[ श्रीराम अग्रवाल ]: आंकड़ों की मानें तो उद्योग-व्यापार जगत को दीपावली से जो उम्मीद थी वह पूरी नहीं हो सकी। अर्थव्यवस्था में उछाल आने की उम्मीद पूरी होती न देखकर सरकार का चिंतित होना स्वाभाविक है, लेकिन केवल चिंता करने से काम नहीं चलेगा। नीति-नियंताओं को उस दबाव को समझना होगा जो आम मध्यमवर्गीय उपभोक्ताओं पर है। परिवार की क्रमश: बढ़ती जरूरतों, बढ़ती महंगाई के बीच उनके लिए जीवन-यापन करना कठिन हो रहा है। विकास के लक्ष्य प्राप्त करने के लिए जहां पूंजी और उत्पादन आवश्यक है वहीं उद्योग जगत में उत्साहपूर्ण वातावरण भी आवश्यक है। यह तभी संभव है जब उत्पादन के साथ मांग का सृजन भी होता रहे। अभी तक सरकार ने आर्थिक सुस्ती से निपटने के लिए केवल पूर्तिपक्षीय समाधानों पर विचार किया है।

उपभोक्ताओं की समस्याओं का हो समाधान

आवश्यक यह है कि बाजार की नब्ज को अपनी गति से चालू रखने के लिए उपभोक्ताओं की समस्याओं के समाधान पर भी विचार किया जाए। भारत जैसी बड़ी अर्थव्यवस्था के विकास के मूल में उत्पादित और आयातित वस्तुओं का बड़ा उपभोक्ता बाजार होना है। देश का अधिकांश मध्यमवर्गीय उपभोक्ता वर्ग शहरी और महानगरीय क्षेत्रों में निजी एवं सरकारी क्षेत्रों में रोजगाररत है। पांच लाख से तीस लाख रुपये तक की सालाना आय वाला यह वर्ग, भवन निर्माण, वाहन, घरेलू विद्युत उपकरण, मोबाइल, लैपटॉप, ऑनलाइन मार्केट, मॉल संस्कृति का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। इसके निरंतर बढ़ते रहने की संभावना के चलते ही तमाम बहुराष्ट्रीय विदेशी कंपनियां भारत में हैं, परंतु तेजी से बढ़ता हुआ रसोई खर्च, बच्चों की महंगी शिक्षा, बीमा किश्त, अच्छे आवास के बढ़ते किराये के साथ आधुनिक रहन-सहन ने लोगों की जेब पर बोझ बढ़ा दिया है।

पेट्रोल, डीजल की बढ़ती कीमतों और रसोई खर्च में बढ़त ने लोगों का बजट बिगाड़ दिया

लोगों की प्राथमिकताएं तेजी से परिवर्तित हो रही हैं। अब वाहन और मकान खरीदना लोगों की प्राथमिकता नहीं। पेट्रोल, डीजल की बढ़ती कीमतों और रसोई खर्च में बढ़त ने लोगों का बजट बिगाड़ दिया है। बढ़ते हुए मॉल कल्चर और ऑनलाइन बाजार के फैलाव ने मध्यम आय वर्गीय आम खुदरा व्यापारियों की हालत भी खराब कर दी है।

ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों का उपभोग घटा

सर्वेक्षण कंपनी नील्सन के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में दैनिक उपभोग की वस्तुओं का बाजार उनकी कुल बिक्री का 36 प्रतिशत अनुमानित है। ग्रामीण क्षेत्रों में डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों का उपभोग पिछले साल की तुलना में घटा है। शहरी क्षेत्रों में भी वह 14 के बजाय 8 प्रतिशत रह गया है।

प्रति व्यक्ति मासिक औसत व्यय में गिरावट

एक अन्य रपट के अनुसार 2017-18 में प्रति व्यक्ति मासिक औसत व्यय ग्रामीण क्षेत्रों में 1587 से घटकर 1524 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 2926 से घटकर 2906 रह गया है। यह एक गंभीर स्थिति की ओर संकेत करता है।

सरकार करों के रूप में आय का 25 फीसद वसूल करती

शहरी क्षेत्रों में घरेलू विद्युत उपकरणों का बाजार लगभग 55 फीसद, दोपहिया वाहनों का लगभग 40 फीसद और चार पहिया वाहनों का लगभग 70 फीसद है। मांग की कमी ने इन उद्योगों को बुरी तरह प्रभावित किया है। मध्यम आय वर्ग वालों के लिए करों का बोझ भी कम नहीं है। जीवनयापन की जितनी भी उपभोग योग्य वस्तुएं हैैं उन पर जीएसटी भी अंतत: उपभोक्ता को ही देना पड़ता है। सरकार किसी न किसी तरह करों के रूप में कर योग्य आय का 25 प्रतिशत वसूल कर लेती है।

देश की कर प्रणाली में विसंगतियां, दोहरी जीएसटी का बोझ

देश की कर प्रणाली में कुछ ऐसी विसंगतियां हैैं जिनकी तरफ सरकार का ध्यान जाना चाहिए। वर्तमान में यदि किसी की कर योग्य आय पांच लाख रूपये है तो उसे कोई कर नहीं देना है, लेकिन यदि उसकी आय सौ रुपये भी अधिक हो गई तो उसे अधिभार सहित 12,900 रुपये आयकर भरना पड़ेगा। यदि कोई व्यक्ति कर्ज लेकर कोई सामग्री खरीदता है तो उसे उस सामग्री के साथ कर्ज की किश्त पर भी जीएसटी देना होता है। इस तरह वह दोहरी जीएसटी देता है।

व्यवसाय की प्रकृति का भेद समाप्त कर आयकर की न्यूनतम छूट सीमा 5 लाख रुपए हो

सरकार के लिए यह आवश्यक है कि वह निजी आयकर की विसंगतियों और दरों का अविलंब पुनरीक्षण करे। यह भी आवश्यक है कि व्यवसाय की प्रकृति का भेद समाप्त कर आयकर की न्यूनतम छूट सीमा पांच लाख रुपये निर्धारित की जाए। पांच लाख से तीस लाख रुपये तक की आयकर योग्य आय पर सीधे दस प्रतिशत की कमी की जानी चाहिए। अर्थात 20 से 10 प्रतिशत और 30 से 20 प्रतिशत की जाए। इससे मध्यम आय वर्ग के करदाताओं को लगभग 51,500 से लेकर 2,75,000 रुपये तक की राहत मिल जाएगी। बाजार में प्रभावी मांग के लिए यह उपाय कारगर सिद्ध होगा। यही बूस्टर औद्योगिक उत्पादन, रोजगार और उपभोग योग्य आय में कई गुणा वृद्धिकारक सिद्ध होगा।

( लेखक अर्थशास्त्री हैैं )