[ हर्ष वी पंत ]: बीते कुछ महीनों में मोदी सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे को चाक-चौबंद करने में खासी तत्परता दिखाई है। सरकार का यकायक ऐसे कदम उठाना कुछ हैरान तो करता है, लेकिन यह निश्चित रूप से एक स्वागतयोग्य पहल है। इसी कड़ी में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार यानी एनएसए की अगुआई में रणनीतिक नीतिगत समूह अर्थात एसपीजी का पुनर्गठन किया गया है। यह राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद का सहयोग करेगा। एसपीजी के सदस्यों में नीति आयोग के उपाध्यक्ष, कैबिनेट सचिव, तीनों सेनाओं के प्रमुख, भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर, विदेश सचिव, गृह सचिव और रक्षा सचिव शामिल होंगे।

अब राष्ट्रीय सुरक्षा नीतियों को आकार देने में अंतर-मंत्रालयी स्तर पर सहयोग एवं समन्वय में इसकी ही मुख्य भूमिका होगी। वैसे एसपीजी की स्थापना वर्ष 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा की गई थी, लेकिन पहले इसकी कमान कैबिनेट सचिव के हाथ में होती थी। अब यही दारोमदार एनएसए के पास होगा। इसके कारण पहले से ही शक्तिशाली संस्था एनएसए और ताकतवर हो जाएगी। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सचिवालय (एनएससीएस) में भी एनएसए को तीन नायब मिले हैं। इन तीनों के कार्यक्षेत्र का दायित्व भी अलग-अलग है। संयुक्त खुफिया समिति के पूर्व प्रमुख आरएन रवि अभी हाल में तीसरे उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनाए गए हैं। उनसे पहले रॉ के पूर्व प्रमुख राजेंद्र खन्ना और रूस में भारत के पूर्व राजदूत पंकज सरन पहले ही एनएससीएस में मौजूद हैं। ये बदलाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा रक्षा नियोजन समिति यानी डीपीसी गठित करने की महत्वपूर्ण पहल के कुछ महीनों बाद देखने को मिल रहे हैं।

डीपीसी में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के नेतृत्व में चीफ ऑफ स्टाफ समिति के चेयरमैन, तीनों सेनाओं के प्रमुख, रक्षा सचिव, व्यय सचिव और विदेश सचिव शामिल हैं। इसका मकसद देश की सुरक्षा के सम्मुख चुनौतियों को देखते हुए उनका दीर्घकालीन समाधान निकालना है। इसके साथ ही प्रधानमंत्री ने हाल में तीनों सेवाओं के लिए साइबर, अंतरिक्ष एवं विशेष अभियानों के लिए विशेष एजेंसियां गठित करने को मंजूरी दी है। सुरक्षा ढांचे के मोर्चे पर यह कायाकल्प एक ऐसे समय पर हो रहा है जब राष्ट्रीय सुरक्षा नियोजन एक दोराहे पर खड़ा है।

भारत में राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर एक विशेष दृष्टिकोण के कारण एकीकृत नजरिये का अभाव ही रहा है। तीनों सेवाओं के साथ ही नागरिक एवं रक्षा एजेंसियां भी अक्सर अलग-अलग दिशाओं में काम करती हैं। ऐसा अनौपचारिक रवैया अक्सर वांछित नतीजे नहीं दे पाता और खतरे को भांपने से लेकर सुरक्षा बलों के ढांचागत प्रबंधन को अपेक्षित रूप से नहीं साध पाता। इसमें प्रत्येक सुरक्षा बल अपने स्तर पर ही एजेंडे को आगे बढ़ाने में लगा रहता है। भारतीय रक्षा नीति से जुड़ी सुर्खियां अधिकांश मौकों पर जमीनी हकीकत से पूरी तरह अलग होती हैं। भारत के 250 अरब डॉलर के सैन्य आधुनिकीकरण पर प्राय: बात होती है। जब नई दिल्ली महत्वपूर्ण हथियारों को हासिल करने में जुटी हुई है तब इस पर भी संदेह गहरा रहे हैं कि क्या उसमें वह क्षमता है जिससे सैन्य सेवाओं में इन संसाधनों को दीर्घावधिक रणनीति के तहत भुनाया जा सके। वास्तव में भारत में ‘समग्र्र रणनीति’ का अभाव कई सवाल खड़े करता है।

जबसे हमारा तंत्र अपने अस्तित्व में है समझिए तबसे ही रक्षा सुधारों के लिए आवाज उठ रही है। यह अभियान रक्षा नीति निर्माण के माध्यम से बिखरे हुए संसाधनों के एकीकरण और समन्वय पर जोर देता है। इससे भी बढ़कर यह अभियान ऐसे सरकारी बुनियादी ढांचे की हिमायत करता है जो राजनीतिक निर्णयों को पर्याप्त रूप से लागू कर संसाधनों को उनके हिसाब से संतुलित कर सके। भारत में फिलहाल इसका अभाव नजर आ रहा है। समग्र्र रणनीति विमर्श और रक्षा के मोर्चे पर भारत की स्थिति के बीच में एक कड़ी बनाकर संसाधनों के संदर्भ में राजनीतिक निर्णयों की बेहतर अभिव्यक्ति हो सकती है।

भारत के रक्षा ढांचे एवं प्रक्रियाओं का उद्भव और विकास मौजूदा प्रधानमंत्री के निजी नेटवर्क और प्राथमिकताओं से तय होता है, क्योंकि नीतिगत मोर्चे पर वही निर्धारक होने के साथ ही उसे अमल में लाता है। फिर जब प्रधानमंत्री कमजोर हुए हों या फिर उनके समक्ष कोई अन्य एजेंडा अधिक महत्वपूर्ण रहा हो तो उसका परिणाम नीति निर्माण के मोर्चे पर शिथिलता के रूप में देखने को मिला। रक्षा सुधारों के अभियान की शुरुआत से ही उसका जोर इस बात पर रहा है कि प्रभावी रक्षा नीति के लिए जरूरी है कि सरकारी संसाधनों के बेहतर एकीकरण के साथ ही उचित समन्वय हो, लेकिन इस मामले में खास सफलता नहीं मिल पाई। इस तंत्र में सुधार के लिए आवश्यक होगा कि भारत अपने दुर्लभ संसाधनों का राजनीतिक उद्देश्यों के अनुरूप प्रबंध करे।

प्रभावी रक्षा नियोजन एवं सैन्य ढांचा एक ऐसे संस्थागत प्रारूप का हिस्सा है जो राजनीतिक आग्र्रहों से पूरी तरह मुक्त हो, जिसमें संसाधनों को बेहतर तरीके से लामबंद किया जा सके और जिनके बेहतर इस्तेमाल से देश की शक्ति बढ़े। एक ऐसे समय में जब सैनिकों की संख्या से ज्यादा तकनीक रणभूमि में ज्यादा अहम भूमिका निभाने लगी है तब भारत में अभी भी सुरक्षा बलों के ढांचे को चुस्त बनाने पर बहस की जरूरत पड़ रही है। भारत को अतिरिक्त सैनिकों की संख्या में तत्काल कटौती करनी चाहिए, क्योंकि वार्षिक रक्षा बजट का तकरीबन आधा हिस्सा वेतन और पेंशन में ही खर्च हो जाता है। यह स्थिति अधिक समय तक बर्दाश्त नहीं की जा सकती। इसी तरह ‘मेक इन इंडिया’ पहल की प्राथमिकताओं और जटिल रक्षा खरीद प्रक्रिया का भी एक दूसरे से तालमेल बिठाना होगा।

दुनिया में हथियारों के सबसे बड़े आयातक की भारत की छवि रक्षा विनिर्माण का गढ़ बनने की उसकी हसरतों से मेल नहीं खाती। तीनों सेवाओं के मुख्यालयों, सेवाओं और रक्षा मंत्रालय के बीच एकीकरण पर बहस अभी भी जारी है। इसका कोई निष्कर्ष निकलना ही चाहिए। रक्षा नियोजन की राह में अनिश्चितता का मुद्दा अभी भी सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है। भारत के संदर्भ में मानसिकता, ढांचे और प्रक्रियाओं में आमूलचूल बदलाव बेहद जरूरी हो गया है। तेजी से बदलते सुरक्षा परिदृश्य के साथ ही दुर्लभ संसाधनों पर कायम रहने वाला स्थाई दबाव रणनीतिक रक्षा नियोजन की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल में देर से सही, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे को दुरुस्त करने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं। हालांकि अभी आदर्श स्थिति नहीं है, लेकिन इससे यह संकेत मिलता है कि नीति निर्माता चुनौतियों की गंभीरता को समझ रहे हैं। यह उम्मीद की जा सकती है कि चुनावी शोर में ऐसे अहम मुद्दों की अनदेखी और उपेक्षा नहीं होगी। आखिरकार सरकारें तो आती-जाती रहेंगी, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा की प्राथमिकताएं जस की तस कायम रहेंगी।

[ लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं ]