राहुल वर्मा। जवाहरलाल नेहरू के बाद लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेकर नरेन्द्र मोदी ने भारतीय राजनीति के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया। हालांकि पिछली दो बार अपनी पार्टी के पूर्ण बहुमत से सरकार चलाने के बाद तीसरे कार्यकाल में उनकी सरकार गठबंधन के भरोसे है। इसका असर राजनीतिक परिदृश्य पर भी दिखने लगा है।

रविवार को केंद्रीय मंत्रिपरिषद के शपथ ग्रहण में यह बदलाव दिखा। यह प्रधानमंत्री मोदी की सबसे बड़ी मंत्रिपरिषद है, जिसमें 72 मंत्री बनाए गए हैं। जबकि इससे पहले 2019 में 56 और 2014 में 48 मंत्रियों ने पहले दिन शपथ ली थी। वर्ष 2014 के आम चुनाव में तो प्रधानमंत्री मोदी के प्रमुख नारों में से एक नारा यही था कि ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन।’ उस संकल्पना को मूर्त रूप देने के लिए एक स्वरूप वाले कई मंत्रालयों को एक साथ जोड़ दिया गया। हालांकि नई सरकार में न केवल अपने दल के नेताओं, बल्कि सहयोगियों को साधने के लिए भी उन्हें अधिक मंत्री बनाने पड़े।

चूंकि केद्र की सरकार में विभिन्न जातीय एवं सामाजिक समीकरणों का ध्यान रखना पड़ता है और बड़े राज्यों के भिन्न-भिन्न अंचलों को भी प्रतिनिधित्व देने की चुनौती से भी दो-चार होना पड़ता है इसलिए मंत्रिपरिषद का आकार बढ़ जाना बहुत स्वाभाविक है। आरंभ में अनुमान लगाया जा रहा था कि नई सरकार पर गठबंधन के साथियों का बहुत दबाव देखने को मिलेगा, वैसा कुछ उसकी संरचना में अभी तक नजर नहीं आया।

यह सही है कि पिछली राजग सरकारों की तुलना में सहयोगी दलों की संख्या बढ़ी जरूर है, लेकिन एक सीमित दायरे में। छिटपुट शिकायतें सुनने को जरूर मिलीं, लेकिन याद रहे कि गठबंधन की सरकारें किसी बरात जैसी होती हैं, जहां किसी की कुछ न कुछ शिकायत बनी रहती है, लेकिन बरात अपनी गति से आगे बढ़ती है। जिस प्रकार मंत्रिपरिषद का गठन हुआ है, उससे यही लगता है कि शासन के स्तर पर कोई बड़ा बदलाव आने के बजाय निरंतरता बने रहने के आसार ही अधिक हैं।

पिछले एक सप्ताह में भारतीय राजनीति के रंग बहुत बदल गए हैं। चार जून को एक प्रकार के अनपेक्षित परिणाम सामने आए, क्योंकि व्यापक रूप से यही माना जा रहा था कि भाजपा बहुत सहजता से अपने दम पर बहुमत हासिल कर लेगी और सहयोगियों की सीटें उसकी शक्ति बढ़ाने का काम करेंगी। जो परिणाम आए उसके बाद तमाम तरह के सवाल उठने लगे। सबसे बड़ा सवाल तो यही उठा कि मोदी को गठबंधन सरकार का कोई अनुभव नहीं तो वह कैसे ऐसी सरकार चलाएंगे। उनकी छवि सख्त फैसले लेने वाले निर्णायक नेता की है, जो गठबंधन की सरकारों में कठिन हो जाते हैं।

गठबंधन सरकार के संचालन को लेकर मोदी की क्षमताओं पर सवाल उठाने वाले शायद यह नहीं जानते कि वाजपेयी सरकार के दौरान मोदी भाजपा के संगठन महासचिव थे और गठबंधन की बारीकियों से भलीभांति परिचित रहे। साथ ही राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप खुद को ढालने की मोदी की क्षमताओं पर संदेह नहीं करना चाहिए। जब मोदी प्रधानमंत्री बने थे तब भी कई लोगों ने सवाल उठाया था कि वह विदेश नीति जैसे संवेदनशील विषय को कैसे संभालेंगे। ऐसे संदेहवादियों की धारणा को मोदी ने बखूबी खारिज किया। उन्होंने विदेश नीति को नए तेवर दिए। उसे व्यावहारिक, गतिशील बनाकर सक्रियता प्रदान की। कई वैश्विक नेताओं के साथ व्यक्तिगत मेलजोल बढ़ाया।

एक प्रश्न यह भी उठ रहा है कि अब भाजपा के मूल एजेंडे का क्या होगा? इसका उत्तर तलाशें तो पाएंगे कि राम मंदिर और अनुच्छेद-370 जैसे उसके मूल वैचारिक मुद्दे पहले ही सुलझ चुके हैं। तीन तलाक और नागरिकता कानून के मोर्चे पर भी भाजपा प्रभावी पहल कर चुकी है। अब समान नागरिक संहिता का एक बड़ा मुद्दा बचा है, जिसे लेकर किसी गतिरोध के उत्पन्न होने की आशंका नहीं।

ऐसा इसलिए, क्योंकि भाजपा ने इस मुद्दे को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर कभी कोई खाका पेश ही नहीं किया। उसके शासन वाले राज्य ही इस मामले में आगे बढ़ रहे हैं। गठबंधन सरकार में नीतिगत निर्णयों को लेकर भी बहुत नकारात्मक धारणा नहीं बनाई जानी चाहिए। ऐसी सरकारों में फैसलों में कुछ विलंब जरूर हो जाता है, लेकिन जब निर्णय होते हैं तो व्यापक सहमति के साथ। नरसिंह राव की अल्पमत सरकार ने ही ऐतिहासिक आर्थिक सुधारों की शुरुआत की थी तो वाजपेयी की गठबंधन सरकारों में सुधारों का व्यापक सिलसिला जारी रहा।

भाजपा की सीटों की संख्या में आई कमी देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल की दशा-दिशा को जरूर प्रभावित करेगी। इससे भाजपा की आंतरिक राजनीति में परिवर्तन देखने को मिलेगा। संघ और भाजपा के बीच समन्वय नए सिरे से तय हो सकता है। साथ ही सहयोगी दलों के साथ समीकरणों को भी सुलझाए रखना होगा। इस प्रकार देखें तो नई व्यवस्था में सत्ता और शक्ति का संतुलन बना रहेगा, जिसकी दिशा काफी हद तक आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा के प्रदर्शन से तय होगी।

यदि भाजपा का चुनावी प्रदर्शन बेहतर होता है तो प्रधानमंत्री मोदी का प्रभाव पूर्व की भांति बना रहेगा और वह सहयोगी दलों सहित सभी पक्षों को साधने में सफल रहेंगे। अब देखना यही होगा कि मोदी इस जनादेश को एक तात्कालिक झटका मानकर उन वर्गों तक पहुंचने का प्रयास कैसे करते हैं, जिनके चलते उन्हें अपनी अपेक्षा के अनुरूप परिणाम प्राप्त नहीं हुए। यह भी देखना होगा कि विपक्ष खुद को मिली संजीवनी की खुमारी में ही खोया रहता है या फिर खुद को नए सिरे से मजबूत करने के लिए अपने प्रयासों को गति देता है।

यह जनादेश भारतीय लोकतंत्र की मजबूती और परिपक्वता का एक सशक्त प्रमाण भी सिद्ध हुआ है। जनता ने दिखाया कि कोई भी खुद को अविजित न समझे और वह समय आने पर किसी को भी आईना दिखा सकती है। ईवीएम से लेकर चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था पर विपक्षी खेमे के आरोप भी निराधार सिद्ध हुए हैं। हालांकि समाज में बढ़ते ध्रुवीकरण की छाप राजनीतिक दलों के व्यवहार में भी झलकना एक चिंतित करने वाले पहलू के रूप में उभर रहा है। जब दुनिया भर से प्रधानमंत्री मोदी को बधाई संदेश मिले और वैश्विक नेता उनके शपथ ग्रहण समारोह में आए तो विपक्षी दलों का व्यापक रूप से समारोह का बहिष्कार अखरने वाला रहा।

(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में फेलो और राजनीतिक विश्लेषक हैं)