ए. सूर्यप्रकाश: बीते दिनों जापान, आस्ट्रेलिया और पापुआ न्यू गिनी के दौरे पर गए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वहां जिस प्रकार आवभगत की गई, उससे पीएम की यह विदेश यात्रा यादगार बन गई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस मान-सम्मान का महत्व इस कारण और बढ़ जाता है कि लगभग इसी समय प्रधानमंत्री केंद्र की सत्ता में अपने नौ वर्ष पूरे कर रहे हैं। यह विदेश यात्रा एक प्रकार से मोदी के राष्ट्रीय नेता से अंतरराष्ट्रीय नेता के रूप में उभार का पड़ाव बन गई, जिन्हें विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न विचारधारा वालों से भी इतना आदर-सत्कार मिल रहा है।

इसी दौरे पर जी-7 सम्मेलन में विश्व के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा कि वह मोदी के आटोग्राफ लेना चाहते हैं और मोदी इतने लोकप्रिय हैं कि अमेरिका में उनकी प्रस्तावित यात्रा के दौरान राजकीय भोज में सहभागिता के लिए कोई स्थान शेष नहीं बचा, लेकिन उसमें शामिल होने के लिए उनके पास तमाम सिफारिशें आ रही हैं।

सिडनी के स्टेडियम में आयोजित कार्यक्रम में आस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंटनी अलबनीजी भी मोदी को लेकर अभिभूत दिखे। कुछ समय पहले उसी स्टेडियम में प्रख्यात अमेरिकी गायक-गीतकार ब्रूस स्प्रिंगस्टीन का कार्यक्रम आयोजित हुआ था। स्प्रिंगस्टीन के प्रशंसकों ने उन्हें ‘द बास’ की उपमा दी है। अलबनीजी ने कहा कि यहां तक कि स्प्रिंगस्टीन को भी लोगों की इतनी उत्साही प्रतिक्रिया नहीं मिली, जितनी मोदी को मिली तो उन्होंने 20,000 लोगों की भीड़ से खचाखच भरे स्टेडियम में मोदी को ‘द बास’ करार दिया।

आस्ट्रेलियाई लोकतंत्र को और सशक्त एवं अधिक समावेशी बनाने के लिए उन्होंने मोदी का आभार भी व्यक्त किया। पापुआ न्यू गिनी के प्रधानमंत्री जेम्स मारपे ने तो मोदी का स्वागत उनके पैर छूकर किया। इस भाव ने भारतीयों को भी हतप्रभ कर दिया, क्योंकि किसी भारतीय नेता को विदेश में ऐसा सम्मान कभी नहीं मिला।

वैश्विक स्तर पर मोदी को मिल रही यह मान्यता उनकी नीतियों की वजह से ही है। इससे पहले किसी भारतीय प्रधानमंत्री को वैश्विक नेताओं से इतनी भूरि-भूरि प्रशंसा नहीं मिली थी। इसका श्रेय मोदी की विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके आचार-व्यवहार को जाता है। किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री को लेकर न्यूयार्क और टेक्सास से लेकर म्यांमार और सिडनी तक भारतवंशियों में इतनी उमंग नहीं दिखी। यह अप्रत्याशित है।

छह वर्ष पहले मोदी ने जब अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित किया तो वहां उपस्थित लोगों ने छह मिनट तक उन्हें ‘स्टैंडिंग ओवेशन’ यानी अपने स्थान से खड़े होकर सम्मान दिया। इस सबका यही अर्थ निकलता है कि नौ वर्षों में धीरे-धीरे ही सही मोदी लोकप्रियता की सीढ़ी पर निरंतर चढ़ते रहे।

मोदी ने भारतीय विदेश नीति का कायाकल्प इसी दृष्टिकोण के साथ ही किया कि भारत का हित किसमें सबसे अधिक है। उन्होंने अमेरिका और रूस के बीच खींचतान में गजब का संतुलन साधा। चीन के मुद्दे से बखूबी निपटते हुए उन्होंने उसके विरुद्ध हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्वाड की मुहिम को मजबूती प्रदान की। साथ ही भारत की सैन्य शक्ति को सशक्त बनाते हुए रक्षा उत्पादन में स्वदेशीकरण को भी प्रोत्साहन दिया।

भारतीय रक्षा क्षेत्र में ‘मेक इन इंडिया’ को लेकर ऐसा उत्साह पहले कभी नहीं दिखा और उसे निजी क्षेत्र की भागीदारी के लिए भी खोल दिया गया। रूस-यूक्रेन युद्ध के मामले में भी उन्होंने पुराने साथी रूस के साथ संबंधों को मधुर बनाए रखते हुए अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद पेट्रोलियम आपूर्ति सुनिश्चित की तो यूक्रेन को भी मानवीय आधार पर मदद पहुंचाई।

यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की ने इस मदद के लिए मोदी का आभार भी व्यक्त किया। मोदी ने भारतीय विदेश सेवा के सोच-विचार को भी बदल दिया जो सेवा दशकों से नेहरूवादी ढर्रे पर चलती रही। विदेश मंत्री एस. जयशंकर की भाषा और तेवरों में यह स्पष्ट होता है, जिन्होंने तमाम मंचों पर चीन और पाकिस्तान को जोरदार तरीके से आईना दिखाने का काम किया।

संयुक्त राष्ट्र में राजनयिकों की भाषा और रवैये में बदलाव के पीछे भी मोदी प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जैसे कि संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि रहे टीएस तिरुमूर्ति ने हिंदूफोबिया के साथ ही बौद्धों और सिखों के हितों से जुड़ा मुद्दा उठाया था। इससे पहले भारत में कभी इतनी मुखर विदेश एवं सामरिक नीति नहीं रही, जिसने वैश्विक समुदाय को ऐसे दो-टूक संदेश दिए हों।

वैश्विक स्तर पर भारत को मिल रही प्रतिष्ठा के बावजूद देश में विघ्नसंतोषियों की कमी नहीं है। पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा ने मोदी पर कटाक्ष करते हुए कहा कि क्या उन्हें अगले आम चुनाव में पापुआ न्यू गिनी से भाजपा का टिकट मिलेगा? दरअसल, मोदी जबसे प्रधानमंत्री बने हैं तब से नेताओं के एक वर्ग में घोर निराशा एवं नकारात्मकता छाई हुई है।

वर्ष 2014 में मोदी ने जब म्यांमार के एक स्टेडियम में 20,000 लोगों की भीड़ को संबोधित किया तो एक विपक्षी नेता ने अजीबोगरीब दावा किया कि मोदी ‘यहां (भारत) से लोगों को ले जाकर नारा लगवा रहे हैं।’ क्या इससे भी बेतुकी बातें हो सकती हैं? इसी तरह न्यूयार्क के मैडिसन स्क्वायर गार्डन में मोदी को सुनने के लिए जुटे 20,000 लोगों को लेकर कहा गया कि यह कोई बड़ी बात नहीं। स्वाभाविक है कि हमें ऐसे बयानों को अनदेखा करना चाहिए, क्योंकि यह कुछ और नहीं, बल्कि ‘अंगूर खट्टे हैं’ वाली बात है।

अंतत:, मोदी युग को लेकर यही कहा जा सकता है कि यहां कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं। यह एक नया आत्मनिर्भर भारत है जो खुलकर अपनी बात रखता है और जवाब मांगने में कोई संकोच नहीं करता। यहां पाखंड के लिए भी कोई जगह नहीं। नई विश्व व्यवस्था में मोदी का यही योगदान कहा जा सकता है कि यहां वास्तविकता को प्रकट किया जाए और दोहरे रवैये से बचा जाए। यह नरेन्द्र मोदी का ‘नया भारत’ है।

(लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)