[ डॉ. भरत झुनझुनवाला ]: सरकार की दो प्रकार की नीतियां अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती हैं। इनमें एक होती हैं राजकोषीय और दूसरी मौद्रिक। राजकोषीय नीति में आय एवं व्यय जैसे विषय आते हैं जैसे जीएसटी की वसूली करना या राफेल जेट लड़ाकू विमान खरीदना। राजकोषीय नीति का प्रभाव तत्काल पड़ता है। जैसे यदि आज जीएसटी की दर 28 प्रतिशत से घटाकर 12 प्रतिशत कर दी जाए तो अगले दिन ही करदाताओं को राहत मिल सकती है। मौद्रिक नीति में नोट छापना तथा बैंक द्वारा ऋण देना आदि आते हैं। नोट छापना भी एक प्रकार का टैक्स होता है। यदि सरकार ने नोट छापकर सड़क बनाई तो उसके लिए सीमेंट और इस्पात खरीद लिए। इस प्रकार बाजार में उसी मात्रा में सीमेंट और इस्पात की उपलब्धता घट गई। चूंकि बाजार में सीमेंट और इस्पात की उपलब्धता घट गई तो बाजार में इनके दाम बढ़ जाते हैं, लेकिन यह दाम बढ़ने में समय लगता है। लोगों को धीरे-धीरे समझ में आता है कि बाजार में सीमेंट की उपलब्धता घट गई है। इसी प्रकार बैंकों द्वारा कर्ज दिए जाने का भी प्रभाव देर से पड़ता है। यदि बैंक ने आज किसी कंपनी को फैक्ट्री लगाने के लिए कर्ज दिया तो फैक्ट्री लगने में दो साल का समय लगता है और तभी उसका प्रभाव अर्थव्यवस्था में नजर आता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि राजकोषीय नीति का प्रभाव तत्काल एवं मौद्रिक नीति का असर देर से पड़ता है।

सरकार पर तमाम अल्पकालिक दबाव रहते हैं जैसे चुनाव में जीतने का दबाव। ऐसे दबाव में यदि नोट छाप दिए जाएं तो अल्पकाल में लाभ होता है, परंतु दीर्घकाल में दुष्प्रभाव ही पड़ता है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष आदि का कहना है कि मौद्रिक नीति का निर्धारण सरकार को स्वायत्त केंद्रीय बैंक को ही दे देना चाहिए। इस दृष्टि से अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व बोर्ड के गवर्नरों की नियुक्ति 14 वर्षों के लिए होती है। नियुक्त किए जाने के बाद उन्हें सरकार द्वारा हटाया नहीं जा सकता ताकि उनकी स्वायत्तता संरक्षित रहे। इसी प्रकार यूरोपीय बैंक के बोर्ड में सदस्य देशों का कोई प्रतिनिधि नहीं होता। सदस्य देशों के केंद्रीय बैंकों के प्रमुख बैंक के बोर्ड में अपनी व्यक्तिगत भूमिका में सदस्य होते हैं।

यूरोपीय बैंक द्वारा जो भी निर्णय लिए जाते हैं उसमें सदस्य देशों की सरकारों का लेशमात्र भी सीधा दखल नहीं होता। इसी क्रम में अपने देश में भारतीय रिजर्व बैंक को भी स्वायत्त बनाया गया है। रिजर्व बैंक को छूट होती है कि वह अपने विवेकानुसार तय करे कि कितने नोट छापे जाएंगे, ब्याज दर क्या होगी और किस प्रकार के कर्ज दिए जाएंगे, लेकिन रिजर्व बैंक के गवर्नर की नियुक्ति मात्र तीन वर्ष के लिए की जाती है और सरकार द्वारा उसे हटाया भी जा सकता है। इसलिए अपने देश में केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता दूसरे देशों की तुलना में कम दिखती है, फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि मौद्रिक नीति का प्रभाव अर्थव्यवस्था पर पड़ता है और अंतत: इसकी जिम्मेदारी सरकार पर ही होती है। इसलिए सरकार द्वारा रिजर्व बैंक के कामकाज में हस्तक्षेप एक प्रकार से उचित माना जा सकता है। बीते समय में भारत सरकार ने रिजर्व बैंक की स्वायत्तता पर कुछ अंकुश लगाया है। मौद्रिक नीति समिति बनाई गई है जो रिजर्व बैंक की नीतियों के विषय में गवर्नर को सुझाव देती है। इस समिति में तीन सदस्य सरकार द्वारा नामित होते हैं और तीन सदस्य रिजर्व बैंक से। यानी समिति के निर्णय स्वतंत्र होते हुए भी उनमें सरकार का हस्तक्षेप रहता है।

रिजर्व बैंक की स्थापना भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम के अंतर्गत हुई है। इस कानून की एक धारा में यह प्रावधान है कि सरकार द्वारा रिजर्व बैंक को कोई भी आदेश दिया जा सकता है, लेकिन इसके पहले सरकार के लिए उस पर रिजर्व बैंक के साथ चर्चा करना जरूरी है। सरकार ने धारा 7 का उपयोग करते हुए रिजर्व बैंक से हाल में बातचीत भी की है। वार्ता के दो प्रमुख पहलू हैं। इसमें एक तो अर्थव्यवस्था में तरलता का है। रिजर्व बैंक द्वारा बैंकों को एक निर्धारित मात्रा की रकम रिजर्व बैंक के पास जमा करने का आदेश दिया जाता है जिसे नकद आरक्षित अनुपात यानी सीआरआर कहा जाता है। यदि किसी बैंक ने 100 रुपये की फिक्स डिपॉजिट स्वीकार की है तो इसमें से 6.50 रुपये बैंक को रिजर्व बैंक के पास सुरक्षा के लिए जमा कराने पड़ेंगे। अंतरराष्ट्रीय सहमति में यह रकम मात्र 5.5 प्रतिशत ही उचित मानी जाती है। सरकार का कहना है कि रिजर्व बैंक ने 6.5 प्रतिशत सीआरआर निर्धारण करके बैंकों के पास ऋण देने के लिए उपलब्ध धन की मात्रा को कम कर दिया है।

सरकार चाहती है कि सीआरआर को घटाकर 5.5 प्रतिशत कर दिया जाए जिससे बैंकों के पास उपलब्ध धन बढ़ जाए और उनके द्वारा उद्योगों को कर्ज दिए जा सकें । सरकार और रिजर्व बैंक के बीच वार्ता का दूसरा बिंदु रिजर्व बैंक के लाभ का वितरण है। इसे रिजर्व कहा जाता है। आप जानते हैं कि कंपनियों द्वारा जब कई वर्षों तक लाभ कमाया जाता है तो वे उसे अपने बहीखाते में रिजर्व अथवा आरक्षित भंडार के रूप में रखती हैं। इसके बाद उपयुक्त समय पर उस रिजर्व से बोनस शेयर जारी करती हैं। इसी प्रकार रिजर्व बैंक भी लाभ कमाता है और उस लाभ को रिजर्व में रखता है। कहा जा रहा है कि सरकार का यह आग्रह है कि उपलब्ध रिजर्व का एक हिस्सा सरकार को शीघ्र हस्तांतरित कर दिया जाए जिससे सरकार अपनी सुविधा से उसे खर्च कर सके।

दोनों बिंदुओं पर अलग-अलग पक्ष हैं। रिजर्व बैंक का मानना है कि यदि सीआरआर कम किया गया तो बैंकों द्वारा कर्ज ज्यादा दिया जाएगा, बाजार में मुद्रा का चलन बढ़ेगा और महंगाई बढ़ेगी जो अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह होगी। इसके विपरीत सरकार का कहना है कि बैंकों द्वारा अधिक कर्ज देने से आर्थिक गतिविधियों के बढ़ने के दम पर अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में तेजी आएगी। दूसरी ओर रिजर्व बैंक की दलील है कि वर्तमान में अर्जित लाभ से उसके पास जो राशि जमा हुई है वह उसके पास ही बनाए रखना जरूरी है ताकि जरूरत पड़ने पर उसके उपयोग से अर्थव्यवस्था की रक्षा की जा सके। इसके विपरीत सरकार का मानना है कि इस समय ऐसा कोई आसन्न संकट पैदा होता नहीं दिखता इसलिए बेहतर है कि केंद्रीय बैंक को अपना यह रिजर्व भारत सरकार को हस्तांतरित कर देना चाहिए।

दोनों पक्ष अपने-अपने स्तर पर कुछ हद तक सही हैं। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह अपने पक्ष को जनता के सामने रखे और जन-सहमति बनाए और फिर रिजर्व बैंक पर दबाव डाले कि वह उसकी बताई नीतियों का पालन करे। यदि ऐसा किया गया तो सरकार की मंशा पूरी होगी और रिजर्व बैंक की स्वयत्तता भी बनी रहेगी जो आखिरकार देश के लिए भी बेहतर होगी और उससे दुनिया में भी अच्छा संदेश जाएगा।

[ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलूर के पूर्व प्रोफेसर हैं ]