[ संजय गुप्त ]: छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा को मात देने के बाद राहुल गांधी के इस बयान का मोदी सरकार पर असर पड़ता दिख रहा है कि वह प्रधानमंत्री को तब तक चैन से नहीं सोने देंगे जब तक वह किसानों का कर्ज नहीं माफ करते। राहुल गांधी ने यह कहकर भी एक राजनीतिक दांव चला है कि वह लोकसभा चुनाव कर्ज माफी के मुद्दे पर लड़ेंगे। यह कुछ वैसा ही राजनीतिक दांव है जैसा कांग्रेस ने एक समय गरीबी हटाओ नारे को उछाल कर चला था।

अपने राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के लिए गरीब और वंचित तबके को रियायत देना कांग्रेस की पुरानी रणनीति रही है। सभी इससे परिचित हैैं कि 2009 में संप्रग सरकार ने किसान कर्ज माफी की जो घोषणा की वही उसकी जीत में सहायक बनी, क्योंकि किसान एक बड़ा वोट बैैंक हैैं। इस बार भी विधानसभा चुनावों के पहले कांग्रेस की ओर से कर्ज माफी का वादा किया गया और मोदी सरकार को किसान विरोधी बताया गया। जहां कांग्रेस इसी रणनीति पर आगे भी चलना चाह रही है वहीं मोदी सरकार दूरगामी असर वाले फैसलों पर ध्यान केंद्रित किए हुए हैै।

देश में बुनियादी बदलाव लाने के लिहाज से यह ठीक है, लेकिन क्या इससे राजनीतिक और चुनावी हित भी सधेंगे? अब तीन राज्यों में हार के बाद मोदी सरकार इस पर मंथन कर रही है कि किसानों की नाराजगी दूर करने केलिए कौन से कदम उठाए जाएं? इन कदमों के तहत कर्ज माफी पर भी विचार की चर्चा है। यह उस रणनीति से कुछ हटकर है जिसके तहत वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने की बात की जा रही थी। 2022 में अभी समय है। आज जब मतदाता फौरी लाभ चाहते हैैं तब उन्हें ऐसे किसी वादे के जरिये संतुष्ट नहीं रखा जा सकता कि तीन-चार साल बाद उन्हें बेहतर स्थिति में ले आया जाएगा। यह बात किसानों के साथ समाज के अन्य वर्गों पर भी लागू होती है।

यह सही है कि मोदी सरकार की विकास और जनकल्याण की कई योजनाएं कहीं बेहतर साबित हुई हैैं, लेकिन तीन राज्यों के चुनाव नतीजों ने यह भी दिखाया है कि चिंतित किसान कर्ज माफी जैसी योजनाओं की ओर आकर्षित हो रहे हैैं। ऐसा शायद इसीलिए है, क्योंकि औसत किसान अपनी हालत में उल्लेखनीय सुधार नहीं देख रहे हैैं। इससे इन्कार नहीं कि किसानों की हालत अच्छी नहीं, लेकिन यह भी सही है कि कर्ज माफी के जरिये उनकी हालात में सुधार नहीं आने वाला। मोदी सरकार ऐसा कुछ नहीं कर पाई जिससे किसानों को उनकी उपज का मुनाफे भरा मूल्य मिलता। अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत का डेढ़ गुना दिए जाने की घोषणा पर सही तरह से अमल होता तो शायद किसानों को अपनी आय बढ़ती हुई दिखती और आज स्थिति कुछ अलग होती।

सच्चाई यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि के बाद भी किसानों को अपनी उपज औने-पौने दाम में बेचनी पड़ रही है। महाराष्ट्र के किसान प्याज डेढ़-दो रुपये किलो में बेचने को मजबूर हैैं। कुछ ऐसी ही स्थिति आलू किसानों की भी है। आखिर केंद्र और साथ ही राज्य सरकारें ऐसी कोई व्यवस्था क्यों नहीं कर सकीं जिससे किसानों को एक निश्चित आय हो सकती? यदि किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिलने का भरोसा होता तो वे कर्ज माफी जैसी योजनाओं के पीछे नहीं भाग रहे होते।

आज जो मसला देश के गरीब और साथ ही निम्न-मध्यम वर्ग को आहत कर रहा है वह है उनकी आय में अपेक्षित बढ़ोतरी न हो पाना। हालांकि मोदी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं से गरीब तबका लाभान्वित हुआ है, लेकिन यह तबका अपने बेहतर भविष्य को लेकर आशंकित है। नोटबंदी और जीएसटी जैसे जो फैसले लिए गए वे बड़े और दूरगामी असर वाले तो थे, लेकिन उनसे फौरी लाभ नहीं मिला। उलटे इन फैसलों से छोटे-मोटे कारोबार पर विपरीत असर पड़ा। छोटे और मझोले कारोबारी अभी भी जीएसटी की प्रक्रिया को जटिल और उलझन भरी मान रहे हैैं। उन्हें लगता है कि उनकी कमाई तो कम हुई ही, उलझन अलग से बढ़ गई। व्यापारियों का एक वर्ग ई-कॉमर्स कंपनियों को भी अपने लिए मुसीबत मान रहा है। वह इन कंपनियों पर अंकुश चाहता है ताकि उसके धंधे पर असर न पड़े। हाल में सरकार ने इन कंपनियों के लिए कुछ नियम तय किए हैैं, लेकिन कहना कठिन है कि सरकार का यह कदम व्यापारी वर्ग की नाखुशी दूर करने के लिए पर्याप्त है।

अगर नौजवानों की बात की जाए तो अधिकांश युवा निश्चित आमदनी वाली एक बंधी बधाई नौकरी की चाहत रखते हैैं। यह सही है कि कोई भी सरकार सभी युवाओं को नौकरियां नहीं दे सकती, लेकिन ऐसा माहौल बनाना उसकी जिम्मेदारी है जिससे नए-पुराने उद्योग-धंधे तेजी से आगे बढ़ें और वे रोजगार के पर्याप्त अवसर पैदा करें। युवा अप्रत्यक्ष रोजगार के संदर्भ में दी जाने वाली इन दलीलों से संतुष्ट नहीं होने वाले कि सरकार की योजनाओं से नौकरियों के साथ स्वरोजगार के नए अवसरों का सृजन होता है। ऐसी दलीलें राजनीतिक तौर पर भी चुनौती पेश करती हैैं। जब कभी राजनीतिक दलों द्वारा युवाओं को अप्रत्यक्ष रोजगार को लेकर समझाने की कोशिश होती है तो इससे उन्हें राजनीतिक रूप से नुकसान उठाना पड़ता है। स्पष्ट है कि मोदी सरकार को कहीं न कहीं यह देखना चाहिए कि कैसे युवाओं के लिए प्रत्यक्ष रोजगार के अवसर भी उपलब्ध हों।

तमाम ऐसे सरकारी विभाग हैैं जिन पर विकास एवं जनकल्याणकारी कामों को आगे बढ़ाने और लोगों को सुविधाएं उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी होती है। यदि शिक्षा, सफाई, स्वास्थ्य से जुड़े विभागों में नौैकरियों के अवसर बढ़ाए जाते तो दोहरा लाभ होता। एक ओर नई नौकरियों के अवसर उपलब्ध होते और दूसरी ओर लोगों को आसानी से सुविधाएं भी मिलतीं। इसी तरह यदि पुलिस बल को दोगुना करने का अभियान छेड़ा जाता तो युवाओं को रोजगार मिलता और साथ ही कानून एवं व्यवस्था में सुधार देखने को मिलता। यह सुधार उद्योग-व्यापार को फलने-फूलने का अवसर भी प्रदान करता। भारत में प्रति एक लाख आबादी पर करीब 140 पुलिस कर्मी हैैं। यह दुनिया में पांचवां सबसे कम औसत है। आखिर इस औसत को सुधारने का काम क्यों नहीं हुआ? इसी तरह देश में शिक्षकों, स्वास्थ्य एवं सफाई कर्मियों की भी कमी है। इस कमी को भी अभियान चलाकर पूरा किया जा सकता था। इसके अलावा अगर विभिन्न विभागों में रिक्त पड़े पदों को भरा गया होता तो शायद आज सरकार को रोजगार के सवाल पर मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ रहा होता।

देखना यह होगा कि बचे हुए दो-तीन महीने के कार्यकाल में मोदी सरकार ऐसी कौन सी रणनीति अपनाती है जिससे देश के किसानों के साथ गरीब और मध्यवर्ग को राहत मिल सके? यह एक बड़ा वोट बैंक है, जिसकी आकांक्षाओं को पूरा किया जाना आवश्यक है। अब जब खेती और किसानों की बेहतरी के लिए केंद्र सरकार की ओर से कुछ घोषणाओं की उम्मीद की जा रही है तब सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उसकी घोषणाएं किसानों को सचमुच लाभान्वित करने वाली हों।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]