[ विकास सारस्वत ]: दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजों को विश्लेषक अलग-अलग नजरिये से देख रहे हैं। एक वर्ग का कहना है कि भाजपा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में असफल रही। जनादेश की यह व्याख्या तथ्यों का जितना सरलीकरण है उतनी ही सत्य से परे भी। अरविंद केजरीवाल ने अपने आप को नागरिकता कानून पर बहस से दूर रखा और अपनी हिंदुवादी छवि गढ़ने का पूरा प्रयास किया। उन्होंने अपनी रैलियों में भारत माता की जय और वंदे मातरम् का उत्साहपूर्वक उद्घोष करवाया। स्पष्ट है कि दिल्ली चुनाव का नतीजा राष्ट्रवाद की जय-पराजय से हटकर क्षेत्रीय मुद्दों पर आधारित रहा।

दिल्ली के नतीजों ने राजनीतिक दलों को दिया बड़ा संदेश

दिल्ली के नतीजों ने राजनीतिक दलों के लिए यह बड़ा संदेश दिया है कि मतदाता की अपेक्षाएं राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर भिन्न-भिन्न रहती हैं। यह मानना पडे़गा कि दिल्ली में पानी की सप्लाई लाइनें नए क्षेत्रों में बिछाई गई हैं, भले ही पीने के पानी की गुणवत्ता चिंताजनक रही हो। इसी प्रकार नए स्कूल भले ही वादे के एक दहाई भी न खुले हों, परंतु चालू स्कूलों की स्थिति में निश्चित ही परिवर्तन आया है।

स्कूलों की सुधरी स्थिति ने अभिभावकों को बड़ी राहत प्रदान की

दिल्ली में स्कूलों में दाखिले की बड़ी समस्या को देखते हुए स्कूलों की सुधरी स्थिति ने अभिभावकों को बड़ी राहत प्रदान की है। शिक्षा अधिकार कानून के कड़े क्रियान्वयन से निजी स्कूलों में दाखिले की सुगमता को भी दिल्ली सरकार की उपलब्धि के रूप में देखा गया, परंतु सिर्फ तीन-चार विभागों की सुधरी स्थिति और योजनाओं का सफल क्रियान्वयन चुनाव तो जिता सकते हैं, पर इतना बड़ा जनादेश नहीं दे सकते।

केजरीवाल की बड़ी जीत में मुफ्त योजनाओं की खास भूमिका रही

यह मानना पड़ेगा कि केजरीवाल की बड़ी जीत में मुफ्त योजनाओं की खास भूमिका रही। यह भी तथ्य है कि भाजपा अभियान में बहुत देर से और बिना मजबूत उम्मीदवार के उतरी। उसने सिर्फ और सिर्फ सीएए के विरोध और शाहीन बाग को मुद्दा बनाकर क्षेत्रीय चुनाव को राष्ट्रीय बनाने का प्रयास किया। इसमें पार्टी को आंशिक सफलता भी मिली और उसका मत प्रतिशत पिछले चुनाव के मुकाबले में थोड़ा बढ़ा, परंतु यह बढ़ा मत ठोस परिवर्तन लाने के लिए अपर्याप्त था।

भाजपा ने की दिल्ली के मतदाताओं की व्यावहारिक मानसिकता की अनदेखी

भाजपा ने दिल्ली के मतदाताओं की व्यावहारिक मानसिकता की अनदेखी की। दिल्ली वही राज्य है जिसने भीषण मुंबई हमले के चंद दिन बाद हुए विधानसभा चुनाव में भी अपनी तरजीह नहीं बदली थी। यह भी स्मरण रहे कि 2008 के उन चुनावों से सिर्फ दो माह पहले दिल्ली में भी लगातार पांच बम धमाकों ने बीस लोगों की जान ली थी। जहां आप दिल्ली को दिल्ली विधानसभा चुनाव की तरह लड़ रही थी वहीं भाजपा लोकसभा चुनाव मान कर।

समाजवाद के साथ विश्वसनीय नेतृत्व भारतीय राजनीति में आज भी अपराजेय मेल है

दिल्लीवासियों के लिए कम प्राथमिकता वाली विषयवस्तु-सुरक्षा के सिवाय भाजपा के पास देने के लिए अधिक कुछ न था। भाजपा की हार पर यह भी मानना पड़ेगा कि समाजवाद के साथ विश्वसनीय नेतृत्व भारतीय राजनीति में आज भी लगभग अपराजेय मेल है। इसे हराना तब तक मुश्किल है जब तक कि नेतृत्व की विश्वसनीयता कमजोर न पड़े। देश और विदेश की राजनीति में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां लंबे समाजवादी शासन तब बमुश्किल खत्म हुए जब उन्होंने अर्थव्यवस्था को पूरी तरह बर्बाद कर दिया।

पिछले पांच वर्षों में न तो एक भी कॉलेज खुला, न ही एक भी नई बस खरीदी गई

एक कार्यकाल में बिजली, पानी और बस यात्रा में छूट देकर आप सरकार ने लोगों को यह भरोसा दिया है कि अन्य सरकारें महंगी दरों पर बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं देकर लोगों के साथ छलावा करती हैं, परंतु वास्तविकता थोड़ी भिन्न है और चिंताजनक भी। दिल्ली में पिछले पांच वर्षों में न तो एक नया कॉलेज खुला है और न ही दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन ने एक भी नई बस खरीदी है। निजी डिस्कॉम लगभग 3000 करोड़ रुपये के घाटे में हैं। पांच साल पहले मुनाफे में चल रहे जल बोर्ड की हालत भी पतली है।

दिल्ली को सोलर सिटी बनाने के वादे सिर्फ कागजों तक सीमित

दिल्ली को सोलर सिटी बनाने के वादे सिर्फ कागजों तक सीमित हैं। शिक्षा और चिकित्सा क्षेत्र में सीमित प्रयासों को छोड़कर दिल्ली सरकार ने किसी भी आधारभूत परियोजना का एलान नहीं किया। एकीकृत परिवहन प्राधिकरण का खाका भी तैयार नहीं हुआ है।

फिर से सीएम का पद संभालने के बाद केजरीवाल के सामने चुनौतियां वही हैं जो जीत का कारण बनी

दिल्ली मेट्रो के चौथे चरण का काम आचार संहिता लागू होने से मात्र दस दिन पहले शुरू हुआ। निम्न आय वर्ग के लिए आवासीय योजना पर काम भी अभी सिर्फ कागजों में है। ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ में दिल्ली 15 से 23वें स्थान पर आ गई है। इसलिए फिर से मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद केजरीवाल के सामने चुनौतियां भी वही हैं जो दो बार से उनकी जीत का कारण बनी हैं।

लोकलुभावन योजनाओं में कटौती या फिर राजस्व बढ़ाने के प्रयास करने होंगे

उत्तर भारत की सबसे बड़ी व्यापार और आर्थिक मंडी होने के कारण दिल्ली इतना राजस्व तो पैदा करती है कि दो-चार क्षेत्रों में मुफ्त योजनाओं का लाभ दिया जा सके, परंतु नई योजनाओं, परियोजनाओं और दिल्ली को एक भविष्योन्मुखी शहर बनाने के लिए या तो राजस्व बढ़ाने के गंभीर प्रयास करने पडे़ंगे या लोकलुभावन योजनाओं में कटौती। दिल्ली के लिए चिंता का विषय है कि उसका राजस्व अधिशेष आप के शासन काल में लगातार गिरता आया है। फिलहाल इस घाटे की भरपाई जीएसटी एक्ट 2017 के प्रावधान के तहत हो रही है, परंतु यह लाभ भी अगले दो वर्षों तक ही मिल सकेगा।

लोकलुभावन नीतियों और बढ़ती जनअपेक्षाओं के बीच तालमेल बिठाना केजरीवाल के लिए चुनौती

यह देखना दिलचस्प होगा कि अब केजरीवाल लोकलुभावन नीतियों और बढ़ती जनअपेक्षाओं में तालमेल कैसे बैठाते हैं? दिल्ली मॉडल को देखकर एक बडे़ वर्ग ने मुफ्त बिजली, पानी, चिकित्सा, यातायात और यहां तक कि मुफ्त उच्च शिक्षा तक की मांग शुरू कर दी है। स्वयं केजरीवाल ने इसे राष्ट्रीय राजनीति में प्रमुख मुद्दा बनाने का एलान किया है। यह मॉडल, मोदी मॉडल से इस लिहाज से काफी अलग है कि पीएम मोदी ने कल्याणकारी योजनाओं को एक लक्षित वर्ग के सशक्तीकरण तक सीमित रखा है।

केजरीवाल जो भी चमत्कार दिखाएंगे वही उनके राजनीतिक भविष्य की दिशा तय करेगा

मुफ्त सुविधाओं की बढ़ती अपेक्षाओं, बढ़ती आबादी और राजस्व वृद्धि की गिरती दर के बीच बुनियादी ढांचे के लिए जूझती दिल्ली को विश्वस्तरीय शहर बनाने के लिए केजरीवाल जो भी चमत्कार दिखाएंगे वही उनके राजनीतिक भविष्य की दिशा तय करेगा।

( लेखक इंडिक अकादमी से संबद्ध हैं )