[ब्रह्मा चेलानी]। नरेंद्र मोदी सरकार ने चार साल पूरे कर लिए और इसी के साथ एक अहम सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या मोदी राज भारत के लिए निर्णायक पड़ाव के रूप में उभरेगा? बिल्कुल वैसे जैसे शी चिनफिंग के राज में चीन का उत्कर्ष हुआ है? मोदी से जुड़े प्रश्न का उत्तर अभी भी स्पष्ट नहीं है। हालांकि एक बात निश्चित है कि मोदी सरकार में भारतीय राजनीति और राजनय की दिशा जरूर बदली है। लोकतांत्रिक राजनीति में मोदी का रिकॉर्ड शानदार रहा है। उन्होंने कई चुनावों में अपनी भाजपा को शानदार विजय दिलाई है। इससे उनकी पार्टी एक बड़ी राजनीतिक ताकत बन गई है। वहीं विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी का रिकॉर्ड मिश्रित है। मोदी के आने से राजनीतिक स्थायित्व को बल मिला है। इसके साथ ही उनकी आर्थिक नीतियों, कर सुधारों और रक्षा आधुनिकीकरण ने भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का कद बढ़ाया है। हालांकि परेशान करने वाले पड़ोसियों द्वारा पैदा की गई मुश्किलों से यह फायदा कुछ सीमित हुआ है और उनसे मोदी के समक्ष चुनौतियां बढ़ी हैं।

एक सूबाई नेता से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रधानमंत्री बनने के मोदी के अद्भुत राजनीतिक उत्थान में भारतीय मतदाताओं की उस मंशा का अहम योगदान रहा जिसमें वे एक निर्णायक सरकार चुनना चाहते थे। प्रधानमंत्री बनने से पहले उन्होंने वादा किया था कि वह शासन के स्तर में गुणात्मक सुधार लाएंगे और राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत बनाएंगे। हालांकि वह महत्वपूर्ण बदलाव के लिए लोकप्रिय जनादेश के साथ सत्ता में आए, लेकिन सत्ता में उनका रिकॉर्ड परिवर्तनकारी के बजाय परंपरावादी वाला ही रहा। उन्होंने तंत्र को सशक्त बनाने पर ही ध्यान दिया। परिवर्तनकारी पड़ाव अमूमन पीढ़ीगत अंतराल में ही आकार लेता है। मोदी जब सत्ता में आए तो अवसर को लपकने से चूक गए। वह क्रांतिकारी बदलाव को आकार देने के बजाय यथास्थितिवाद में सुधार करने तक ही सीमित रह गए। उनका आभामंडल भले ही कुछ कमजोर हुआ हो, लेकिन जनता के बीच अभी भी उनकी ऐसी पैठ है जिसकी देश में कोई तुलना नहीं हो सकती। मोदी के व्यक्तित्व में भी बदलाव आया है।

चुनाव अभियान के दौरान आक्रामक रूप अख्तियार करने वाले मोदी अब मृदुभाषी, सतर्क और करिश्माई छवि वाले नजर आते हैं। उनसे मिलने वाले उनकी गर्मजोशी से खूब प्रभावित होते हैं। शायद इसी क्षमता ने निजी कूटनीति में मोदी का भरोसा बढ़ाया होगा। निश्चित रूप से मोदी ने अपनी शख्सियत के दम पर दुनिया के तमाम नेताओं के साथ सहज रिश्ते कायम किए हैं, लेकिन निजी समीकरणों वाली उनकी कूटनीति से ज्यादा ठोस फायदे नहीं मिले। मिसाल के तौर 2015 के अंत में उनके अचानक हुए लाहौर दौरे का यह नतीजा निकला कि पाकिस्तान ने भारत के सैन्य ठिकानों को निशाना बनाकर सिलसिलेवार हमलों को अंजाम दिया। यह विडंबना ही है कि निजी कूटनीति में मोदी की शैली पर उन नेहरू की छाप नजर आती है जिन्हें वह और उनकी पार्टी अक्सर निशाने पर लेते रहते हैं। राजनीतिक और वैचारिक रूप से मोदी और नेहरू में कम ही समानताएं दिखती हैं।

जैसे गरीब पृष्ठभूमि वाले मोदी संघर्ष करते हुए दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाले लोकतंत्र के शीर्ष पद पर पहुंचे, जबकि नेहरू बेहद संपन्न परिवार से थे। नेहरू अंतरराष्ट्रीयवाद के हिमायती थे तो उसके उलट मोदी ने सत्ता हासिल करने के लिए ‘इंडिया फस्र्ट’ के नारे को अपनाया। फिर भी विदेश नीति को लेकर मोदी का नजरिया काफी कुछ नेहरू से मेल खाता है। फिलहाल भारत विदेश नीति के मोर्चे पर तमाम चुनौतियों से जूझ रहा है। दुनिया का हर छठा व्यक्ति भारतीय है, फिर भी हमारी हैसियत वैसी नहीं जैसी होनी चाहिए। भारत को चीन और पाकिस्तान के रूप में दो मुश्किल पड़ोसियों से जूझना पड़ता है। दोनों ही परमाणु शक्ति वाले देश हैं और भारत के खिलाफ उनकी साठगांठ किसी से छिपी नहीं रही। यह निश्चित रूप से क्षेत्रीय स्थिरता के लिए खतरा है। जहां मोदी पाकिस्तान से सीमा पार आतंक और हिमालयी क्षेत्र में चीनी सेना की घुसपैठ को रोकने में नाकाम रहे हैं वहीं वह अमेरिका के साथ भारत के रिश्तों को नए क्षितिज पर ले जाने में कामयाब हुए हैं।

भारत के आर्थिक एवं सामरिक हितों की पूर्ति के लिए मोदी अमेरिका से प्रगाढ़ रिश्तों को जरूरी मानते हैं, मगर डोनाल्ड ट्रंप की अगुआई में अमेरिकी नीतियों में निरंतरता के अभाव ने मोदी का यह गणित भी कुछ गड़बड़ा दिया और उन्हें दुनिया के ताकतवर देशों के साथ रिश्तों को नए सिरे से संतुलन देना पड़ रहा है। वैसे भी अमेरिका की ओर झुकाव वाली उनकी नीति से देश को बहुत लाभ हासिल नहीं हुआ है। पहले चिनफिंग के साथ वुहान में और फिर सोची में पुतिन के साथ मोदी की अनौपचारिक वार्ता भारत की रणनीतिक आवश्यकताओं को ही रेखांकित करती है। मोदी खुद स्वयं को व्यावहारिक और उत्साही नेता मानते हैं जो वैश्विक भू-राजनीति की बड़ी बिसात पर खेलना पसंद करते हैं। मोदी के तमाम कदम उनकी विदेश नीति की खास शैली को

दर्शाते हैं जिनमें व्यावहारिकता से लेकर उत्साह तक के तमाम रंग उभरकर आते हैं और उनकी शोमैन वाली छवि भी सामने आती है। कूटनीति के स्तर पर हैरान कर देने वाले कदम उठाना भी उनकी थाती रही है।

अगर ठोस नतीजों की बात करें तो अभी तक मोदी का रिकॉर्ड बहुत ज्यादा प्रभावी नहीं रहा है। हालांकि उनके समर्थक इस पर यही कहेंगे कि विदेश नीति में नई दिशा अपनाने के नतीजे कुछ समय बाद ही मिलेंगे और अभी उन्हें कुल चार वर्ष ही तो हुए हैं। इससे इन्कार नहीं कि गठबंधन सरकारों के लंबे दौर में भारत की सामरिक पकड़ कुछ कमजोर हुई और इसने आसपड़ोस में ही हमारी शक्ति को कुछ कुंद कर दिया। मोदी अभी तक इस नुकसान की भरपाई नहीं कर पाए हैं। इसी कारण आज नेपाल, श्रीलंका और मालदीव जैसे उन देशों पर भी चीन की सामरिक पकड़ मजबूत हो रही है जो अमूमन भारत के प्रभाव वाले देश माने जाते रहे हैं।

मोदी ने भारतीय कूटनीति में निश्चित रूप से गतिशीलता का संचार किया है, लेकिन उनका रिकॉर्ड निजी हैसियत में उठाए गए औचक कदमों को भी दर्शाता है जो विदेश नीति में घालमेल ही करते हैं। संस्थागत रूप और एकीकृत नीति निर्माण सुदृढ़ कूटनीति के अनिवार्य तत्व हैं जिसमें दीर्घावधिक दृष्टिकोण भी जरूरी है। अगर विदेश नीति सत्तारूढ़ नेताओं की निजी पसंद से बनने लगे तो उसके अपने कुछ जोखिम भी होते हैं जिनका भारत ने आजादी के बाद से ही अनुभव किया है। सक्रियता दिखाने के बजाय भारत सतर्क रवैये के साथ प्रतिक्रियावादी ही रहा है। भारत का यथार्थवादी सामरिक दृष्टिकोण संभवत: दुनिया में सबसे पुराना है। इस सिद्धांत को किसी और ने नहीं, बल्कि भारत के कालजयी रणनीतिकार चाणक्य ने प्रतिपादित किया था। विडंबना यह है कि भारत अब अपने इसी सिद्धांत को भूलता नजर आ रहा है।

(लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फेलो हैं)