[ संजय गुप्त ]: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में नकाब पहने लोगों ने जिस तरह छात्रों को लाठी-डंडों से पीटा और तोड़फोड़ की उसकी जितनी भी निंदा-भर्त्सना की जाए, कम है। इन नकाबपोश हमलावरों की पहचान करके उन्हें सख्त सजा दी जानी चाहिए। सजा के हकदार वे छात्र भी हैैं जो करीब तीन महीनों से विश्वविद्यालय में पठन-पाठन बाधित किए हुए थे और अपनी मांगें मनवाने के लिए हिंसा का सहारा भी ले रहे थे। इन छात्रों ने नए छात्रों का रजिस्ट्रेशन रोकने के लिए विश्वविद्यालय के सर्वर रूम में जाकर जिस तरह तोड़फोड़ की उसे भी गुंडागर्दी के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता।

विवाद को हिंसा के जरिये सुलझाने की कोशिश करना अतिवादी कृत्य है

किसी भी विश्वविद्यालय में कोई भी विवाद हो उस हिंसा के जरिये सुलझाने की कोशिश करना अतिवादी कृत्य है। इस अतिवाद से केवल वैमनस्य ही बढ़ेगा और समस्याएं और अधिक विकराल होंगी। गांधी और आंबेडकर के देश में विश्वविद्यालय परिसर में हिंसक घटनाएं होना खतरनाक हैै। दिल्ली पुलिस ने अपनी प्रारंभिक जांच में हिंसा करने वाले करीब दस छात्रों की पहचान की है। इनमें दोनों यानी वाम और दक्षिणपंथी गुट के छात्र हैैं। एक नाम छात्रसंघ की अध्यक्ष का भी है।

जेएनयू हिंसा की व्याख्या वैसी ही हो रही है जैसी सीएए को लेकर की जा रही है

इस पर हैरानी नहीं कि जेएनयू हिंसा की भी वैसी ही मनमानी व्याख्या की जा रही है जैसी नागरिकता संशोधन कानून को लेकर की जा रही है। इसमें संदेह है कि विपक्ष के ऐसे आचरण से मोदी सरकार की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है। वैसे भी उसका एजेंडा साफ है और उसके तहत वह देश की पुरानी समस्याओं का समाधान करने के लिए प्रतिबद्ध है। विपक्ष को इसका आभास हो तो बेहतर कि दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए कहीं अधिक संकल्पबद्ध है और उसका बेजा विरोध उसे फायदा ही पहुंचा रहा है।

सीएए के खिलाफ खड़े राजनीतिक दलों ने जेएनयू हिंसा को भी भुनाना शुरू कर दिया

इस कानून के खिलाफ खड़े राजनीतिक दलों ने सरकार विरोध के अपने अभियान में जिस तरह जेएनयू हिंसा को भी भुनाना शुरू कर दिया है उससे यदि कुछ साफ हो रहा तो यही कि उन्हें मोदी सरकार के विरोध का कोई न कोई बहाना चाहिए। यदि ऐसे राजनीतिक और साथ ही गैर-राजनीतिक तत्व यह समझ रहे हैैं कि अपने अतार्किक विरोध से वे मोदी सरकार को दबाव में ले आएंगे तो इसका मतलब यही है कि उन्हें इसका भान ही नहीं कि यह सरकार अपने एजेंडे से इस तरह पीछे हटने वाली नहीं है।

मोदी सरकार अपने एजेंडे से पीछे हटने वाली नहीं, विरोध को दरकिनार कर सीएए हुआ अधिसूचित

इसका प्रमाण केवल यही नहीं कि उसने तमाम विरोध को दरकिनार कर विगत दिवस नागरिकता संशोधन कानून को अधिसूचित कर दिया, बल्कि यह भी है कि उसने तीन तलाक विधेयक को कानून का रूप देने के अपने संकल्प को पूरा किया और कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के असंभव लक्ष्य को भी पूरा किया। साफ है कि विपक्षी दल या तो मोदी और शाह के इरादों से अनजान हैैं या फिर यह समझने से इन्कार कर रहे कि राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर उनका अनावश्यक विरोध कर वह उन्हें ही राजनीतिक रूप से मजबूत करने का काम कर रहे हैैं।

वामपंथियों को खुश करने के लिए ही प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जेएनयू की स्थापना की थी

जहां तक जेएनयू की बात है, यह विश्वविद्यालय अपनी विशिष्ट वामपंथी संस्कृति के लिए जाना जाता है। यहां वामपंथी संस्कृति को पोषण इसलिए मिला, क्योंकि वामपंथियों को खुश करने के लिए ही प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। चूंकि इस विश्वविद्यालय में वामपंथी विचारकों को चुन-चुनकर रखा गया इसलिए वह वामपंथ का अड़्डा बन गया। यह उस दौर में हुआ जब भारत तत्कालीन सोवियत संघ के पाले में दिखता था। चूंकि इंदिरा गांधी ने जेएनयू के जरिये वामपंथियों के मन की मुराद पूरी की इसलिए आपातकाल के दौरान उन्होंने भी उनका साथ दिया।

जेएनयू में एबीवीपी वामपंथी छात्र संगठनों को चुनौती दे रहा, इसे वामपंथी सहन नहीं कर पा रहे

चूंकि जेएनयू में वामपंथी सोच-विचार को संरक्षित करने का सिलसिला दशकों तक कायम रहा इसलिए वाम दलों और छात्र संगठनों ने इस विश्वविद्यालय को अपनी निजी जागीर मान लिया। एक समय कांग्रेसी छात्र संगठन वामपंथी छात्र संगठनों को चुनौती देता था, लेकिन जैसे ही कांग्रेस और वामपंथी दलों के बीच वैचारिक दूरी घटी, कांग्रेसी छात्र संगठन ने अपने हथियार डाल दिए। बीते कुछ समय से अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद वामपंथी छात्र संगठनों को चुनौती देने की कोशिश कर रहा है। इसे वामपंथी छात्र संगठन सहन नहीं कर पा रहे हैैं।

जेएनयू में बढ़ी फीस को लेकर उग्र विरोध हुआ

2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद वामपंथी छात्र संगठन और अधिक बेचैन एवं उग्र हो गए। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में एम जगदीश कुमार जेएनयू के कुलपति बने। चूंकि वह न तो वामपंथी खेमे के थे और न वाम पृष्ठभूमि वाले इसलिए पहले दिन से उनका विरोध शुरू हो गया। तीन महीने पहले जब जेएनयू की फीस बढ़ाई गई तो उसका उग्र विरोध शुरू हो गया।

बढ़ी फीस में कटौती के बावजूद वामपंथी छात्र संगठनों ने धरना प्रदर्शन किए

हालांकि विश्वविद्यालय प्रशासन ने बढ़ी फीस में कटौती कर दी, फिर भी वामपंथी छात्र संगठनों ने धरना-प्रदर्शन जारी रखा। इस धरना प्रदर्शन के दौरान विभिन्न विभागों में ताले डाले गए और शिक्षकों को पढ़ाने से जबरन रोका गया। इतना ही नहीं स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनादर किया गया और कुलपति पर हमला करने की कोशिश की गई।

जेएनयू सीएए के विरोध का अड्डा बना हुआ था इसलिए किसी ने अभद्रता की आलोचना नहीं की

हैरानी यह रही कि किसी ने भी इस मनमानी और अभद्रता की आलोचना करना जरूरी नहीं समझा। जाहिर है कि इसीलिए नहीं समझा, क्योंकि जेएनयू नागरिकता संशोधन कानून के विरोध का भी अड्डा बना हुआ था।

जेएनयू 2016 में तब चर्चा में आया जब भारत तेरे टुकड़े होंगे...जैसे भद्दे नारे लगे थे

यह पहली बार नहीं है जब जेएनयू अप्रिय कारणों से चर्चा में आया हो। इसके पहले वह तब चर्चा में आया था जब 2016 में वहां संसद पर हमले के दोषी आतंकी अफजल गुरु के समर्थन में भारत तेरे टुकड़े होंगे...जैसे भद्दे नारे लगे थे। आज भले ही विपक्षी दल और वामपंथी बुद्धिजीवी और मीडिया का एक हिस्सा जेएनयू में हिंसा के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहा हो, लेकिन आखिर जब नागरिकता कानून को लेकर उसका विरोध पहले से जारी हो तब फिर वह ऐसा कोई काम क्यों करेगी जिससे उसकी समस्या और बढ़े? क्या इससे उसे कोई राजनीतिक लाभ मिलने वाला है?

जेएनयू में पठन-पाठन का माहौल बनाने के लिए मोदी सरकार को उचित कदम लेना चाहिए

बेहतर होगा कि सरकार यह स्पष्ट करने में संकोच न करे कि वह किसी दबाव में आए बिना यह सुनिश्चित करेगी कि जेएनयू का संचालन सही तरीके से हो और वहां पठन-पाठन का उचित माहौल बने। मोदी सरकार दबाव में न झुकने और नामुमकिन को मुमकिन करने के लिए जानी जाती है। इस बार भी उसे दबाव में नहीं आना चाहिए। उसे विपक्षी दलों की ओर से फैलाई जा रही तमाम नकारात्मकता के बाद भी उन मसलों को सुलझाने के लिए आगे बढ़ते रहने के अपने इरादे रेखांकित करते रहने चाहिए जिन्हें हल करने के लिए लोगों ने उसे भारी बहुमत से दोबारा चुना है।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]