[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: प्रजातंत्र की भावना के अनुसार मोदी सरकार को अब अपने सभी वायदे पूरे करने के लिए हर तरफ से और हर प्रकार का सहयोग मिलना चाहिए। उनकी सरकार एकाग्र चित्त होकर अपनी नई पारी प्रारंभ कर सके, इसे स्वच्छ मन से विपक्ष को भी स्वीकार करना चाहिए। किसी के लिए भी आलोचना, आरोप और प्रत्यारोप में समय नष्ट करने का यह समय नहीं है। विपक्ष के कर्मठ नेताओं को जनता में जाकर लोगों के बीच में रहकर उनकी समस्याओं को समझाने का प्रयास करना ही सर्वोत्तम रणनीति होगी।

जनता के मूड को समझ नहीं पाए

स्थानीय समस्याओं के समाधान में सार्थक सहयोग और भागीदारी उनकी साख को पुन: प्रतिष्ठित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कड़ी बन सकती है। विपक्ष और खासकर राहुल गांधी, सोनिया गांधी एवं शरद पवार की ओर से अनेक टिप्पणियां ऐसी आई हैं जो उनकी स्वाभाविक हताशा को तो दर्शाती ही हैं, साथ ही यह भी प्रकट करती हैैं कि वे अपनी कमजोरियों को समझने के लिए तैयार नहीं। इन नेताओं के बयान यह भी बताते हैैं कि वे जनता के मूड को समझ नहीं पाए।

जनमानस में लगातार घटी साख

जो भी लोग सार्वजनिक जीवन में हैं वे जानते हैं कि ‘नेता वर्ग’ की साख जनमानस में लगातार घटी है। लोग सामान्यत: उन पर विश्वास करने में हिचकते हैं। इसका मुख्य कारण हर तरफ ऐसे नेतृत्व का उभरना है जो जमीनी स्तर पर कोई योगदान किए बिना ही राजनीतिक दलों के सर्वेसर्वा और कर्ता-धर्ता बन जाते हैं। यदि राहुल गांधी विदेश में छुट्टी बिताने के स्थान पर अमेठी में एक बार भी दो महीने रुके होते, वहां के गांवों में गए होते, थाने में किसी किसान को ले जाकर प्राथमिकी दर्ज कराई होती तो उन्हें हराना असंभव हो जाता।

राजनीति में मूल्यों का क्षरण

सामान्यत: जनता का प्रतिनिधित्व करने की आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति का पहला उत्तरदायित्व तो लोगों के बीच बने रहना ही अपेक्षित होता है। 1952, 1957 तक चुनावों में अधिकांश वे लोग प्रत्याशी बने जो जमीनी स्तर पर अपने जीवन का अधिकांश समय जनसेवा में लगा चुके थे। यह प्रतिशत तेजी से कम हुआ और उसी तेजी से राजनीति में एक तरफ मूल्यों का क्षरण हुआ और दूसरी ओर अस्वीकार्य आचरण को बढ़ावा मिला। हर स्थिति में कहीं न कहीं से आशा की किरण प्रकाश पुंज बनकर उभरती है और वही समाज और देश के लिए नजीर बन जाती है।

दल नहीं दिल से हो सेवा

ओडिशा के बालासोर से निर्वाचित प्रताप सारंगी की सराहना हर तरफ हो रही है। इसमें केवल उनके कार्य, सेवा और जीवन की पवित्रता पर ही ध्यान जाता है। वह किस दल के हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। ऐसे लोग सबके ‘अपने’ हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति ही पूरी तन्मयता तथा प्रतिबद्धता से जन कल्याण के लिए समर्पित हो सकता है।

विरोधी विरोध करते रहे मोदी सहते रहे

भविष्य में विद्वत वर्ग शोध करेगा कि ‘चौकीदार चोर है’ का नारा क्यों उन पर नहीं चिपका? कैसे वह एक नासमझी इस नारे को ईजाद करने वालों की आशाओं पर ग्रहण बनकर छा गई। 2002 से 2014 तक जितना विरोध और मानसिक यंत्रणा नरेंद्र मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए झेली उसका स्वतंत्र भारत में कोई अन्य उदाहरण नहीं है। 2004 के बाद तो पूरी केंद्र सरकार और उसके सारे अंग उनके पीछे पडे़ थे। फिर भी उन कठिन परिस्थितियों में भारत में हर तरफ गुजरात में हो रहे विकास की सराहना हुई। उनके विरोधी केवल विरोध करते रहे। नरेंद्र मोदी सहते रहे, संयत रहे और कर्तव्य निर्वाह से शक्ति प्राप्त करते रहे। यही वह 2014-19 में भी करते रहे। हर कोई उनके स्तर तक नहीं पहुंच सकता, मगर कुछ प्रयास तो सभी कर सकते हैं।

हारने के बाद भी स्मृति अमेठी से जुड़ी रहीं

यदि केवल राजनीति शास्त्र के अनुसार अमेठी में स्मृति ईरानी की जीत को विश्लेषित किया जाए तो विपक्ष के लिए नई राह खुल सकती है। 2014 में अमेठी से चुनाव हारीं स्मृति इरानी ने 2019 में वहीं से जीतकर एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया जो हर उस पराजित प्रत्याशी का मार्गदर्शन कर सकता है जो अंत:करण से जनसेवा के लिए राजनीति में आया हो। स्मृति ईरानी ने अमेठी से हार जाने के बावजूद यहां के लोगों से संबंधों की जीवंतता को व्यक्तिगत संपर्क से तरोताजा रखा। वह अमेठी के लोगों के साथ जुड़ी रहीं और परिणाम विजय के रूप में सामने आया। पक्ष-विपक्ष से परे हटकर जो भी हारे हुए प्रत्याशी स्मृति ईरानी की राह पर चल सकेंगे, वे निश्चित रूप से लोगों के हृदय में उतर जाएंगे।

मोदी ने करोड़ों लोगों के हृदय में स्थान बनाया

वे लोगों के मन-मानस में भारत के राजनेताओं के प्रति वह सम्मान पुन: पैदा कर सकेंगे जो इस समय अत्यंत कमजोर हो गया है। अब वह वक्त नहीं रहा जब नेताओं के भारी-भरकम लाव-लश्कर और चाटुकारों की भीड़ से लोग प्रभावित होते थे। अब यह सब देखकर लोगों के मन में एक ही भाव आता है कि क्या इसी के लिए और इन्हीं के लिए आजादी आई थी? बड़े-बड़े लोग, ऊंचे लोग नहीं समझ पाए कि लाल-बत्ती लोगों के मन पर क्या प्रभाव डालती थी? वह जो दीवार खड़ी करती थी उसे नरेंद्र मोदी ने समझा और एक छोटे से निर्णय से करोड़ों लोगों के हृदय में स्थान बना लिया।

मोदी दलगत राजनीति से परे

यह कार्य दलगत राजनीति से अलग, व्यक्ति की जनमानस की समझ और अवसर आने पर निर्णय ले सकने की क्षमता दर्शाता है। ऐसे निर्णय किसी नौकरशाह के कहने पर फाइल पर नहीं लिए जाते हैं, वे शासक और शासित के बीच के जीवंत संबंधों से उभरते हैं।

मोदी हुए गरीबों के जीवन से प्रभावित

लाल किले से घर-घर शौचालय निर्माण की आवश्यकता और प्राथमिकता देश के सामने रखने का साहस वही कर सकता था जिसने गांव में गरीबों का जीवन देखा हो। ‘ओडीएफ’ का अर्थ अब भारत के हर गांव में समझा जाता है। लोगों ने इस दिशा में प्रधानमंत्री की पहल को राजनीति से परे और लोककल्याणकारी पाया। इस एक परियोजना ने करोड़ों लोगों का विशेषकर महिलाओं का दिल सदा के लिए जीत लिया। इसके महत्व को वे दल कैसे समझ पाते जिनका नेतृत्व तो उन हाथों में था जो अपने एक घरों में चमचमाते शौचालयों की सुविधा के अभ्यस्त हैं और जो गांव एवं मलिन बस्तियों को भूल चुके हैं।

मोदी दे रहे भारतीय राजनीति को नई दिशा

उत्तर प्रदेश और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और एक पूर्व उपमुख्यमंत्री के आवासों की भव्यता के किस्से इन प्रदेशों की राजधानियों में ही नहीं, गांवों तक मैैंने स्वयं सुने हैैं। यह भी जन-जागृति का वह उदाहरण है जो भारत की राजनीति को बदल रहा है और उसे नई दिशा दे रहा है, जिसमें जातीयता, क्षेत्रीयता, खानदान और नए विभाजनकारी तत्वों का कोई स्थान नहीं होगा। समय भले ही लगे, होना यही है, यही देश हित में है।

( लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैैं )

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