[ एनके सिंह ]: अगर एक व्यक्ति की ठीकठाक आमदनी है, लेकिन उसके बच्चे स्कूल दूर होने के कारण पढ़ने नहीं जा पाते या उसे पीने का पानी तीन किलोमीटर दूर से लाना पड़ता है अथवा स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में उसके बच्चे पांच साल की उम्र पूरी करने के पहले ही काल के गाल में समा जाते हैैं या फिर रसोई गैस के अभाव में उसकी पत्नी को दमे की बीमारी हो जाती है तो क्या उसे गरीबी की सीमा रेखा के ऊपर माना जाएगा? अगर उसे इनमें से कुछ सुविधाएं हासिल हैं और कुछ नहीं तो ऐसे परिवार या व्यक्ति को किस श्रेणी में रखा जाएगा? अगर इस व्यक्ति के परिवार में एक बच्चा पोषित हो, लेकिन दूसरा कुपोषित तो परिवार की आय के आधार पर उसे गरीब नहीं माना जाएगा? आर्थिक मापदंडों पर गरीबी मापने की एक गलत अवधारणा से देश के करोड़ों लोग गरीबी की त्रासदी झेलते हुए भी इस श्रेणी में मिलने वाली सहायता से वंचित रहे हैं।

गरीबी मापने का नहीं है सही पैमाना

गरीबी निर्धारण के अब तक मान्य तरीके से प्रति व्यक्ति आय यानी सकल राष्ट्रीय आय को जनसंख्या से भाग देकर निकाल लिया जाता था, बगैर यह सोचे हुए कि इस आय में देश के तमाम कारोबारी दिग्गजों के साथ ही गांव के गरीब-गुरबों की आमदनी भी शामिल है। बाद में इसमें बदलाव किया गया और स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन की गुणवत्ता के आधार पर बहुआयामी गरीबी को दस पैमानों पर मापने का सिलसिला शुरू हुआ, लेकिन भारत में फिर भी आर्थिक आधार को प्रमुख कारक माना गया। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार देश भर में घूम-घूम कर भारत को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की बात कर रहे हैं। मानव सभ्यता का ज्ञात लिखित इतिहास करीब तीन हजार साल का है, लेकिन हम सबसे बड़ी समस्या यानी गरीबी की सही पहचान आज तक नहीं कर सके हैं।

आर्थिक गरीबी या फिर बहुआयामी गरीबी

भला हो संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम यानी यूएनडीपी और ऑक्सफोर्ड गरीबी एवं मानव विकास सूचकांक (आइएचडीआइ) के संयुक्त प्रयास का और साथ ही कुछ अन्य शोधकर्ताओं की मेहनत का कि उन्होंने विश्व का ध्यान आर्थिक गरीबी से हटाकर बहुआयामी गरीबी और उसमें भी कुछ नए पैमानों की ओर खींचा। उनकी ताजा संयुक्त रिपोर्ट में कुछ चौंकाने वाले तथ्य भी सामने आए हैं जो भारत सहित दुनिया के तमाम अविकसित और विकासशील देशों की सरकारों को जहां अपनी जनकल्याण नीति को बदलने पर मजबूर करेंगे वहीं अपने समाजों को भी अपनी नकारात्मक सोच बदलने के लिए प्रेरित करेंगे।

गरीबी का स्तर अलग-अलग

इस रिपोर्ट के अनुसार, एक ही क्षेत्र के दो देशों में गरीबी का स्तर काफी अलग-अलग है। अरब देशों में जहां यमन में बहुआयामी गरीबी की तीव्रता 47.7 प्रतिशत है जबकि पड़ोस के जार्डन में मात्र एक प्रतिशत। दक्षिण अमेरिका के हैती में 41.4 फीसद, लेकिन त्रिनिदाद एंड टोबैगो में केवल 0.6 प्रतिशत। यह भी पाया गया कि किसी देश में पुराने पैमाने के आधार पर गरीबों की संख्या अधिक हो, लेकिन तीव्रता कम जैसे पाकिस्तान और म्यांमार में गरीबी का प्रतिशत (38.3) एक है, मगर उसकी तीव्रता पाकिस्तान में 51.7 प्रतिशत जबकि म्यांमार में 45.9 प्रतिशत है। यानी पाकिस्तान में जो गरीब है वह हर पैमाने पर अभाव का दंश झेल रहा है।

स्वास्थ्य, शिक्षा का पैमाना

कुछ देशों में पाया गया कि एक ही गरीब घर का एक बच्चा कुपोषित है और दूसरा पोषित। इसका कारण सामाजिक है और परिवारों की सोच का स्तर है। एक ही क्षेत्र में कुछ सौ किलोमीटर के अंतर पर गरीबों में भयावह गरीबी है और दूसरे ऐसे ही क्षेत्र में यह अंतर काफी कम है। इस ताजा अध्ययन की खास बात यह है कि इसमें गरीबी को न केवल स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन की गुणवत्ता के दस पैमानों पर मापा गया है, बल्कि उस क्षेत्र के लोगों में पानी की अलग-अलग उपलब्धता या हासिल करने में कठिनाई, शिक्षा के लिए स्कूल की दूरी, खाना बनाने के लिए रसोई गैस, स्वच्छ पानी, बिजली आदि को भी शामिल किया गया है। गरीबी की तीव्रता यानी इंटेसिटी और गरीबी की कमी में फर्क यह है कि संभव है एक व्यक्ति को बिजली या गैस की सुविधा मिल जाए, परंतु स्वच्छ पानी के लिए उसे दो किलोमीटर दूर जाना पड़ता हो या बीमारी की वजह से उसने अपने बच्चे का नाम स्कूल से कटवा दिया हो।

गरीबी की तीव्रता

अध्ययन में पाया गया कि दुनिया के 123 करोड़ बहुआयामी गरीबों में 88 करोड़ यानी लगभग दो-तिहाई मध्यम आय वाले देशों में हैं और बाकी निम्न आय वाले देशों में। इसका अर्थ है कि सरकारों का केवल जीडीपी बढ़ाने पर जोर देना अक्सर हानिकारक परिणाम भी दे सकता है, अगर उसका चौतरफा लाभ आम लोगों तक नहीं पहुंचाया गया। वैसे तो वर्ष 2010 से 2015 तक विश्व बैंक और यूएनडीपी में वास्तविक गरीबी मापने के लिए बहुआयामी सूचकांक बनाए, पर उनसे सही आकलन नहीं हो पा रहा था। ताजा अध्ययन में जब गरीबी की तीव्रता और बहुआयामी गरीबी के आंकड़ों को विखंडित करके देखा गया तब पता चला कि कोई व्यक्ति एक आंकड़े में ऊपर है, लेकिन अन्य मापदंड में काफी नीचे। जैसे मिस्न और पराग्वे में बहुआयामी गरीबी तो एक ही स्तर पर है, लेकिन गरीबी की तीव्रता यानी एक ही व्यक्ति का तमाम अन्य पैमाने पर अक्षम होना पराग्वे में काफी अधिक है।

बिजली, पानी, शिक्षा, अस्पताल की सुविधा

इन नए आंकड़ों के आधार पर दुनिया के कुल 130 करोड़ गरीबों में आधे 18 साल से कम उम्र के बच्चे हैं और उनमें भी दस साल से कम उम्र वाले बच्चों की तादाद लगभग एक तिहाई है। क्या इन नए आंकड़ों के आलोक में भारत सरकार अपनी आर्थिक विकास पर आधारित नीतियों की जगह समेकित विकास की नीति लाने की कोशिश करेगी। ऐसा करने का मतलब होगा किसी गांव या शहर की गरीब बस्ती में आय बढ़ाने के साथ ही बिजली, पानी, शिक्षा, रसोई गैस, अस्पताल मुहैया कराना।

आय बढ़ाने से हटेगी गरीबी

हैरानी की बात यह है कि नई परिभाषा के तहत गरीबी केवल निर्धन, निम्न या निम्न-मध्यम आय वाले देशों में नहीं मध्यम आय वाले देशों में भी बड़ी संख्या में है यानी 130 करोड़ में 88.6 करोड़ गरीब हैं। यह सरकारों के लिए संदेश है कि आय तो बढ़ाएं, लेकिन इससे बहुआयामी अभाव को भी कम करने के उपक्रम करें।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं )