[अवधेश कुमार]। अयोध्या जैसा पुराना विवाद यदि बातचीत से सुलझ जाए तो भारत की सामाजिक एकता के लिए इससे अच्छा कुछ हो ही नहीं सकता। इस नाते उच्चतम न्यायालय का नया प्रयास स्वागतयोग्य है। न्यायालय ने मध्यस्थ पैनल में जिन तीन सदस्यों को नामित किया है वे सभी सम्माननीय एवं अनुभवी हैं। न्यायमूर्ति फकीर मोहम्मद कलीफुल्ला उच्चतम न्यायालय के सम्मानित न्यायाधीश रहे हैं। वे जुलाई 2016 में सेवानिवृत्त हुए। श्रीश्री रविशंकर को इस मामले में वार्ता करने का अनुभव है। वरिष्ठ वकील श्रीराम पंचू मध्यस्थता कर मुकदमे सुलझाने के लिए जाने जाते हैं।

पंचू ने देश के अलग-अलग हिस्सों में व्यावसायिक, कॉरपोरेट और अन्य क्षेत्रों से जुड़े कई बड़े और जटिल विवादों में मध्यस्थता किया है। असम और नगालैंड के बीच 500 किलोमीटर भूभाग का मामला सुलझाने के लिए उन्हें मध्यस्थ नियुक्त किया गया था। मध्यस्थता का उनका अनुभव अवश्य काम आएगा। पूरा देश मध्यस्थ पैनल की सफलता की कामना कर रहा है। चूंकि न्यायालय द्वारा इसकी समय सीमा आठ सप्ताह तय की गई है इसलिए बातचीत को तीव्र गति से चलाकर उसे तार्किक परिणति तक ले जाने की कोशिश होगी, ऐसी उम्मीद है।

बातचीत का इतिहास

दुनिया का ऐसा कोई मामला नहीं जिसे बातचीत से न सुलझाया जाए। हां, इसके लिए संकल्प, ईमानदारी, इच्छाशक्ति तथा अथॉरिटी होनी चाहिए। किंतु अयोध्या मामले में बातचीत के अब तक के सारे प्रयास केवल समय खाने वाले ही साबित हुए हैं। राजीव गांधी से लेकर विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, पीवी नरसिम्हा राव तथा अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में दोनों पक्ष के बीच बातचीत का इतिहास पूरी तरह निराशाजनक है। चंद्रशेखर के काल में बातचीत का सबसे गंभीर प्रयास हुआ और पीवी नरसिम्हा राव काल में भी यह जारी रहा।

अटलबिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री कार्यालय में ही एक अयोध्या प्रकोष्ठ गठित कर बातचीत को वैधानिक रूप दिया। कांची काममोटि पीठ के तत्कालीन शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती सहित अनेक साधु सतों को लगाया गया। सरकार के प्रतिनिधियों ने अनेक प्रमुख मुस्लिम नेताओं से संपर्क कर उसमें शामिल किया, बाबरी मस्जिद के पैरोकारों से भी संवाद किया गया। परिणाम कुछ नहीं निकला। इस पृष्ठभूमि को देखते हुए हम उत्साहित नहीं हो सकते। हालांकि उच्चतम न्यायालय के ढांचे में बातचीत पहली बार हो रही है। इस नाते इसका महत्व बढ़ जाता है। इसमें दो लोग कानून के जानकार और अनुभवी हैं।

विवाद से बचाने की कोशिश

न्यायालय ने बातचीत को विवाद और बवंडर से बचाने के लिए पूरी सतर्कता भी बरती है। वास्तव में इसमें वातावरण को सामान्य बनाए रखने तथा कौन क्या बोल रहा है इसे सार्वजनिक न करने की व्यवस्था की गई है। बातचीत में सबसे बड़ी समस्या मीडिया में उसके अंश बाहर आने से पैदा होती है। इसलिए पूरी बातचीत को मीडिया से दूर रखने की व्यवस्था बिल्कुल सही और व्यावहारिक है। ऐसे मामलों में आप अंदर क्या बात कर रहे हैं इसके सार्वजनिक होने के भय से प्राय: लोग वही बोलते हैं जिनसे उन पर कोई प्रश्न न उठे या उनके सामने सफाई देने की नौबत न आए। पहले दोनों पक्षों के लोग वार्ता के कुछ अंश लीक कर देते थे। उसका असर बातचीत पर हमेशा नकारात्मक होता था।

इस बार ऐसा नहीं होगा। हां, न्यायालय ने पूरी बातचीत की वीडियो रिकॉर्डिंग की व्यवस्था की है ताकि फैसला देते समय उनका उल्लेख किया जा सके। तीन सदस्यीय पैनल को इस बात की छूट होगी कि वे आवश्यकता महसूस करने पर अन्यों को भी इसमें शामिल कर सकते हैं। तो पैनल को स्वतंत्रता से काम करने तथा मीडिया के कारण पैदा होने वाले विवाद से दूर रखकर इसे परिणाम तक पहुंचाने का आधार न्यायालय ने दे दिया है। चूंकि चार सप्ताह में पैनल को आरंभिक रिपोर्ट देनी है इसलिए न्यायालय को इसकी प्रगति का भी आभास हो जाएगा। इसमें समय सीमा बढ़ाने की बात है, लेकिन न्यायालय के तेवर को देखते हुए साफ लगता है कि वह ऐसा तभी करेगा जब उसे वाकई सकारात्मक प्रगति दिखेगी। इसलिए यह मानना गलत होगा कि वार्ता के नाम पर इसे लंबा खिंचा जाएगा।

बावजूद इसके जब तक कुछ ठोस प्रगति न हो, यह मानना मुश्किल है कि बातचीत सहमति से समाधान का रास्ता प्रशस्त कर देगा। श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद का मध्यस्थता के माध्यम से सर्वमान्य समाधान खोजने का सुझाव उच्चतम न्यायालय ने मार्च, 2017 में भी दिया था। तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर, न्यायमूर्ति धनंजय वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने 21 मार्च, 2017 को कहा था कि सभी पक्षकारों को नए सिरे से अयोध्या मंदिर विवाद का सर्वमान्य हल खोजने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि यह बहुत संवेदनशील मामला है।

पीठ ने कहा था कि न्यायालय के आदेश को मानने के लिए संबंधित पक्ष बाध्य होंगे, लेकिन ऐसे संवेदनेशील मुद्दों का सबसे अच्छा हल बातचीत से निकल सकता है। न्यायमूर्ति खेहर ने तो यहां तक कहा था कि अगर पक्षकार चाहते हैं कि मैं इस मामले में मध्यस्थता करूं तो मैं तैयार हूं। उन्होंने यह भी कहा कि अगर पक्षकार यह चाहते हैं कि कोई दूसरा वर्तमान न्यायाधीश इस मामले में प्रधान मध्यस्थ बने तो वह उसे उपलब्ध कराने के लिए तैयार हैं। उन्होंने यह भी कहा कि अगर जरूरत पड़ी तो वह इस मुद्दे को हल करने के लिए प्रधान मध्यस्थ चुन सकते हैं। यह सब सुनवाई के रिकॉर्ड में मौजूद है। इससे बेहतर प्रस्ताव और क्या हो सकता था? लेकिन हुआ क्या?

पहले विरोध अब स्वीकार्य

न्यायालय की टिप्पणी के तुरंत बाद बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी ने कह दिया कि बातचीत व्यर्थ है। इससे कुछ नहीं होने वाला। ध्यान रखिए, जिलानी मामले में सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील भी हैं। बाद में सुन्नी वक्फ बोर्ड, बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी आदि ने स्पष्ट शब्दों में बयान दिया कि वे अब बातचीत करना नहीं चाहते, केवल न्यायालय का फैसला मानेंगे। इसलिए न्यायालय सुनवाई कर फैसला दे। नौ जनवरी, 2018 को ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने हैदराबाद बैठक में बाकायदा प्रस्ताव पारित किया कि बाबरी मस्जिद मामले में वह किसी तरह की बातचीत में शामिल नहीं होगा। बोर्ड के एक प्रमुख और सम्मानित सदस्य ने बैठक के पहले यह प्रस्ताव दिया था कि इसके समाधान के लिए हमें उस स्थल को हिंदुओं को सौंप देना चाहिए। बोर्ड ने उनके प्रस्ताव को केवल खारिज ही नहीं किया, उनके खिलाफ कार्रवाई भी की।

पर्सनल लॉ बोर्ड में वे लोग हैं जो बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और सुन्नी वक्फ बोर्ड में भी हैं। ध्यान रखिए बोर्ड का यह कोई नया रुख नहीं है। 1990 से उसका यही रुख रहा है। श्रीश्री रविशंकर की बातचीत की पहल में जो आए उनका इन लोगों ने विरोध किया, उस बातचीत का उपहास भी उड़ाया। अगर हम पीछे लौटें तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 30 सितंबर, 2010 को अपना फैसला सुनाने के पहले भी कहा था कि आप लोग आपस में मिलकर किसी नतीजे पर पहुंचने की कोशिश करें। अगर कोई समझौता हो जाता है तो उसे लेकर आएं। न्यायालय का कहना था कि फैसला लिखने में समय लगेगा। इस बीच यदि आप लोगों के बीच आपसी सहमति हो जाए तो हम उसे स्वीकार करेंगे, लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ।

सुनवाई टालने की कोशिश तो नहीं

उच्चतम न्यायालय के सामने ये सारे वाकये हैं। इसके बावजूद उसकी टिप्पणी है कि यदि एक प्रतिशत भी संभावना हो तो बातचीत की कोशिश होनी चाहिए। हालांकि इस समय स्थिति उलट है। जो बाबरी पक्ष खुलेआम बातचीत को व्यर्थ बता रहा था आज वह इसके पक्ष में है और श्रीराम मंदिर के पक्षकार बातचीत में शामिल हो रहे थे वे विरोध में आ गए। यह बात अलग है कि अंतत: सबने बातचीत में शामिल होना स्वीकार किया, लेकिन बेमन से। अगर बाबरी पक्ष ने अचानक अपना स्टैंड बदला है तो इसके कुछ कारण होंगे। क्या हो सकता है? ऐसा लगता है कि उन्होंने रणनीति के तहत ऐसा रुख अपनाया है।

हम 2011 से देख रहे हैं कि बाबरी पक्ष मामले को किसी न किसी बहाने लंबा खींचने की रणनीति पर काम कर रहा है। पहले अनुवाद के नाम पर लटकाया गया। उत्तर प्रदेश सरकार ने सारे संबंधित दस्तावेजों का अनुवाद कराकर उच्चतम न्यायालय में जमा करा दिया। अभी भी ये कह रहे हैं कि सारे दस्तावेजों का अनुवाद नहीं हुआ है। हालांकि न्यायालय ने कह दिया है कि इसके लिए अब वे कार्रवाई नहीं रोकेंगे। फिर मस्जिद नमाज और इस्लाम का अनिवार्य अंग है या नहीं इससे संबंधित 1994 के फैसले पर पुनर्विचार की मांग हुई। उसमें समय लगा।

जब पीठ गठित हुई तो उसमें शामिल एक न्यायाधीश के अधिवक्ता के रूप में कल्याण सिंह की ओर से पेश होने का प्रश्न उठाया गया। अंतत: संबंधित न्यायाधीश ने मुकदमे से अपने को अलग किया। ऐसे दांव-पेच न्यायालय में लगातार चल रहे हैं। एक कोशिश किसी तरह सुनवाई को लोकसभा चुनाव तक टालने की रही है। अगर इसी दांव-पेच के तहत वार्ता में भागीदारी की सहमति दी गई है तो यह दुखद है। मध्यस्थों के पास बातचीत में शामिल लोगों के इरादे भांपने की समझ है। किंतु वे जबरन किसी को तैयार नहीं कर सकते। इसमें लोकसभा चुनाव निकल जाएगा। हां, इससे उच्चतम न्यायालय के सामने स्पष्ट हो जाएगा कि बातचीत से समाधान की कोई संभावना नहीं है और इसके बाद वह फिर तथ्यों और साक्ष्यों के आधार पर न्यायिक कार्रवाई को आगे बढ़ाएगा।

अब मध्यस्थों की अग्निपरीक्षा

अब जब सर्वोच्च अदालत ने अवसर दे दिया है तब उचित है कि बातचीत के जरिये अयोध्या मामले को सुलझा लिया जाए, पर कुछ सियासी जमात और मजहबी संगठन नहीं चाहते हैं कि इस मसले का हल बातचीत के जरिये निकले। मतलब साफ है कि उनकी नियति मामले को उलझाए रखने की ही है। पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर सर्वमान्य सहमति न जताकर, फिर सर्वोच्च न्यायालय के सुझाव की अनदेखी कर और अब फिर सर्वोच्च न्यायालय के सुझाव पर सहमति जताकर वे एक किस्म से अपने दोहरे आचरण का प्रदर्शन कर रहे हैं। यह ठीक नहीं है। उन्हें समझना होगा कि राम भारतीय जनमानस के आराध्य हैं। भारतीय संस्कृति के संवाहक हैं। राम के बिना राष्ट्र का वजूद नहीं है। जब राम के ही जन्मस्थली अयोध्या में उनका मंदिर नहीं बनेगा तो फिर कहां बनेगा?

नि:संदेह भारत एक लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष राज्य है। न्यायालय का फैसला सर्वोपरि है, लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि अगर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला राममंदिर के पक्ष में आता है तो दूसरे पक्ष द्वारा उसका विरोध नहीं किया जाएगा? इस बात की भी क्या गारंटी है कि आस्था और कानून का घालमेल करने वाले तथाकथित सेक्युलर सियासतदां और मजहबी संगठन अपने पूर्वाग्रहों से लैस नजर नहीं आएंगे? देखना दिलचस्प होगा कि मध्यस्थता समूह हल खोजने की अग्निपरीक्षा से कैसे पार पाता है।