[ हर्ष वी पंत ]: भारत में चुनाव अभियान गति पकड़ रहा है। वैसे तो चुनाव में तमाम मुद्दे उठाए जा रहे हैं, लेकिन उनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुद्दा ही सभी पर हावी है। वह जिन लोगों की आंखों में खटकते रहे हैं वे एक बार फिर उनके विरोध में लामबंद हो रहे हैं तो दूसरी ओर जो लोग उन्हें अपना आदर्श मानते हैं वे उन्हें दोबारा सत्ता तक पहुंचाने के लिए पूरी कोशिशों में जुटे हैं, मगर इन चुनावों को दुनिया टकटकी लगाए देख रही है। भारत में भले ही लोग मोदी को पसंद या नापसंद करें, लेकिन इस तथ्य को नहीं झुठलाया जा सकता कि उन्होंने भारतीय विदेश नीति को ऐसी नई दिशा दी जो पहले कभी नहीं दी जा सकी। भारत को वैश्विक फलक पर आगे बढ़ाने में मोदी कितने प्रभावशाली रहे हैं, इसकी तुलना जवाहरलाल नेहरू से की जा सकती है।

प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को एक नई आवाज दी है। यह आवाज भी पुराने भारत की आवाज से अलग है। इस तरह मोदी ने यह सुनिश्चित किया कि पूरी दुनिया भारत की उम्मीदों और आकांक्षाओं पर ध्यानपूर्वक गौर करे। वह वैश्विक जगत को आतंकवाद जैसे मुद्दों पर सोचने के लिए उन्मुख करने में सफल रहे हैं। यह मसला भारत के लिए बेहद अहम रहा है। इसी तरह वह जलवायु परिवर्तन जैसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी भारत की संकोची किस्म की प्रतिक्रिया को भी भारतीय हितों के हिसाब से आत्मविश्वास के भाव से भरने में सक्षम रहे हैं।

मोदी ने एक तरह अकेले अपने दम पर भारत की उस खोई जमीन को फिर से हासिल किया जो संप्रग के दूसरे कार्यकाल में नीतिगत पंगुता के कारण दरक गई थी। अगर किसी अन्य बात के लिए नहीं तो कम से कम इस महत्वपूर्ण उपलब्धि के लिए ही उन्हें श्रेय दिया जा सकता है। पांच साल पहले दुनिया भारत से एक तरह नाउम्मीद सी हो गई थी, लेकिन वह भारत में फिर से संभावनाएं देखने लगी है। उम्मीद है कि भारत जमीनी स्तर पर कदम उठाकर इस मोर्चे पर खरा उतर सकता है।

चुनावी दौर में चर्चा मुख्य रूप से पाकिस्तान के इर्दगिर्द ही रहेगी, लेकिन मोदी की विदेश नीति व्यापक रूप से चीन के उभार से निपटने पर ही केंद्रित रही है। भारत जिन हकीकतों से दो-चार है उनमें चाहे कोई भी सरकार रहे, उसे चीन की चुनौती का तोड़ निकालने पर मजबूर होना ही पड़ेगा। समय के साथ इसमें और तेजी आएगी। चुनाव के बाद चाहे जिसकी भी सरकार बने उसे चीन के उभार की चुनौती से निपटना ही होगा। चाहे भारत के परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी में प्रवेश का मसला हो या फिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा जैश ए मुहम्मद के मुखिया मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित कराने का प्रस्ताव हो, उनमें चीन का लगातार अड़ंगा लगाकर यही दर्शाता आया है कि भारत के रणनीतिक परिदृश्य को वह कितने नाटकीय रूप से प्रभावित कर रहा है। चीन की पहेली सुलझाने में मोदी ने दक्षता दिखाई है। उन्होंने डोकलाम में चीन के खिलाफ डंटे रहने और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआइ का दुनिया में सबसे पहले विरोध करने का दम दिखाया। इसके बाद उन्होंने वुहान में चीनी नेतृत्व से वार्ता भी की।

जब भारत अपने रणनीतिक परिदृश्य पर गौर करता है तो सत्ता में चाहे जो दल मौजूद हो तो उसके नेतृत्व के लिए चीन की चुनौती की अनदेखी आसान नहीं दिखती। बीते दो दशकों में समय से इसका आकलन न करने के कारण नई दिल्ली पहले ही काफी समय बर्बाद कर चुकी है। भारत इसे लेकर और लापरवाही बर्दाश्त नहीं कर सकता। पूरब और पश्चिम की ओर भारत के बढ़ते कदम मुख्य रूप से चीन की बढ़ती पैठ से निपटने का ही परिणाम हैं। इसके लिए उसे समान विचार वाले देशों के पूर्ण सहयोग की दरकार होगी।

मोदी ने पश्चिम विशेषकर अमेरिका को लेकर भारत की परंपरागत तटस्थता वाली नीति को तिलांजलि दी। अमेरिका के साथ उनकी सरकार की सक्रियता इसी विचार के साथ आगे बढ़ी कि भारत और अमेरिका अतीत की हिचक को पीछे छोड़कर आर्थिक-सामरिक रिश्तों को नई ऊंचाई देने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। इसी तरह चीनी आक्रामकता को जवाब देने के लिए अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत जैसे देशों की चौकड़ी का फिर से उभार भी इन देशों के नेताओं की उस हिचक को दूर करता है कि ऐसा करने से कहीं चीन कुपित न हो जाए। चीनी भावनाएं आहत करने वाली दलील अब व्यावहारिक नहीं रह गई है।

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आसियान पर जोर को लेकर मोदी इसी बात को अभिव्यक्त कर आसियान देशों की उसी चिंता को दूर करने की कोशिश करते हैं कि अगर उन्होंने सही रणनीति नहीं अपनाई तो उनका यह इलाका बड़ी शक्तियों के बीच खींचतान का अखाड़ा बन जाएगा। इस कड़ी में पूर्वी एवं दक्षिणपूर्वी एशिया के साथ भारत की सक्रियता बढ़ाने को लेकर वह भारत के पूर्वी पड़ोसियों के साथ सांस्कृतिक जुड़ाव पर भी जोर देते हैं। जहां बंगाल की खाड़ी की ओर भारत अपने रणनीतिक भौगोलिक पहलुओं पर नए सिरे से विचार कर रहा है तो इससे पूर्वोत्तर भारत के माध्यम से दक्षिणपूर्व एशिया को निर्बाध रूप से जोड़ा जा सकता है। इससे भारत के अनूठे भूगोल और दक्षिणपूर्व एशिया की वृद्धि की रफ्तार का लाभ उठाया जा सकता है।

भारत के लिए अभी भी पश्चिमी हिंद महासागर सर्वाधिक महत्व वाला है। विशेषकर अमेरिका जैसी शक्तियों की तुलना में भारत के लिए इसकी कहीं अधिक अहमियत है। मोदी इस क्षेत्र में भारत की केंद्रीय भूमिका चाहते हैं। यह क्षेत्र उनके अनुसार अफ्रीका के तटों से लेकर अमेरिका तक फैला हुआ है। पश्चिमी एशिया में भारत की गहरी होती पैठ और बढ़ती कूटनीतिक सक्रियता के साथ ही दक्षिणपूर्व एशिया एवं अफ्रीका के बीच संपर्क बढ़ाने की कोशिशों से यह रणनीति जाहिर भी होती है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी की विदेश नीति बड़ी असरदार और गतिशील रही है। बड़ा सवाल यही है कि क्या चुनाव नतीजों के बाद भी यह निरंतरता कायम रह सकती है? क्षमताओं में कमी और नतीजे देने को लेकर उठने वाले सवालों से भारत का जूझना जारी रह सकता है। अगर विदेश नीति में मौजूदा गतिशीलता को कायम रखना है तो नई सरकार को एकनिष्ठ होकर इन पहलुओं पर काम करना होगा।

( लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं )