प्रवीण गुगनानी। आज मुंबई समेत देश के अनेक महानगर मेहनतकश, गरीब और गांव छोड़कर शहर आए हुए लोगों को हिकारत और उपेक्षा भरी दृष्टि से देख रहे हैं। दरअसल यह उस आचरण का नाम है जो मजदूरों के प्रति अपने दायित्व की अनदेखी कर यूज एंड थ्रो की नीति अपना रहे हैं। यदि हम खास तौर पर मुंबई की बात करें तो यूपी-बिहार से आए हुए मजदूरों को भैया कहकर संबोधित किया जाता है। ठसक, अकड़ और नकचढ़ी मुंबई और मुंबई के लोग, यूपी-बिहार से आए हुए इन बेहद श्रमशील लोगों को भैया कहकर पुकारते हैं। किंतु एक बात और ध्यान रखिए, भैया शब्द को ये लोग आदरसूचक नहीं, व्यंग्यात्मक लहजे में उपयोग करते हैं।

मुंबई जैसे समस्त बड़े नगर और औद्योगिक क्षेत्रों व राज्यों में यूपी, एमपी, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों से गए श्रमिकों के बल पर ही सारी व्यवस्थाएं चलती हैं। बड़े-बड़े नगर, महानगर इन प्रवासी श्रमिकों के पसीने की सिंचाई से हरे-भरे रहते हैं। किंतु यह भी सच है कि ये नगर इन मजदूरों को भले भैया जैसे अच्छे शब्द से पुकारें, किंतु पुकारेंगे उपेक्षा, उपहास और उलाहना देकर ही और देखेंगे तो बुर्जुआ दृष्टि से ही।

हाल के दिनों में जब मुंबई जैसे बड़े नगरों में गए इन प्रवासी मजदूरों के घर लौटने का अनवरत किस्सा प्रारंभ हुआ तो खयाल आया कि ये लोग किस प्रकार बड़े नगरों की अर्थ व सामाजिक व्यवस्था का आधारस्तंभ बने हुए थे। जिन कांधों पर चढ़कर मुंबई और उसके व्यापारी, उद्योगपति चढ़कर इठलाते थे, उन कांधों को इस आíथक राजधानी ने तनिक सी कठिनाई आने पर दूध में से मक्खी की तरह निकाल दिया। इन्हें न तो वेतन दिया और न ही भोजन। पूरा जीवन इन मजदूरों के पसीने का क्रीम-पाउडर बनाकर अपना चेहरा चमकाने वाली मुंबई इतनी निष्ठुर, पत्थरदिल और सौतेली निकली कि रिश्तों-नातों से विश्वास ही उठा गई। और यह कहानी केवल मुंबई की ही नहीं, देश के अन्य महानगरों में भी मजदूरों के साथ कमोबेश यही बर्ताव हुआ है।

कोरोना कालखंड की गाथाएं जब भी लिखी जाएंगी तो प्रवासी मजदूरों की कथा उन राज्यों के शून्य दायित्व बोध के साथ लिखी जाएगी जिन्होंने अपने यहां निवास कर रहे इन बाहरी मजदूरों की तनिक सी भी चिंता-फिक्र नहीं की। मुंबई से सैकड़ों-हजारों किमी की अपनी गांव यात्र के दौरान इन मजदूरों के दिल में जो विचार आ रहे होंगे, वे सारे यदि लिख लिए जाएं तो विधाता के आंचल की सारी ममता समाप्त हो जाएगी। वह तो अच्छा है कि ये मजदूर केवल सोचना जानते हैं, लिखना नहीं जानते।

अरी निष्ठुर मुंबई, कम से कम तू इतना तो याद रखती कि तेरे हर प्रसव की पीड़ा को इन यूपी-बिहार के भैया लोगों ने ही ङोला है। तेरे नौनिहालों पर अपनी जान न्योछावर करने वाले ये भैया लोग जब अपने घरों की हजार किमी की यात्र पर चलने लगे तो तू इनके बच्चों के पांव में एक-एक जोड़ी चप्पल भी न दे पाई! तेरे गलियारों में एक शब्द बड़ा गुंजाती है, जिसे चमक-दमक वाले लोग सीएसआर कहते हैं-कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी।

दुखद विषय है कि इस सीएसआर ने भी इन मजदूरों को अनसोशल ही समझा और इनकी सोशल जवाबदारी नहीं ली। कुछ गीत और गाए जाते हैं मुंबई के मंचों पर जिसमें मानवाधिकार, सामाजिक सुरक्षा, श्रम कानून जैसे शब्द बड़े-बड़े नाटकीय और ईश्वरीय अंदाज में बोले जाते हैं। मुंबई इन बड़े-बड़े शब्दों को बोलते समय अपना मुंह इतना ममतामयी बनाती थी कि पूरे देश को उसकी दयालुता पर सहज ही विश्वास हो जाता था। आज पता चला कि ये सब तो छल के अलावा और कुछ नहीं था। 

मुंबई, तू बस ड्रामा करती है और फिल्में बहुत बनाती है। तू फिर फिल्में बनाएगी, उन्हीं मजदूरों की त्रासदी पर, और वे लोग उसे देखकर ताली बजाएंगी, यह तुझे मालूम है। लेकिन यह कटु सत्य है कि फिलहाल तुमने उन्हें बेबस हाल में छोड़ दिया है।

(लेखक एक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)