प्रो. सतीश कुमार। Migrant Labor Crisis In India: तालाबंदी के दौर में मजदूरों की घर वापसी का मसला एक अलग किस्म की महामारी में तब्दील हो गया। करोड़ों की संख्या में प्रवासी श्रमिक महानगरों में फंस गए। वहां से उनको निकालने में खूब हंगामा हुआ, राजनीतिक प्रपंच भी किए गए। मीडिया के एक खास वर्ग ने इसके लिए केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा करने की साजिश शुरू कर दी। इस बीच केंद्र सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें इस बात पर जोर देते हुए कहा गया है कि यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा नहीं की होती तो भारत में कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या आज बीस से तीस लाख के बीच होती और मृतकों की संख्या भी एक लाख से अधिक हो गई होती।

सवाल उठता है कि भारत जैसे देश में जहां स्वास्थ्य संबंधी साधन अत्यंत ही कमजोर हैं, उस स्थिति में क्या राज्य के द्वारा असहयोग की राजनीतिक हठधर्मिता की वजह से स्थिति और बेतरतीब नहीं हुई? मजदूरों को सहायता देने के बदले लोगों ने राजनीतिक रोटियां सेंकनी शुरू कर दीं। कोई बसों की नुमाइश में जुट गया तो कोई केंद्र के आदेशों को खुलेआम चुनौती देने लगा। किसी राज्य के मुख्यमंत्री ने अच्छाइयों को अपने नाम करने की कोशिश की और नाकामियों को केंद्र के जिम्मे थोपने की। देश पिछले करीब सवा दो महीने से आपात संकट में था, लेकिन संघवाद के नाम पर खूब बवाल हुआ, जो अभी भी चल रहा है। देश के संविधान में कुछ बातों की चर्चा है। ऐसी परिस्थिति एक साथ पूरे देश में कभी पैदा नहीं हुई थी, इसलिए आपातकाल के तीन खंडों में ऐसी व्यवस्था से निपटने के उपयोगी साधन क्या हों, इस पर चर्चा होना जरूरी है।

चूंकि यह महामारी वैश्विक है, इसलिए दुनिया के अन्य देशों की जानकारी भी आवश्यक है, जहां पर संघवाद जड़ जमा चुका है। ऑस्ट्रेलिया ने अपनी संघीय व्यवस्था के जरिये नेशनल कैबिनेट की स्थापना की जिसका मुखिया प्रधानमंत्री होगा और उसके सदस्य क्षेत्रों के मुख्यमंत्री होंगे, चाहे वे किसी भी राजनीतिक दल के हों। यह तरीका समस्या को एक राष्ट्रीय आपदा समझकर एकजुट होकर काम करने का है। कनाडा के संविधान में भी आपातकालीन व्यवस्था की चर्चा है, जिसमें केंद्र कोई भी फैसला ले सकता है। अमेरिकी संविधान में भी आपातकाल में केंद्र को शक्ति दी गई है।

भारत में स्थिति अलग है। स्वास्थ्य राज्य सूची में है और कानून व्यवस्था भी। जब कोरोना ने पैर फैलाना शुरू किया तो एक से दूसरे राज्य प्रभावित होने लगे। स्थिति गंभीर दिखने लगी। संविधान के नजरिये से केंद्र के हाथ-पैर बंधे हुए थे, क्योंकि अनुच्छेद 352 के प्रयोग के लिए कुछ शर्ते निर्धारित हैं, विशेषकर 44वें संविधान संशोधन द्वारा स्थिति को और स्पष्ट कर दिया गया कि युद्ध या बाहरी आक्रमण की दशा में ही इस अनुच्छेद का प्रयोग किया जा सकता है। उसके बाद केवल 2005 की आपदा प्रबंधन नियामवली ही एक विकल्प बच गया था। आपदा प्रबंधन में इस बात की चर्चा है कि अगर किसी बीमारी या संकट से देश जूझ रहा हो तो उस प्रबंधन की नियमावली 29 के तहत केंद्र पूरे देश या देश के चिन्हित हिस्सों में आपातकालीन व्यवस्था को लागू कर सकता है और उस आदेश का उल्लंघन कोई भी प्रदेश नहीं कर सकता। प्रधानमंत्री ने देशव्यापी बंद का आह्वान भी इसी नियम के तहत किया था।

इतना कुछ करने के बावजूद सहकारी संघवाद की प्रवृत्ति नजर नहीं आई। पश्चिम बंगाल की सरकार लगातार केंद्र सरकार से सहयोग करने की जगह विरोध की आग उगलती रही। देश एक है, किंतु अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकार है। ऐसे में भारत के संविधान में अनुच्छेद 352, 356 और 360 में तीन आपातकालीन शक्तियों की चर्चा है। तीनों की अलग-अलग शर्ते और नियम हैं। कोरोना की वजह से उत्पन्न संकट तीनों ही खेमों से बाहर का है। वर्ष 2017 में एक बिल संसद में पेश किया गया था जिसमें महामारी, जैविक आतंकवाद और आपदा से निपटने के लिए केंद्र को विशेष शक्ति देने की बात कही गई थी, लेकिन वह विधेयक कानून का रूप नहीं ले पाया।

पिछले कुछ वर्षो से पब्लिक हेल्थ को समवर्ती सूची में शामिल करने की बात चल रही थी, वह बात भी नहीं बन पाई। देश में लगभग 12 करोड़ प्रवासी मजदूर हैं जो असंगठित क्षेत्रों से कमाकर जीवन यापन करते हैं। सुविधा के नाम पर इनके पास अधिकतम किराये की कोठरी, साइकिल, रिक्शा या मोटरसाइकिल ही होती है। श्रम और प्रवासन पर काम करने वाली एक संस्था ‘आजीविका’ के अनुसार इसमें से चार करोड़ श्रमिक भवन निर्माण में, दो करोड़ घरेलू कार्यो में, एक करोड़ दस लाख टेक्सटाइल में, ईंट भट्टों पर एक करोड़ और बाकी ट्रांसपोर्ट खदानों और कृषि क्षेत्रों मे कार्यरत हैं।

 

मजदूरों के पलायन के लिए क्या केंद्र दोषी है या इसका हल मिल-जुलकर किया जाना चाहिए? देश जब एक साथ महामारी और बाहरी शक्तियों के हस्तक्षेप को भी ङोल रहा हो, उस समय खंडित राजनीति का मंसूबा कितना घिनौना और खतरनाक है? आर्थिक व्यवस्था को स्थापित करने के लिए केंद्र सरकार ने सख्त निर्णय लिए हैं तथा भविष्य में और लिए भी जाएंगे, लेकिन उससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात प्रधानमंत्री की आर्थिक दृष्टि की है जिसमें यह बात सोची गई कि मजदूरों के पलायन को हमेशा के लिए कैसे बंद किया जाए? यह काम एक दिन या एक साल में संभव नहीं होगा।

सात दशकों की आर्थिक यात्र अचानक ‘यू टर्न’ नहीं ले सकती, लेकिन दीर्घकाल में ऐसा संभव है। चूंकि संविधान में बहुत सी बातों का उल्लेख नहीं है, लिहाजा इस महामारी ने केंद्र की आपातकालीन शक्तियों को और बढ़ाने की स्थिति पैदा की है। कोरोना की वजह से जो संकट देश-समाज के सामने उभरकर आया है, उसका सार्थक समाधान एक मजबूत व्यवस्था ही कर पाएगी। कोरोना से बचाव का एकमात्र बेहतर उपाय आज दुनिया भर के देशों में लॉकडाउन के रूप में ही उभर कर सामने आया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे समय रहते जान-समझ लिया और लागू भी किया। लेकिन उसके बाद प्रवासी श्रमिकों की घर वापसी समेत कुछ समस्याएं हठात पैदा हुईं जिनसे निपटने में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच समन्वय का अभाव दिखा। इससे यह सवाल खड़ा हुआ कि क्या आपदा के समय केंद्र के पास कुछ अधिक अधिकार नहीं होने चाहिए।

[राजनीतिक विश्लेषक]