संजय गुप्त। आखिरकार एनआइए की एक अदालत ने यासीन मलिक को आतंकी फंडिंग समेत अन्य मामलों में दोषी पाते हुए उम्रकैद की सजा सुना दी। चूंकि यह फैसला विलंब से आया, इसलिए उस पर एक सीमा तक ही संतोष किया जा सकता है। ऐसे फैसले यही बताते हैं कि न्याय में देरी अन्याय है। यासीन मलिक न केवल खुद आतंकी गतिविधियों में शामिल था, बल्कि अन्य आतंकियों की हर तरह से मदद भी करता था। उसने वायु सेना के चार अफसरों की हत्या की और वीपी सिंह सरकार के समय गृहमंत्री रहे मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी और महबूबा मुफ्ती की बहन रूबिया सईद का अपहरण किया। माना जाता है कि यह अपहरण नहीं था, बल्कि आतंकियों को छुड़ाने की एक साजिश थी और उसमें जम्मू-कश्मीर सरकार के भी कुछ लोग शामिल थे। जब रूबिया सईद की रिहाई के बदले खूंखार आतंकियों को छोड़ा गया तो आतंकियों का दुस्साहस चरम पर पहुंच गया और कश्मीरी हिंदुओं को मारने, धमकाने की घटनाएं तेज हो गईं। जब यासिन मलिक के साथियों ने जेकेएलएफ सरगना मकबूल बट्ट को फांसी की सजा सुनाने वाले जज नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी तो कश्मीरी हिंदुओं के लिए वहां रहना मुश्किल हो गया और बड़े पैमाने पर उनका पलायन होना शुरू हो गया।

अभी यासीन मलिक के अन्य मामलों की भी सुनवाई होनी है। देखना है कि उसे इन मामलों में क्या सजा मिलती है? उसने जिस तरह के आतंकी कृत्य किए हैं, उन्हें देखते हुए तो उसे फांसी की सजा मिलनी चाहिए। जो भी हो, यह समझना कठिन है कि 1994 में उसे जेल से क्यों छोड़ा गया? जेल से छूटते ही वह खुद को गांधीवादी कहने लगा। हैरानी की बात यह रही कि कई बुद्धिजीवी, नेता और पत्रकार उसे सचमुच गांधीवादी बताने लगे और उसकी हर तरह से सहायता भी करने लगे। नतीजा यह हुआ कि उसे विभिन्न कार्यक्रमों में बुलाया जाने लगा। वह सरकार के शीर्ष नेताओं से भी मुलाकात करने लगा। वह हुर्रियत कांफ्रेंस के अलगाववादी और पाकिस्तानपरस्त नेताओं के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी मिला और उसके पहले अटल बिहारी वाजपेयी से भी। वाजपेयी सरकार के समय उसे पासपोर्ट भी मुहैया करा दिया गया। इसके बाद वह अमेरिका, ब्रिटेन और पाकिस्तान की यात्रा करने लगा। पाकिस्तान जाकर उसने आतंकी सरगना हाफिज सईद के साथ मंच भी साझा किया।

किसी को बताना चाहिए कि जब यासीन मलिक पाकिस्तान से पैसा पा रहा था और उसके इशारे पर कश्मीर में आतंकवाद भी भड़का रहा था, तब फिर उस पर इतनी मेहरबानी क्यों दिखाई जा रही थी? यह भी सामने आना चाहिए कि वे कौन लोग थे, जो यासीन मलिक के काले अतीत से परिचित होते हुए भी उसे शांति का मसीहा बताने में लगे हुए थे? ऐसा करने वालों ने केवल एक आतंकी का महिमामंडन ही नहीं किया, बल्कि कश्मीर समस्या को जटिल भी बनाया और उन तत्वों को प्रोत्साहन दिया, जो कश्मीर की आजादी का राग अलाप रहे थे। यह अच्छा हुआ कि एनआइए अदालत ने यह पाया कि हुर्रियत कांफ्रेंस और तहरीक ए हुर्रियत जैसे संगठनों को आतंकी गिरोह मानने के पर्याप्त प्रमाण हैं। क्या यह शर्मनाक नहीं कि ऐसे संगठनों को खुद हमारी सरकारों ने वैधता प्रदान की और यह माहौल बनाया कि वे कश्मीर समस्या के समाधान में सहायक बन सकते हैं? कश्मीर की समस्या उसी समय शुरू हो गई थी, जब आजादी के बाद पाकिस्तानी सेना ने कबाइलियों के भेष में घाटी में हमला बोला। इस हमले में पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर का कुछ हिस्सा हथिया लिया, क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सेना की सलाह के विपरीत युद्धविराम कर दिया और मामले को संयुक्त राष्ट्र ले गए। वहां यह मामला उलझ गया। इसके बाद नेहरू ने जम्मू कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 बनाकर उसे कुछ विशेष अधिकार दे दिए। यही विशेषाधिकार अलगाव और फिर आतंक का कारण बने। इन्हीं विशेषाधिकारों के कारण पाकिस्तान को कश्मीर में हस्तक्षेप करने का मौका मिला और उसने वहां आतंकी जत्थे भेजने शुरू कर दिए। यह सिलसिला अभी भी कायम है।

कश्मीर के हालात बदलने तब शुरू हुए, जब 2014 में नरेन्द्र मोदी ने केंद्र की सत्ता संभाली। पाकिस्तान ने जब-जब कश्मीर में कोई नापाक हरकत की, तब-तब भारत ने उसे सबक सिखाया-पहले सर्जिकल स्ट्राइक के जरिये और फिर एयर स्ट्राइक के जरिये। अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 और 35 ए को हटाने का साहसिक फैसला लिया। मोदी सरकार के कारण ही यासीन मलिक की गिरफ्तारी हुई और उसे सजा मिली, लेकिन अभी उसके जैसे न जाने कितने लोगों के खिलाफ कार्रवाई होनी बाकी है। आखिर क्या कारण है कि शब्बीर शाह, मसर्रत आलम, इंजीनियर रशीद, जहूर अहमद शाह वटाली जैसे पाकिस्तान के एजेंटों अथवा बिट्टा कराटे सरीखे आतंकियों के खिलाफ चल रहे मामले तेजी नहीं पकड़ रहे हैं और वह भी तब जब उन पर देश के खिलाफ युद्ध छेडऩे और आतंकियों की मदद करने के गंभीर आरोप हैं? इस सवाल के लिए जांच एजेंसियां भी जिम्मेदार हैं और न्यायपालिका की सुस्ती भी।

यह तय है कि यासीन मलिक को जो सजा सुनाई गई, उसे उच्चतर अदालतों में चुनौती दी जाएगी। बेहतर होगा कि उच्चतर अदालतें तत्परता दिखाएं। कश्मीर के राजनीतिक दलों और पाकिस्तान पोषित आतंकी संगठनों को कश्मीर का माहौल खराब करने की इजाजत बिल्कुल नहीं दी जानी चाहिए। ध्यान रहे कि इसकी कोशिश रह-रह कर होती ही रहती है। इसका कारण यह है कि पिछले करीब साढ़े तीन दशकों में यासीन मलिक जैसे आतंकियों और हुर्रियत कांफ्रेंस सरीखे संगठनों और उनसे हमदर्दी रखने वाले दलों ने कश्मीर की फिजाओं में इतना जहर घोल दिया है कि वह आसानी से दूर होने वाला नहीं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कश्मीर में अभी भी आतंकी स्थानीय लोगों के समर्थन से ही अपनी गतिविधियां चला रहे हैं। वे सुरक्षा बलों के साथ गैर-कश्मीरियों और खासकर वहां रह रहे कश्मीरी हिंदुओं को जब-तब निशाना बनाते रहते हैं। इस सिलसिले को देखते हुए इसके आसार नहीं कि कश्मीरी हिंदू हाल-फिलहाल कश्मीर लौट सकेंगे। आशंका तो यह है कि कहीं बचे-खुचे कश्मीरी हिंदू भी घाटी न छोड़ दें। ऐसे में यह मानना सही नहीं होगा कि यासीन मलिक को सजा सुना दिए जाने भर से कश्मीर के हालात बदल जाएंगे। हालात बदलने के लिए अभी बहुत कुछ करना होगा। कश्मीर में जो कुछ करना शेष है, उसे पूरा करके ही वहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सही तरह आगे बढ़ाया जा सकता है।