसे देखते हुए केंद्र सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय कृषि बाजार यानी ई-नैम जैसी पहल की, लेकिन इसमें राज्य सरकारों ने वैसा उत्साह नहीं दिखाया। इसकी एक वजह यही हो सकती है कि राज्यों में मंडी समितियां सियासी वर्चस्व का अखाड़ा बनी हैं। फिर भी ई-नैम के जरिये जो अंतर-मंडी और अंतरराज्यीय व्यापार बढ़ा उसे देखते हुए सरकार ने पिछले साल जुलाई में आए बजट की एक अहम घोषणा को सिरे चढ़ाने की दिशा में कदम बढ़ाया है। उसमें पांच वर्षों के भीतर 10,000 किसान उत्पादक संगठन यानी एफपीओ बनाने का एलान हुआ था। वित्त वर्ष 2020-21 में इसके लिए 6,865 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं।

एक विकास खंड में एक एफपीओ की स्थापना किए जाने की योजना

जहां तक इस योजना की विधिवत शुरुआत की बात है तो प्रधानमंत्री ने इसी 29 फरवरी को इसका आगाज किया। इसके लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश के चित्रकूट को चुना। स्थान का चयन भी कोई संयोग नहीं था। ठीक दो साल पहले नीति आयोग द्वारा देश के सबसे पिछड़े जिलों की जो सूची बनाई गई थी उसमें 101 जिलों में चित्रकूट 75वें स्थान पर था। इन जिलों को विकास के आकांक्षी जिलों के रूप में चिन्हित किया गया है। अब प्रत्येक आकांक्षी जिलों के कम से कम एक विकास खंड में एक एफपीओ की स्थापना किए जाने की योजना है। 

चुनिंंदा एफपीओ ही मुनाफे में हैं, बड़े खरीदारों को लुभाना बड़ी चुनौती

एफपीओ की यह अवधारणा कोई नई नहीं, बल्कि दशक भर पुरानी है, लेकिन चुनिंंदा एफपीओ ही मुनाफे में हैं। तमाम एफपीओ लाभप्रेरित कंपनियों के तौर पर चल रहे हैं और शेष सहकारी संस्थाओं के रूप में। अपने परिचालन को संगठित रूप में चलाना और बड़े खरीदारों को लुभाना उनके लिए अभी भी बड़ी चुनौती बनी हुई है। फिर भी यह विचार शानदार है। एफपीओ से यही अपेक्षा है कि वे इनपुट उत्पादों की एकमुश्त खरीद, कृषि से जुड़े सरकारी कार्यक्रमों एवं सेवाओं की किसानों और ग्र्रामीण क्षेत्र तक पहुंच सुनिश्चित करें, साथ ही समय, अवरोध और लागत को कम करने का काम करें।

एफपीओ अपना खुद का ब्रांड भी बना सकते हैं

एफपीओ अपने सदस्यों के लिए कर्ज एवं बीमा के मोर्चे पर भी बेहतर मोलभाव कर सकते हैं। इसी तरह आउटपुट के मोर्चे पर उनसे कुछ अपेक्षाएं हैं। जैसे उन्हें उन सदस्यों के लिए गुणवत्तापरक भंडारण एवं परिवहन नेटवर्क विकसित करना चाहिए जो इनका खर्च वहन नहीं कर सकते। पेशेवर क्लीनिंग, ग्रेडिंग और पैकेजिंग से वे गुणवत्ता नियंत्रण सुनिश्चित कर सकते हैं। एफपीओ अपना खुद का ब्रांड भी बना सकते हैं। वे संस्थागत खरीदारों को सीधे अपना माल बेच सकते हैं जहां तमाम राज्य एकमुश्त खरीदारी की अनुमति देते हैं।

एफपीओ कई और तरीकों से अपने सदस्यों को लाभ पहुंचा सकते हैं

एफपीओ चाहें तो कमोडिटी एक्सचेंज पर सक्रिय होकर कीमतों में उतार-चढ़ाव का लाभ भी उठा सकते हैं। एफपीओ कई और तरीकों से भी अपने सदस्यों को लाभ पहुंचा सकते हैं जैसे कि वे एक कारोबार के रूप में कृषि को लेकर सामान्य समझ को और बेहतर बनाएं। उन्हें प्रशिक्षण उपलब्ध कराना चाहिए जिसमें विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े लोग अपने अनुभव साझा कर सभी के लिए कारोबारी संभावनाएं बेहतर बना सकते हैं। अब एफपीओ कंपनियों, सहकारी इकाइयों या समितियों के रूप में स्थापित हो रहे हैं। उनके अपने नियम-कायदे होते हैं जिनका संचालन चुना हुआ बोर्ड करता है। 

पेशेवरों को जोड़कर कृषि को एक कारोबार की तरह चलाया जा सकता है

किसी कंपनी की भांति संचालन के लिए वे पेशेवरों की भर्ती कर सकते हैं। इसमें उत्साही सामाजिक उद्यमियों और बड़े किसानों को भी साथ लिया जा सकता है, जो छोटे किसानों एवं कृषि विशेषज्ञों को अपने साथ जोड़ें ताकि कृषि को एक कारोबार की तरह चलाया जा सके।

कृषि को आजीविका के जरिये से एक कारोबार में तब्दील करना जोखिम

भारतीय ग्रामीण तंत्र में इसी नजरिये का अभाव है। कृषि को महज आजीविका के जरिये से एक कारोबार में तब्दील करने के कुछ सामान्य जोखिम हैं, लेकिन ऐसे जोखिम से मिलने वाला प्रतिफल एफपीओ का सबसे बड़ा योगदान हो सकता है।

प्रत्येक एफपीओ के लिए केंद्र सरकार 15 लाख का अंशदान देगी, क्रेडिट गारंटी स्कीम शुरू होगी

पूर्वोत्तर और पर्वतीय राज्यों में एफपीओ की शुरुआत 300 के बजाय 100 सदस्यों से हो सकती है। प्रत्येक एफपीओ के लिए केंद्र सरकार 15 लाख रुपये का अंशदान देगी। क्रेडिट गारंटी स्कीम शुरू की जाएगी। एफपीओ को कर्ज लेने की अनुमति मिलेगी। वहीं ‘एक जिला-एक उत्पाद’ जैसी योजना चलाने वाले उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में एफपीओ विशिष्ट उत्पादों के उत्पादन एवं बिक्री पर जोर देंगे।

एफपीओ स्थापना में तीन एजेंसियां सहायक होंगी

एफपीओ स्थापना में तीन एजेंसियां सहायक होंगी। पहली स्माल फार्मर्स एग्रीबिजनेस कंसोर्टियम (एसएफएसी), राष्ट्रीय सहकारिता विकास निगम (एनसीडीसी) और तीसरी नाबार्ड। राज्य सरकारों की ऐसी एजेंसियों को भी यह जिम्मा सौंपा जा सकता है। इसमें क्लस्टर आधारित कारोबारी संगठन भी स्थापित किए जाएंगे जो एफपीओ को परिचालन, तकनीक, विपणन और कानूनी सलाह मुहैया कराएंगे। वास्तव में सरकार एसएफएसी के तहत राष्ट्रीय परियोजना प्रबंधन अभिकरण यानी एनपीएमए की स्थापना पर भी विचार कर रही है जो एफपीओ की सफलता के लिए इस ढांचे का प्रबंधन करेगी। 

एफपीओ किसानों और उपभोक्ता के बीच की खाई को पाटने का मोदी सरकार का है प्रयास

वास्तव में एफपीओ किसानों और उपभोक्ता के बीच की खाई को पाटने का मोदी सरकार का एक और प्रयास है। ई-नैम, ग्रामीण हाट और अपनी सामूहिक मोलभाव की क्षमता से वे मंडी समितियों के प्रभाव को समय के साथ कम कर सकते हैं। देखने वाली बात यही होगी कि इसमें कितना वक्त लगता है? भारतीय ग्र्रामीण संकट को स्थायी समाधान चाहिए। भारत के जीडीपी में कृषि का योगदान मात्र 15 प्रतिशत है, लेकिन देश की 60 फीसद आबादी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसी पर निर्भर है। देश को समृद्ध बनाने के लिए इस असंतुलन को दूर करना जरूरी है। ऐसे में सरकार सुनिश्चित करे कि एफपीओ के जरिये वह जो पहल करने जा रहा ही, उसमें सफलता मिले।

( लेखक नीति विश्लेषक एवं स्तंभकार हैं )