[ कैप्टन आर विक्रम सिंह ]: इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि जैश-ए-मोहम्मद द्वारा अंजाम दिए गए पुलवामा हमले के पीछे पाकिस्तानी सेना का हाथ है। भारत के कड़े रुख के बाद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान वीडियो संदेश में सुबूत मांगते दिखे, लेकिन उन्हें इस घटना पर कोई अफसोस नहीं है। इधर हमले का जवाब न देने की सुविधा के लिए हमारे सेक्युलर विशेषज्ञों द्वारा ‘क्रॉस बॉर्डर टेररिज्म’ और ‘नॉन स्टेट एक्टर्स’ जैसे शब्द गढ़ लिए गए हैं। इन्हीं के सहारे अतीत में सरकारों ने कार्रवाई न कर चेहरा छिपाने की गुंजाइश बनाई थी। पुलवामा में 40 जवानों की शहादत ने हमें कश्मीर नीति पर पुनर्विचार करने को बाध्य किया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सेनाओं को खुली छूट दी है। इसी के साथ भारत की जबरदस्त राजनयिक मुहिम जारी है। आजादी के साथ ही कश्मीर की समस्या प्रारंभ हो गई थी। 1947 में पाकिस्तान ने एक तिहाई कश्मीर पर कब्जा कर लिया। हमारे नेतृत्व ने अपनी ही पहल पर सुरक्षा परिषद द्वारा प्रायोजित युद्धविराम स्वीकार कर लिया। फिर ऐसे संतुष्ट हो गया जैसे वह कश्मीर हमारा था ही नहीं। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जनमत संग्रह द्वारा कश्मीर के भाग्य के निर्णय का प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र में दे ही चुके थे, जैसे महाराजा हरि सिंह का भारतीय संघ में विलय-पत्र कोई रद्दी का टुकड़ा हो। सरदार पटेल ने उन्हें जनमत संग्रह की घोषणा से रोकने की भरसक कोशिश की, लेकिन उन्होंने एक न सुनी। फिर नेहरू ने कश्मीर को संयुक्त राष्ट्र और शेख अब्दुल्ला के हवाले कर दिया। यहीं से कश्मीर की नीतिविहीनता का काल प्रारंभ होता है।

जनमत संग्रह का प्रस्ताव भारत में कश्मीर के विलय के विरुद्ध पाकिस्तान और फिर अलगाववादियों का सबसे बड़ा हथियार बना जो स्वयं नेहरू ने उसे उपलब्ध करा दिया था। 21 सितंबर, 1960 को सिंधु जल समझौते पर हस्ताक्षर के बाद मुरी के खूबसूरत हिल स्टेशन में अयूब खान ने कश्मीर का जिक्र किया। नेहरू ने कहा कि जो युद्ध विराम रेखा है उसे ही अंतरराष्ट्रीय सीमा स्वीकार करना उचित है। अयूब ने कहा कि यह रेखा तो सिर्फ सैन्य कब्जे के आधार पर बनी है। बाद में 1963 में भुट्टो-स्वर्ण सिंह की छह चक्रीय वार्ता में कश्मीर विवाद खत्म करने के लिए कश्मीर की लगभग 1500 वर्ग मील भूमि पाकिस्तान को बतौर उपहार उपलब्ध कराने का प्रस्ताव दिया गया जो भुट्टो ने स्वीकार नहीं किया। कश्मीर को बांटना, कश्मीर पर भारत का हक कमजोर करना था। नेहरू कश्मीर के गलत पैरोकार सिद्ध हुए। कश्मीर का एकीकरण उनका लक्ष्य नहीं बना।

जब सुरक्षा परिषद में हमारी ‘गुटनिरपेक्ष’ नीति से खार खाए बैठे अमेरिका और ब्रिटेन ने कश्मीर विवाद को बुरी तरह उलझा दिया तो नेहरू को अपनी गलती का अहसास हुआ। 1953 में अलगाववादी तेवर दिखाने पर उन्हें शेख अब्दुल्ला को नजरबंद करना पड़ा। इन छह वर्षों में ही नेहरू की कश्मीर नीति का जुलूस निकल चुका था। फिर भी इस असफल नीति से उत्पन्न हालात को हम 1965 के अनिर्णित युद्ध के उपरांत लगातार ढोते रहे। यथास्थिति में परिवर्तन सैन्य समाधान द्वारा ही संभव था, लेकिन हम अहिंसा की दुहाई देते रह गए और पाक आक्रामक रहा। 1946 में ही बतौर अंतरिम प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा था कि उन्हें सेनाओं की कोई जरूरत नहीं, पुलिस से ही देश की रक्षा हो जाएगी, दुनिया में हमारा कोई शत्रु नहीं है। वास्तव में र्अंहसक आंदोलन से आजादी तो मिली, लेकिन हमने र्अंहसा को हर मर्ज की दवा मान लिया। 1962 की शर्मनाक पराजय का कारण बनी हमारी ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ सैन्य रणनीति में सत्याग्रह के प्रयोग की तरह ही थी।

फिर 1965, 1971 और 1999 के युद्ध भारत के लिए बड़े अवसर लेकर आए। मजबूरी यह थी कि हमारा नेतृत्व अपनी नीतिगत कमजोरियों से मुक्त नहीं हुआ था। 1965 में लाल बहादुर शास्त्री ने दूसरा मोर्चा खोला तो जरूर, लेकिन कश्मीर का कोई लक्ष्य तय नहीं था। 1971 के बांग्लादेश युद्ध में कश्मीर समस्या के स्थाई समाधान का बढ़िया मौका था। हमारी सेनाओं ने बांग्लादेश तो मुक्त करा लिया, लेकिन पाकिस्तान सुरक्षित रहा और कश्मीर समस्या ज्यों की त्यों रही। न हाजीपीर वापस आया न छंब, फिर भी इंदिरा गांधी ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर दी। अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा लाहौर बस यात्रा के तत्काल बाद पाकिस्तान सेना ने कारगिल की सरहद पर चढ़ाई कर दी। यदि हमारा नेतृत्व चाहता तो स्कर्दू सहित उत्तरी कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा जवाबी कार्रवाई में मुक्त हो जाता।

संसद पर हुए आतंकी हमले, फिर मुंबई हमले के बाद भी सैन्य प्रतिक्रिया देने में हम विफल रहे। जो सोच 1962 में बढ़ती हुई चीनी सेनाओं पर हवाई सेना के उपयोग की हिम्मत नही जुटा पाई वही सोच हमारी रक्षानीति की मार्गदर्शक बनी रही। हम पाकिस्तान को सुबूतों का डोजियर सौंपकर असंभव सी उम्मीद करते रहे कि वह गुनहगारों को सजा देगा। पाकिस्तान को कभी भी भारत पर हमला करने में गुरेज नहीं हुआ, लेकिन भीरुता की भावना से ग्रसित हमारा नेतृत्व व्यर्थ की वार्ताओं की आड़ में स्वयं को सुरक्षित पाता रहा।

उड़ी में आतंकी हमले के जवाब में पहली बार यह हुआ कि शत्रु सीमा में घुसकर पाकिस्तान को उसका जवाब दिया गया। वाजपेयी के इंसानियत-जम्हूरियत-कश्मीरियत के आदर्श को जमीन पर उतारने के लिए पीडीपी के साथ भाजपा की भागीदारी लीक से हटकर एक साहसिक प्रयास थी। विकास को अवसर देने की यह कोशिश नाकाम इसलिए हुई, क्योंकि पीडीपी नेतृत्व कश्मीर को भारत की मुख्यधारा में लाने के लिए गंभीर नहीं था। पुलवामा हमले से आतंकियों ने अपना तात्कालिक उद्देश्य तो पूरा कर लिया। अब उनकी कोशिश स्थानीय भर्ती मे तेजी लाने की होगी। ऐसे में अब हाईवे सुरक्षा को हाईटेक बनाना बहुत जरूरी है। सेनाओं, सशस्त्र बलों के लिए जम्मू से कश्मीर घाटी तक, राजौरी से गुलमर्ग का वैकल्पिक मार्ग युद्धस्तर पर विकसित करना होगा।

कश्मीर समस्या के स्थाई समाधान में हमारी नीतिविहीनता ही मुख्य बाधा रही है। जब हम कश्मीर पर पाकिस्तान से वार्ता करते हैं तो आम कश्मीरी के मन में यह सवाल जीवित हो जाता है कि अभी समस्या मौजूद है और कश्मीर का भविष्य और उनकी राष्ट्रीयता अनिर्णित है। कश्मीर का विलय भारत में हो चुका हैै और वह हमारा अटूट अंग है तो पाकिस्तान से वार्ता आखिर किसलिए? इन वार्ताओं की वजह से अलगाववादी सोच यह उम्मीद करने लगती है कि कश्मीर की आजादी संभव है। नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा मानने की नेहरूकालीन नीति को 1972 में इंदिरा गांधी और भुट्टो के शिमला समझौते के दौरान भी अलिखित रूप से स्वीकार किया गया था। एक विजयी देश पराजित देश के समान व्यवहार कर रहा था।

पुलवामा हमले ने देश की चेतना को झकझोर दिया है। राष्ट्रीय नेतृत्व से धारा 370 और 35ए को खत्म करने की अपेक्षा की जा रही है। इससे कश्मीर में शांति व्यवस्था की अस्थाई समस्या उत्पन्न होगी, लेकिन इससे स्थाई समाधान की एक खिड़की खुलेगी। नीतियां राष्ट्रहित की वाहक होती हैं। हमारा यह नीतिगत दीवालियापन धारा 370 के संशोधन और संपूर्ण कश्मीर के एकीकरण के नीतिगत लक्ष्य से ही समाप्त होगा।

( लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं )