नई दिल्ली (डॉ. एके वर्मा)। नरेंद्र मोदी सरकार के चार वर्ष पूरे हो गए और वह 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए कमर कसती दिख रही है। चार साल की क्या उपलब्धियां रहीं मोदी सरकार की और चुनावी वर्ष में उसके सामने कौन-कौन सी चुनौतियां होंगी, इस पर विचार करते समय इस पर भी ध्यान देना जरूरी है कि मोदी के पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों ने अपने-अपने कार्यकाल में क्या किया था और आगामी लोकसभा चुनाव में जनता के पास क्या विकल्प होंगे? जहां मोदी सरकार की उपलब्धियां गिनाने की जिम्मेदारी सरकार, भाजपा और उसके जनप्रतिनिधि उठा रहे हैं, वहीं कांग्रेस मोदी सरकार के चार साल पूरा होने को ‘विश्वासघात’ के रूप में मना रही है। ऐसा करने का उसे संवैधानिक अधिकार है, लेकिन यह देखना दिलचस्प है कि बीते चार वर्षों में मोदी ने ऐसा क्या नहीं किया जो पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों ने किया था? मोदी का पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तरह ‘मौन’ नहीं रहे। उन्होंने जन संवाद की शैली अपनाई। देश में ‘मन की बात’ और विदेश में अप्रवासी भारतीयों से संवाद कर उन्होंने ‘मौन शैली’ को तोड़ा। इससे लोगों को लगा कि वे उनके प्रधानमंत्री हैं। जनता ने उनके काम की प्रशंसा और आलोचना दोनों की, लेकिन वह लोगों से और लोग उनसे जुड़े रहे। लोगों को मनमोहन सिंह के निर्णय उनके अपने कम और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के अधिक लगते थे। मोदी के निर्णयों पर न तो पार्टी अध्यक्ष और न ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से निर्देशित होने की बू आती है। उनके प्रत्येक निर्णय पर सशक्त प्रधानमंत्री की छाप रहती है। नोटबंदी का फैसला इसका ज्वलंत उदाहरण है। इस फैसले से मजबूत प्रधानमंत्री की छवि वाले मोदी पर जनता भरोसा बढ़ा। 1991 में जब कांग्रेस के शासन में प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने अपने तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह के माध्यम से उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की शुरुआत की तो भारत की अर्थव्यवस्था खूब फली-फूली; विदेशी निवेश, विदेशी मुद्रा भंडार और निर्यात आदि काफी बढ़े, लेकिन वे आर्थिक सुधार विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के दबाव में शुरू किए गए थे।

इसके विपरीत मोदी के आर्थिक सुधार विदेशी संस्थाओं से निर्देशित नहीं, वरन उनकी अपनी सोच से जन्में। इनमें कालेधन की स्वघोषणा, विमुद्रीकरण, जीएसटी, रियल एस्टेट रेगुलेटरी अथॉरिटी यानी रेरा और गोल्डबांडजैसे कई प्रयोग प्रमुख रहे। इनकी आलोचना भी हुई, लेकिन उन्हें जन समर्थन भी मिला। अब उनके बेहतर परिणाम आ रहे हैं। रिजर्व बैंक और आयकर विभाग के ताजा आंकड़ों के अनुसार चार वर्षों में उपभोक्ता सूचकांक आधारित महंगाई आठ प्रतिशत से घट कर चार प्रतिशत, डिजिटल लेन-देन 663 करोड़ से बढ़ कर 20798 करोड़, 31 करोड़ जन-धन खातों में बचत बढ़ कर 81205 करोड़, करदाताओं की संख्या दो गुनी और कर आय 638 करोड़ से बढ़कर 995 करोड़ हो गई है। जाहिर है अर्थव्यवस्था में आने वाले इस सकारात्मक परिवर्तन का लाभ जनता को ही मिलेगा। इससे पिछले चार वर्षों में 25 लाख तक की वार्षिक आमदनी वालों का टैक्स कम और उससे ज्यादा वालों का टैक्स बढ़ गया है। क्या इसे सूट-बूट की सरकार कहें या गरीब और मध्यमवर्ग की चिंता करने वाली सरकार? मोदी सरकार ने वह नहीं किया जो मनमोहन सरकार के दो कार्यकालों की खासियत बन गई थी- भ्रष्टाचार और घोटाले। कांग्रेस को यह सब याद रखना चाहिए।

मोदी सरकार की सबसे बड़ी ताकत उसका भ्रष्टाचारविहीन और घोटालाविहीन कार्यकाल है। राज्यों के स्तर पर अभी वह संस्कृति नहीं आ पाई है, चाहे वहां भाजपा की सरकार हो या किसी और दल की। इसीलिए आम आदमी नहीं समझ पा रहा कि मोदी के आने से उसे भ्रष्टाचार से क्या राहत मिली? सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार उसी तरह फल-फूल रहा है। जनता को नहीं पता कि राज्यों, नगरपालिकाओं और पंचायतों के दफ्तरों में मोदी की नहीं, दूसरों की सरकारें हैं। यहीं से शुरू होती है मोदी और भाजपा की चुनौतियां। राजनीति केवल सत्ता प्राप्त करने की कला ही नहीं, उसे बनाए रखने की विधि भी है। चार वर्ष पूर्व मोदी ने जब सत्ता प्राप्त की थी उस समय उन्होंने विकास की अलख जगाई थी। उसी जनता को अब उन्हें संतुष्ट करना होगा। आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी प्रतिरक्षात्मक और विपक्ष आक्रामक रहेगा। यह चुनौती इसलिए और भी गंभीर हो जाएगी, क्योंकि विपक्ष एकजुट होकर पुरजोर कोशिश करेगा कि भाजपा को पूर्ण बहुमत न मिल सके और वह केवल सबसे बड़ी पार्टी होकर रह जाए।

हाल में कर्नाटक प्रयोग से स्पष्ट हो गया कि सबसे बड़ी पार्टी के मुकाबले बहुमत वाले ‘चुनाव पूर्व गठबंधन’ को बुलाना राष्ट्रपति की बाध्यता होगी। देखना होगा कि ऐसे में भाजपा क्या रणनीति बनाती है? मोदी की दूसरी बड़ी चुनौती यह होगी कि इतने बड़े देश में चुनाव-प्रचार कैसे चलाया जाए? इस बार उनके पास 2014 जैसी आजादी नहीं। वह देश के प्रधानमंत्री हैं और समस्त सरकारी दायित्वों का निर्वहन करते हुए ही उन्हें चुनाव- प्रचार में उतरना पड़ेगा। मोदी का कद बढ़ने से भाजपा में उन जैसा ‘वोट मोबिलाइजर’ और कोई नहीं। मोदी की तीसरी चुनौती यह है कि 2014 में ज्यादातर राज्यों में भाजपा का वोट प्रतिशत काफी अधिक था। क्या पार्टी वह प्रदर्शन दोहरा पाएगी, खास तौर से उत्तर प्रदेश और बिहार में? बिहार में पिछले चुनाव में नीतीश कुमार भाजपा का साथ छोड़ गए थे। क्या इस बार बदली परिस्थिति में भाजपा और बेहतर प्रदर्शन कर सकेगी? कहीं विपक्ष नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री के रूप में आगे करके चुनावी रणनीति में कोई आमूल-चूल परिवर्तन करने की तो नहीं सोच रहा? यह भी देखें कि भाजपा के सहयोगी दलों की क्या स्थिति है? शिवसेना, अकालीदल, अपना दल, सुहलदेव पार्टी आदि राजग में अपना हिस्सा बढ़ाने की जिद तो नहीं करेंगे? क्या भाजपा ने 2014 से अपने जनाधार में जो क्रांतिकारी विस्तार किया है वह उसे बचा पाएगी? क्या भाजपा गरीबों, किसानों, दलितों और पिछड़े वर्ग में अपनी पैठ बढ़ा सकी है? चंद्रबाबू नायडू के भाजपा से अलग होने से पार्टी के पास मौका है कि वह आंध्र प्रदेश में और सीटें जीत सके। 2014 में तेदेपा से गठबंधन के कारण वह कुछ सीटों पर ही चुनाव लड़ सकी थी और तीन सीटें एवं 5.8 प्रतिशत मत पा सकी थी। तमिलनाडु और त्रिपुरा भी ऐसे राज्य हैं जहां भाजपा कुछ बेहतर कर सकती है। हालांकि पश्चिम बंगाल, ओडिशा, केरल और तेलंगाना में उसे अपनी उपस्थिति बढ़ाने में मुश्किल होगी कुछ भरपाई पूर्वोत्तर के राज्यों से हो सकती है, लेकिन वहां सीटें बहुत कम हैं।

आज एक बड़ा सवाल यह है कि क्या संयुक्त विपक्ष मोदी के मुकाबले कोई चेहरा आगे कर सकेगा? यदि नहीं तो क्या राहुल गांधी कहीं दूरदूर तक भी मोदी के मुकाबले ठहर सकेंगे? मोदी की खासियत उनकी कार्य निष्ठा, साफ-सुथरी छवि और सामाजिक विकास है। इसी कारण 2014 के बाद पार्टी ने कई नए राज्यों में विजय पाई, लेकिन आगामी चुनौतियों से निपटने के लिए उन्हें न केवल नेताओं और कार्यकर्ताओं से जुड़ना होगा, वरन जनता को चार वर्षों का रिपोर्ट कार्ड देने के साथ भावी रोडमैप भी बताना होगा।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी अॉफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक हैं)