प्रदीप सिंह। वैसे तो लोकसभा चुनाव में मुद्दों की कमी नहीं है, लेकिन दोनों प्रमुख दलों, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की नीतियों की बात करें तो एक बुनियादी अंतर नजर आता है। करीब साढ़े पांच दशक तक देश पर राज करने वाली कांग्रेस सरकारों की नीति एनटाइटलमेंट की रही है यानी लोगों को इतना दो कि वे जीवित रहें, लेकिन अपने पैरों पर खड़े न हो सकें और सरकार पर उनकी निर्भरता बनी रहे। इसके विपरीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार का जोर समाज के गरीब तबके के एम्पावरमेंट पर है यानी सशक्त बनाकर लोगों के जीवन स्तर में बदलाव लाने की नीति।

दरअसल मोदी ने जो पिछले पांच सालों में जो किया है वह करने के बारे में इससे पहले किसी सरकार ने सोचा ही नहीं। यदि ऐसा न होता तो क्या कारण है कि आजादी के पैंसठ बरस बाद भी तीस करोड़ लोग बैंकिग व्यवस्था से दूर रहे? सात करोड़ परिवारों की महिलाएं धुआं पीकर बीमार होने के लिए अभिशप्त थीं। उन्हें रसोई गैस का कनेक्शन पहले क्यों नहीं मिल सकता था? बात ज्यादा पुरानी नहीं है। मोदी के आने से पहले 2014 में ही राहुल गांधी एक कार्यक्रम में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से नौ के बजाय साल में बारह रसोई गैस सिलेंडर देने की मांग कर रहे थे और मान लिए जाने पर ऐसे खुश हो रहे थे मानो ओलंपिकगोल्ड मेडल जीत लिया हो। सिर्फ पांच साल में मोदी सरकार ने ऐसी चर्चा को ही निरर्थक बना दिया। बीमारी के इलाज के लिए गरीब को अपना सब कुछ बेचना पड़ता था या फिर इलाज के अभाव में मरने को मजबूर था। आज दस करोड़ परिवारों के पचास करोड़ लोगों को हर साल पांच लाख रुपये तक के इलाज की सुविधा उपलब्ध है, बिना एक पैसा खर्च किए। डेढ़ करोड़ गरीब परिवारों के पास अपना घर है, बिजली है।

यह सब करने के लिए मोदी सरकार ने सरकारी खजाना लुटाया नहीं। आजादी के बाद से शायद यह पहली सरकार है जिसने लगातार पांच साल तक राजकोषीय घाटे को नियंत्रण में रखने के साथ ही महंगाई को भी काबू में रखा। इसके बावजूद समाज के गरीब तबके के रोजमर्रा के जीवन में बदलाव लाने के उपाय किए। मध्यवर्ग के हाथ में ज्यादा पैसा रहने दिया और किसानों के हित में कई तरह के कदम उठाने के बाद उन्हें छह हजार रुपये सालाना नकद राशि सीधे खाते में भेजने की व्यवस्था की। इन पांच सालों में अर्थव्यवस्था में निजी निवेश मामूली होने के बावजूद आर्थिक विकास की दर दुनिया में सबसे तेज है। अफसोस की बात यह है कि कांग्रेस पार्टी, जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा युग की नीतियों से बाहर नहीं निकली है। वह इस सच्चाई को स्वीकार ही नहीं कर पा रही है कि इस देश का गरीब भी महत्वाकांक्षी हो गया है। वह अब खैरात को अपना प्रारब्ध मानकर संतोष करने वाला नहीं है। वह अपने जीवन स्तर में सार्थक बदलाव चाहता है।

मोदी सरकार के समर्थकों और विरोधियों के एक वर्ग में इस बात की बार-बार चर्चा होती है कि उन्होंने पांच साल में अटल बिहारी वाजपेयी जैसा कोई बड़ा काम नहीं किया। इस बारे में उदाहरण वाजपेयी सरकार की राष्ट्रीय राजमार्ग की योजना का दिया जाता है, लेकिन ऐसा कहने वाले भूल जाते हैं कि इसके बावजूद वाजपेयी सरकार 2004 का लोकसभा चुनाव हार गई थी। बारीकी से अध्ययन करें तो समझ में आएगा कि मोदी सरकार वाजपेयी सरकार के रास्ते पर क्यों नहीं चली? अपने देश में आम जन का एक खास स्वभाव है। वह हर काम में यह खोजता है कि उसके लिए व्यक्तिगत रूप से इसमें क्या है? सड़कें बनने से वह खुश तो होता है पर इतना प्रभावित नहीं होता कि इसके आधार पर वोट दे। सड़कों और इस तरह की इन्फ्रास्ट्रक्चर योजनाओं का लाभ सामूहिक और परोक्ष होता है। उसके बरक्स मोदी सरकार की जनधन, उज्ज्वला, शौचालय, प्रधानमंत्री आवास, पेंशन, दुर्घटना एवं जीवन बीमा और आयुष्मान जैसी सभी योजनाओं का लाभ सीधे एक व्यक्ति या उसके परिवार को मिल रहा है। इसका असर भी दिखाई दे रहा है।

मोदी सरकार की इस सोच से बनी और लागू की गई योजनाओं का असर बहुआयामी है। पहला असर यह हुआ कि जनवरी 2015 में लगे सूटबूट की सरकार का बिल्ला हट गया। समाज के गरीब तबके में यह संदेश गया कि मोदी सरकार उनके लिए सोच और कर रही है। सरकार की इन योजनाओं का फायदा ठोस रूप में दिखता है। इसलिए जिन तक इसका लाभ नहीं पहुंचा उन्हें उम्मीद है कि उनका भी नंबर आएगा। ये ऐसी योजनाएं हैं जो लाभार्थियों के मन में एक फीलगुड यानी खुशी का भाव लाती हैं। इसके बाद उन्हें यह समझाने/बताने की जरूरत नहीं पड़ती कि सरकार उनके लिए कुछ कर रही है या नहीं। भाजपा को राजनीतिक रूप से इसका बड़ा लाभ मिल रहा है। उसकी वजह यह है कि ये योजनाएं जाति, धर्म के आधार पर बिना किसी भेदभाव के लागू की गईं। इसके अलावा मोदी पर लोगों का भरोसा इसलिए भी बढ़ा है कि इन योजनाओं के लाभार्थियों को किसी योजना का लाभ लेने के लिए रिश्वत नहीं देनी पड़ी। ईमानदार सरकार की धारणा इसी से पुष्ट हुई है।

पिछले पांच साल में मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने एक और काम किया है। यह है भाजपा के लिए जातीय जनाधार तैयार करना। भाजपा के पास कोई ठोस व्यापक जातीय आधार कभी नहीं रहा। साल 1989 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस भी इसी श्रेणी में आ गई। भाजपा ने राम मंदिर आंदोलन के जरिये हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण से अपने लिए चुनाव में जीत का द्वार खोला, लेकिन ऐसे मुद्दे के साथ समस्या यह है कि वह बार-बार नहीं चलता। इसलिए जब चला तो फायदा हुआ, नहीं तो पिट गए। साल 2004 में वाजपेयी सरकार की हार का एक बड़ा कारण यह भी रहा। कांग्रेस न तो अपना खोया हुआ जातीय जनाधार वापस हासिल कर सकी और न ही हिंदू ध्रुवीकरण के रास्ते पर जा सकी। भाजपा के विरोध में वह मुस्लिम ध्रुवीकरण की राजनीति पर चली गई जिससे उसे और ज्यादा नुकसान हुआ।

मोदी और शाह ने गैर यादव पिछड़ों, गैर जाटवों और सवर्णों का का एक मजबूत सामाजिक आधार बना लिया है। इस जनाधार को पुख्ता करने में संगठन के अलावा केंद्र सरकार की योजनाओं और मोदी के व्यक्तित्व की अहम भूमिका है। इस सबके अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा पर सरकार की नीति और बालाकोट पर हवाई हमले से मोदी का व्यक्तित्व और बड़ा हुआ है। साल 2014 में मोदी एक उम्मीद की तरह आए थे। सरकार के पांच साल के कामकाज और विकल्पहीनता से मोदी का कद 2014 की तुलना में आज और बड़ा हो गया है। 1984 के बाद यह पहली केंद्र सरकार है जिसके खिलाफ सत्ता विरोधी रुझान नहीं है। इसमें कुछ योगदान तो विपक्ष की कमजोरी का भी है। ध्यान रहे कि साल 2014 में 1984 के बाद पहली बार यानी तीस साल बाद किसी पार्टी को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिला था।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ स्तंभकार हैं)