नई दिल्ली [ नाइश हसन ]। बहुचर्चित फिल्म पैडमैन ने एक ऐसे मसले को उठाया है जो अभी तक न केवल दबा-छिपा था, बल्कि जिसके बारे में खुले तौर पर बात करना भी संभव नहीं था। बहुत दिन नहीं हुए जब हाजी अली दरगाह में औरतों को मुख्य भाग में प्रवेश करने से रोका गया। कारण बताया गया कि उनका माहवारी के दिनों में प्रवेश करना ठीक नहीं। शनि शिगनापुर और शबरीमाला मंदिर में भी महिलाओं को इसीलिए रोका गया कि उन्हें माहवारी आती है। इससे एक बारगी ऐसा लगा जैसे अचानक ही हमारे देश में औरतों को माहवारी आने लगी हो। औरतों ने विरोध जताया तो दूसरी तरफ से भी तलवारें खिंच गईं। एक मौलाना साहब बोले कि औरत नापाक है तो किसी पंडित जी ने कहा कि मंदिर में ऐसी मशीन होनी चाहिए जो माहवारी वाली महिलाओं की पहचान कर सके। ऐसी बातों के पक्ष में धर्मग्रंथों का भी हवाला देने की कोशिश की गई, लेकिन ऐसे लोग दरअसल वे हैैं जिनके अंदर पितृसत्ता की जडें गहरे तक जमी हैैं।

औरत पैदा नहीं होती, बनाई जाती है

चूंकि धर्म का भय आसानी से दिखाकर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है इसलिए उसकी आड़ लेने से बचा नहीं जाता। इस बारे में विश्व प्रसिद्ध लेखिका सिमोन द बोआ ने अपने ही अंदाज में कहा था कि औरत पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। कभी-कभी लगता है कि समाज उसे बनाता ही नहीं नियंत्रित भी करता है। पिछले दो-तीन सालों में कुछ ऐसे अजीब से मामले सामने आए।

धरम-करम के जाल में उलझी औरत

धर्म और पितृसत्तात्मक सोच के जाल में औरत को इतना उलझाया गया कि वह माहवारी वाले दिनों में खुद को अपवित्र और कमतर मानने लगी। नतीजा यह हुआ कि वह तकलीफ सहकर भी माहवारी छिपाने लगी। किसी ने नहीं सोचा कि जब यह कायनात ही औरत से जन्मी है तो फिर वह कुछ खास दिनों के लिए अपवित्र या नापाक कैसे हो सकती है? तमाम मुस्लिम घरों में माहवारी में नमाज-रोजा की इजाजत नहीं। कुरान छूने की इजाजत नहीं, केवल दूर से पढ़ सकती है। वह दरगाह नहीं जा सकती, लेकिन हज पर माहवारी से जुड़ा सवाल नहीं पूछा जाता। शायद इसलिए कि हज रेवेन्यू का भी जरिया है। मुस्लिम घरों की तरह तमाम हिंदू घरों में भी माहवारी के दिनों में महिलाएं पूजा-पाठ नहीं कर सकतीं, रसोई में प्रवेश नहीं कर सकतीं, अचार नहीं छू सकतीं। इसी तरह की घोषित-अघोषित पाबंदिया अन्य समाजों में भी हैैं। धरम-करम के जाल में उलझी औरत माहवारी को छिपाते और स्वच्छता को नजरअंदाज करते कब बीमारियों से जकड़ जाती है उसे पता ही नही चलता। प्रतिवर्ष 10 लाख से ज्यादा औरतें सर्वाइकल कैंसर की चपेट में आ रही हैैं। इस विषय पर कई अध्ययन वर्षों से आ रहे हैैं पर सरकार और समाज ने इस मुद्दे को लगातार नजरअंदाज किया है।

सेनेटरी पैड को लेकर गर्माया मामला

यह हैरत की बात है कि इस देश की सिर्फ 12 प्रतिशत महिलाएंं ही सेनेटरी पैड का इस्तेमाल कर रही हैं। बाकी सेनेटरी पैड खरीद पाने में सक्षम नहीं हैैं और सेनेटरी पैड इस्तेमाल न करने का मतलब है पुराना कपडा, राख की पोटली, घास आदि का इस्तेमाल करना। यह सब उन्हें बीमार बनाता है और कई बार तो उनकी सेहत को घातक नुकसान पहुंचाता है। माहवारी बीमारी नही है, पर अज्ञानता से उपजी सोच ने उसे बीमारी में तब्दील कर दिया है। अगर देश की 88 प्रतिशत औरतें सेनेटरी पैड इस्तेमाल नहीं कर सकतीं तो सरकार ने इस दिशा में क्या किया? एसी नील्सन का एक अध्ययन कहता है कि 12 से 18 साल की तमाम लड़कियां पीरियड्स के बाद पांच दिन स्कूल नहीं जातीं। इस तरह वे साल में 40-50 दिन स्कूल नहीं जातीं। इस अध्ययन के अनुसार पीरियड्स आने के बाद 23 प्रतिशत लड़कियां स्कूल छोड़ देती हैं। इस अध्ययन का जमीनी स्तर पर काम करने वाले संगठन प्लान इंडिया ने पुनरीक्षण भी किया। नेशनल हेल्थ फेमिली सर्वे 2015-2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार गांवों में स्थिति और खराब है। वहां 12 से 24 साल तक की लड़कियों में सिर्फ 26 प्रतिशत ही सेनेटरी पैड का इस्तेमाल करती हैं। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि किस तरह भारतीय बाजार में सेनेटरी पैड बेचने वाली प्राइवेट कंपनियों ने कब्जा जमा रखा है। इनमें भी एक बड़ा हिस्सा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कब्जे में है। बाजार में बड़ी कंपनियों के प्रभुत्व के चलते न्यूनतम दर के सेनेटरी पैड पूरी तरह से गायब हैैं।

सेनेटरी पैड पर सरकार ठोस पहल करे ताकि महिलाएं कुछ खास दिनों के लिए निषेध से मुक्त हों

पता नहीं क्यों सरकार की प्राथमिकता में यह सवाल क्यों नहीं है कि सेनेटरी पैड पर जीएसटी का बोझ क्यों डाला जा रहा है? वित्तमंत्री के समक्ष महिलाओं ने अर्जी भी दी कि सेनेटरी पैड पर लगने वाले टैक्स को खत्म किया जाए, लेकिन अभी तक कोई फैसला नहीं हो सका है। सरकार ने महिलाओं के लगातार सवाल उठाने के बाद एक गाइडलाइन बनाई जिसके तहत माहवारी से जुड़े निषेध खत्म करने, स्कूल में अलग शौचालय बनाने की बात की गई, लेकिन केवल गाइडलाइन से ये सब होना संभव नहीं दिखता। यह उम्मीद है कि फिल्म पैडमैन से इस मुद्दे पर जो चर्चा छिड़ी वह समाज को जागरूक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी, परंतु सेनेटरी पैड की कीमत के सवाल को कौन हल करेगा? अच्छा हो कि सरकार अपने स्तर पर ठोस पहल करे ताकि माहवारी के नाम पर महिलाएं तरह-तरह के निषेध से मुक्त हों।

[ लेखिका रिसर्च स्कॉलर एवं मुस्लिम वीमेन्स लीग की महासचिव हैैं ]