[ एनके सिंह ]: संविधान सभा में 30 दिसंबर, 1948 को जब मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी और राष्ट्रपति द्वारा हर मंत्री को अनुसूची (3) में वर्णित प्रारूप के अनुरूप शपथ दिलाने की बाध्यता और मंत्रियों के ज्ञात नैतिक अनाचरण के मुद्दों पर चर्चा हो रही थी तब एक अखबार में यह खबर छपी थी कि मंत्रिमंडल का एक सदस्य ब्लैकमेल के अभियोग में सजा पा चुका है, लेकिन तत्कालीन महाराजा ने उसे अपराध मुक्त घोषित कर दिया था। संविधान सभा के समक्ष प्रश्न यह था कि क्या ऐसा व्यक्ति मंत्री बनाया जाना चाहिए? केटी शाह, महबूब अली सहित अनेक सदस्य अपने-अपने संशोधन प्रस्ताव पर बोल रहे थे।

मंत्रियों के अतीत के आचरण को लेकर संविधान सभा काफी गंभीर थी। अंत में यह तय किया गया कि मंत्रिपरिषद सामूहिक जिम्मेदारी पर ही चलेगी, लेकिन मंत्री की शपथ का प्रारूप उसे व्यक्तिगत और नैतिक रूप से बाध्य करेगा। लिहाजा उसकी शपथ में शुद्ध अंत:करण शब्द शामिल किया गया। यह अन्य किसी भी संवैधानिक पद के लिए नहीं है-यहां तक कि भारत के मुख्य न्यायाधीश के लिए भी नहीं।

अगर एमजे अकबर सरीखा आरोप किसी संसद सदस्य पर लगा होता तो सामूहिक नेतृत्व के सिद्धांत से पूरे मंत्रिमंडल पर आंच न आती, क्योंकि उसने शुद्ध अंत:करण की शपथ नहीं ली होती। अगर अंत:करण दूषित है तो वह व्यक्ति का मौलिक व्यक्तित्व बताता है जो समय के साथ बदलना तब तक असंभव है जब तक वह अंगुलीमाल न हो। संभव है अकबर पर लगे आरोप अदालत में सही सिद्ध न हों, क्योंकि संपादक के तौर पर उन्होंने अपने कार्यालय में सीसीटीवी कैमरा तो लगा नहीं रखा होगा और लगाया भी होगा तो उसे नियंत्रित भी वही करते होंगे। अगर वह मंत्री पद पर बने रहते तो उनके व्यवहार को लेकर उभरी शंका पूरे मंत्रिमंडल और प्रधानमंत्री के लिए एक बोझ बन जाती।

अपराध की दो किस्में हैं-एक, नैतिक अनाचरण और दूसरा आपराधिक दोष। हो सकता है कि किसी महिला को आपत्तिजनक तरीके से घूरना लोकलाज के कारण महिलाओं के आगे न आने की मजबूरी से अपराध-दोष न बना हो, लेकिन आज है। हिंसक या कामुक व्यवहार नैतिक पतन की श्रेणी में आता है। ऐसा दो सौ या दो हजारसाल पहले भी था। समय के साथ मान्यताएं बदलीं, सामाजिक व्यवहार बदला और महिलाएं घर की चौखट तक सीमित रहने के बजाय सीईओ भी बनने लगीं। समय के साथ तकनीक भी बदली सूचना एवं संचार के माध्यम भी। इसी से संभव हुआ मी टू अभियान। आज सारी दुनिया इस अभियान से परिचित है।

शुद्ध अंत:करण काल-सापेक्ष नहीं होता। वह शाश्वत होता है। एमजे अकबर के इस्तीफा न देने के पक्ष में दो तर्क दिए गए। एक यह था कि 10-20 साल पहले के किसी आरोप के लिए किसी को आज सजा देना गलत है। दूसरा तर्क यह था कि किसी व्यक्ति के संपादक के रूप में किए गए कार्य के लिए वर्तमान में किसी राजनीतिक दल या सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। ये दोनों तर्क दरअसल कुतर्क थे। ये न तो तर्कशास्त्र के पैमाने पर खरे उतरते हैैं और न ही उस शपथ के अनुरूप साबित होते हैैं जिसे मंत्रीगण लेते हैैं। अपराध न्याय की प्रक्रिया काल बाधित नहीं होती। अगर किसी ने 20 साल पहले हत्या की है तो न्याय प्रक्रिया उसी शिद्दत से शुरू होगी जैसे हत्या के किसी नए अपराध को लेकर शुरू होती है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि प्रजातंत्र में नैतिक आचरण को लेकर जन-अभिमत शासन की रीढ़ होता है।

इसीलिए कहा जाता है कि लोकतंत्र लोकलाज से चलता है। महिलाओं के सम्मान के सवाल पर तो लोकलाज की चिंता प्राथमिकता के आधार पर की जानी चाहिए। अकबर पर लगे आरोपों का हश्र कुछ भी हो, उनका त्यागपत्र महिला सम्मान की एक बड़ी जीत है, लेकिन यह जीत केवल मंत्री पदों पर आसीन यौन शोषण के आरोपितों के मामले में ही नहीं मिलनी चाहिए। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अकबर ने तो इस्तीफा दे दिया, लेकिन अन्य अनेक लोगों पर यौन शोषण के जो आरोप लगे हैैं उनके खिलाफ मुश्किल से ही कुछ हो रहा है।

2014 में मनमोहन सरकार इसलिए नहीं गई कि प्रधानमंत्री दागदार थे, बल्कि इसलिए गई कि जन-अभिमत उसके खिलाफ हो गया था। अपराध कानून के तहत एमजे अकबर एक के बाद एक 20 महिलाओं के आरोपों के बाद भी मंत्री बने रह सकते थे, क्योंकि उन पर लगे आरोप प्रमाणित नहीं हुए थे, लेकिन इससे मोदी सरकार की गरिमा संदेह के घेरे में आ जाती। अंत:करण नैतिकता पर आधारित होता है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं का जा सकती कि संविधान ने सामूहिक जिम्मेदारी की बाध्यता रखी है। लालू यादव केंद्रीय मंत्री बनकर एक लंबे समय तक इसी आधार पर देश की छाती पर मूंग दलते रहे कि चारा घोटाले में तब तक फैसला नहीं हुआ था, लेकिन उनका मंत्री पद पर आसीन होना व्यापक जन-अभिमत, प्रजातंत्र और संवैधानिक व्यवस्था की क्षमता पर सवाल तो खड़े ही करता रहा।

अगर एमजे अकबर मंत्री बने रहते तो ऐसे ही सवाल खड़े होते और वह सरकार के लिए परेशानी का कारण बनते। कुछ लोग यह कह सकते हैैं कि हो सकता है कि अकबर पर लगे आरोप गलत हों, लेकिन अगर एक के बाद एक 20 महिला पत्रकार यौन शोषण के आरोप लगाएं और वह भी यह जानते हुए कि इसके लिए उन्हें कोई सामाजिक कीमत चुकानी पड़ सकती है तो उसकी अनदेखी नहीं का जा सकती। किसी पर आरोप साबित न हों तो इसका यह मतलब भी नहीं कि वह निर्दोष साबित हुआ। इस मामले में यह भी देखें कि एमजे अकबर कथित तौर पर एक के बाद एक महिला पत्रकारों को तंग करते रहे, लेकिन पीड़ित महिलाएं समय रहते आवाज उठाने का साहस नहीं जुटा सकीं। अगर मी टू अभियान ने भारत में दस्तक नहीं दी होती तो शायद वे अभी भी मौन रहने में ही अपनी भलाई समझतीं।

इसका मतलब है कि तब ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी कि यौन प्रताड़ना का शिकार महिला पत्रकार अपनी शिकायत दर्ज करा सकें। आखिर क्या कर रहा था एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया जो सरकार के हर कदम पर प्रेस स्वतंत्रता पर हमले की बांग देने लगता है? यह सच है कि संपादक अपने पद पर आने के पूर्व शुद्ध अंत:करण से काम करने की शपथ नहीं लेता, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि इसके आधार पर उसे लंपट व्यवहार करने का लाइसेंस मिल जाता है। यही बात उन अन्य अनेक लोगों पर भी लागू होती है जो किसी पद पर आसीन होते समय मंत्रियों की तरह किसी तरह की शपथ नहीं लेते।

आज इसकी आवश्यकता है कि कार्यस्थलों में यौन शोषण के खतरे के खिलाफ एक नया कानून बने जिसमें खुद को निर्दोष सिद्ध करने की जिम्मेदारी आरोपित पर हो न कि आरोप लगाने वाली महिलाओं पर। इसकी भी जरूरत है कि मी टू अभियान बड़े शहरों से बाहर भी निकले ताकि गांव-कसबे की आम महिलाएं भी यौन शोषण के खिलाफ मुखर हों। अकबर का इस्तीफा एक शुरुआत बननी चाहिए।

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]