[ सूर्यकुमार पांडेय ]: बड़े लोगों के खेल भी बड़े होते हैं और उनकी बातें भी, ऐसा मैं दबंगीलाल से मिलकर ही जान पाया। वह हमारे क्षेत्र के एक कुविख्यात खिलाड़ी हैं। उनका असली नाम इतिहास के गर्त में दफन हो चुका है और अब वह पूरे इलाके में दबंगीलाल के नाम से ही पहचाने जाते हैं। दबंगीलाल से मिलकर मैं धन्य हो गया। वह खेलों के इतने शौकीन हैं कि जहां एक तरफ हमारे क्षेत्र की गिल्ली-डंडा की टीम के आजीवन संरक्षक हैं, वहीं दूसरी ओर महिला वालीबाल टीम को भी अपने कब्जे में लेने की खातिर नजरें गड़ाए हुए हैं। उनको इसका पूर्ण विश्वास है कि एक-न-एक दिन सफलता उनके चरणों में लोटती मिलेगी, उसी तरह जिस तरह जब उन्होंने स्थानीय स्टेडियम पर कृपादृष्टि डाली थी तो उसका जीर्णोद्धार करके ही माने थे। इसी के चलते आज उस स्टेडियम के पड़ोस में उनके द्वारा संचालित निजी स्कूल के विद्यार्थियों को एक क्रीड़ागाह हासिल हो गया है।

हमारे प्रथम मिलन में ही दबंगीलाल ने मुझे बताया कि अपने विद्यार्थी काल में जब वह हाकी खेला करते थे, तब स्टिक का उपयोग दूसरे पक्ष की टंगड़ियां तोड़ने में करते थे। और जब क्रिकेट के बैट को हाथ लगाया था तो मुहल्ले की खिड़कियों के इतने कांच तोड़े कि लोगों ने वहां पर दीवारें उठवा लीं। उनमें अंतरराष्ट्रीय स्तर का प्लेयर होने की ताकत थी, मगर लोकल राजनीति ने उन्हेंं उठने नहीं दिया। फिर भी स्थानीय स्तर पर ही सही, वह रिकार्ड और कमाई के मोर्चे पर किसी भी खिलाड़ी से उन्नीस नहीं बैठेंगे। जब वेल्थ की चर्चा आ ही गई तो दबंगीलाल की बातों का कामनवेल्थ गेम्स से होते हुए ओलिंपिक में अपने देश के प्रदर्शन पर आ जाना स्वाभाविक था। वह कहने लगे, ‘हाय हम न हुए वहां, वरना दुनिया वालों को समझा आते कि असली खेल क्या होता है? हमसे बड़ा एथलीट कौन होगा? होललाइफ भागादौड़ी में ही गुजरी है। हम अपने जमाने के ऐसे फर्राटा धावक रहे हैं कि कई राज्यों की पुलिस पार्टियां हमारे पीछे भागती रहीं, पर हमसे सोना नहीं छीन सकीं।’

मुझे पूछना पड़ा, ‘वाकई आप इस लेबल के खिलाड़ी रहे हैं!’ दबंगीलाल अपनी हंसी के स्विमिंगपूल में गोता मारते हुए मुझे समझाने लगे, ‘आज के तैराक तो हमारे सामने कल के छोकरे हैं। हमने अपने टाइम में ऐसी-ऐसी गोताखोरियां की हैं कि तरणताल का सारा पानी सोख गए। हमने इद्दी-पिद्दी खेलों में कभी कोई इंटरेस्ट नहीं रखा। हमने हमेशा वही गेम खेला जिसमें अपने लिए कम-से-कम एक-दो किलो सोने का इंतजाम हो सके।’ मैंने दबंगीलाल से सवाल किया, ‘क्या कभी आपकी तीरंदाजी में भी रुचि रही है?’ उन्होंने शतरंजिया स्माइल मारी, ‘तीरंदाजी की छोड़ो, पूरे चौबीस कैरेट के शूटर रहे हैं हम। आज हमारे खिलाड़ी एक स्वर्ण, रजत या कांस्य पदक लाते हैं तो पूरा देश उन्हेंं सिर-आंखों पर बिठा लेता है।’ इसके बाद वह फिर अपनी पर उतर आए और बोले, ‘लेकिन यार ये बच्चे कितना सोना ला पाते होंगे?’ मैंने कहा, ‘वह मात्र सोना नहीं होता। उसमें अपने देश का सम्मान भी भरा होता है। हमारे ओलिंपिक के विजेता खिलाड़ी संपूर्ण राष्ट्र का गौरव होते हैं।’ वह मेरी ही बाल मेरी ही कोर्ट में उछालते हुए बोले, ‘तो क्या हम राष्ट्र-गौरव नहीं हैं? ओवरएज हो गए हैं, अन्यथा हम भी अपनी जवानी में शातिर शूटर रहे हैं। चाहो तो पुलिस के पुराने रिकार्ड से वेरिफाई करा सकते हो।’ इसके बाद वह अपनी लफ्फाजी का हैवीवेट मुक्का तानते हुए कहने लगे, ‘किसी से उन्नीस मत समझना हमको। हम अब भी अंधेरे में तीरंदाजी कर सकते हैं और अपना पुराना घूंसेबाजी का शौक आज भी बरकरार है। कल ही दो लोगों के जबड़े तोड़े हैं। हफ्ता-पंद्रह दिन में अपने प्रतिद्वंद्वियों को उनके ही अखाड़े में धूल न चटाएं तो पानी तक हजम नहीं होता है।’

दबंगीलाल के हाथों की खुजली और जिम्नास्टिकिया फ्री स्टाइल देखकर मैंने मन ही मन सोचा, अब शेष उपलब्धियों की जानकारियों के लिए इनका भी डोपिंग टेस्ट कराया जाना निहायत जरूरी है, क्योंकि ऐसे महान लोग यूं ही महान नहीं हो जाते हैं, इसके पीछे उनकी बरसों की नेटप्रैक्टिस की भूमिका भी मायने रखती है।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]