[ ए. सूर्यप्रकाश ]: अयोध्या में रामजन्मभूमि के विवादित मसले को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने हाल में तीन मध्यस्थ नियुक्त किए हैं। इस मसले से जुड़े पक्षों के लिए अदालत से बाहर कोई स्वीकार्य समाधान निकालने के लिहाज से इसे एक अंतिम अवसर माना जा रहा है। यह एक ऐसा मसला है जो सामाजिक सौहार्द के लिए लंबे अर्से से एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। मध्यस्थता की यह कवायद अदालत द्वारा आरंभ से की गई है जिसकी निगरानी भी अदालत ही करेगी। इसमें पूरी गोपनीयता बरती जाएगी और मीडिया को भी इसकी रिपोर्टिंग की अनुमति नहीं है।

मध्यस्थता का विचार नया नहीं है

रामजन्मभूमि मामले को मध्यस्थता के माध्यम से सुलझाने का विचार कोई नया नहीं है। दो साल पहले मार्च 2017 में ही सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेएस खेहर ने भी आपसी बातचीत से मसला सुलझाने का सुझाव देते हुए खुद मध्यस्थ बनने की पेशकश की थी। हालांकि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के एतराज की वजह से वह प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ पाया। इस बार विरोध के वैसे स्वर नहीं सुनाई पड़े तो शायद इसकी एक वजह अदालत का वह रवैया भी है जिसमें उसने सभी पक्षों को वार्ता के लिए तैयार किया।

अधिग्रहण को चुनौती

रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद से जुड़ा पूरा घटनाक्रम बहुत दुखदायी रहा है, लेकिन बीते कुछ वक्त में इस मोर्चे पर उल्लेखनीय प्रगति देखने को मिली है। पहला पड़ाव तो अक्टूबर, 1994 में डॉ. एम इस्माइल फारूकी और अन्य बनाम भारत संघ मामले में आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला था। इस मामले में अयोध्या अधिनियम, 1993 में कुछ क्षेत्रों के अधिग्रहण की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। अदालत ने अधिनियम को तो बरकरार रखा, लेकिन उसकी धारा 4(3) को अवैध करार दिया। इस फैसले का नतीजा यह हुआ कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के समक्ष लंबित सभी याचिकाओं में एक तरह से नई जान पड़ गई।

संप्रभु गारंटी

इस मामले में भारत सरकार द्वारा सितंबर, 1994 में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दी गई संप्रभु गारंटी दूसरा मील का बड़ा पत्थर है। उसमें सरकार ने कहा था कि अगर यह सिद्ध हो जाता है कि विवादित स्थल पर मस्जिद से पहले मंदिर का अस्तित्व था तो वह इस स्थान को हिंदुओं को सौंप देगी। तब सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत प्रेसिडेंशियल रेफरेंस का सहारा लिया। उसमें सुप्रीम कोर्ट से पूछा गया कि क्या विवादित स्थल पर पहले कभी कोई हिंदू मंदिर या हिंदुओं से जुड़े धार्मिक ढांचे का अस्तित्व था? प्रेसिडेंशियल रेफरेंस में यह भी कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट से राय लेने के बाद सरकार ने विवाद को सुलझाने का एक प्रस्ताव रखा है। इस पर कुछ मुस्लिम पक्षकारों ने कहा कि रेफरेंस की कवायद से कुछ हासिल नहीं होगा। इस पर अदालत ने सॉलिसिटर जनरल से जवाब तलब किया।

राम मंदिर बनाम मस्जिद

सॉलिसिटर जनरल ने सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में लिखित प्रतिवेदन में जो कहा वह काफी महत्वपूर्ण है। उसमें सरकार ने कहा कि वह राम मंदिर और मस्जिद बनाने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन वे किन स्थानों पर बनेंगे, इसका निर्धारण प्रेसिडेंशियल रेफरेंस में सुप्रीम कोर्ट की राय से होगा। उस प्रतिवेदन में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष कुछ प्रतिबद्धताएं जतार्ईं। उनमें एक यह भी थी कि वह प्रेसिडेंशियल रेफरेंस में सुप्रीम कोर्ट के निष्कर्ष को एक निर्णय की तरह लेगी जो अंतिम एवं बाध्यकारी होगा। अदालती राय के अनुरूप ही सरकार बातचीत के माध्यम से समाधान तलाशने का प्रयास करेगी।

हिंदू मंदिर या ढांचा

यदि वार्ता से भी समाधान संभव नहीं हुआ तो वह अदालत की राय के अनुसार कोई बाध्यकारी विकल्प लागू करेगी। इसमें आगे कहा गया था, ‘यदि इसका सकारात्मक यानी यह जवाब हुआ कि गिराए गए ढांचे से पहले वहां हिंदू मंदिर या ढांचा था तब सरकार हिंदू समुदाय के पक्ष में फैसला करेगी। दूसरी ओर यदि इसका नकारात्मक यानी यह जवाब हुआ कि वहां कोई हिंदू मंदिर या ढांचा नहीं था तब मुस्लिम समुदाय के पक्ष को ध्यान में रखकर फैसला करेगी।’ आखिर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह सवाल क्यों किया?

अयोध्या विवाद

अयोध्या ढांचे के ध्वंस के बाद सरकार द्वारा जारी श्वेत पत्र से उक्त सवाल का कुछ अंदाजा मिलता है। उसमें कहा गया था कि एक सौहार्दपूर्ण समझौते के लिए बातचीत के दौरान सबसे पहला सवाल यही आया कि क्या वहां हिंदू मंदिर था और क्या मस्जिद बनाने के लिए उसे तोड़ा गया था? मुस्लिम संगठनों ने दावा किया कि इसे साबित करने के लिए कोई साक्ष्य नहीं हैं। मुस्लिम नेताओं ने यह भी कहा कि अगर ऐसा साबित हो जाता है तो मुसलमान खुद विवादित स्थल को स्वैच्छिक रूप से हिंदुओं को सौंप देंगे। सुप्रीम कोर्ट ने इसका जवाब देने से इन्कार कर दिया। अक्टूबर 1994 में फारूकी मामले में फैसला सुनाने वाली पांच सदस्यीय पीठ ने साथ ही साथ प्रेसिडेंशिल रेफरेंस का भी निपटारा कर दिया। उसने कहा कि ‘रेफरेंस निरर्थक और अनावश्यक था जिसके जवाब की आवश्यकता नहीं।’ हालांकि इस मामले में जवाब तलाश रही केंद्र सरकार को इससे तो कुछ हासिल नहीं हुआ, लेकिन इसके कारण इलाहाबाद हाईकोर्ट के समक्ष लंबित याचिकाओं के निपटारे में जरूर कुछ मदद मिली।

सुप्रीम कोर्ट ने लगाई रोक

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यानी एएसआइ को निर्देश दिया कि वह विवादित स्थल पर उत्खनन करके पता लगाए कि आखिर वहां क्या मौजूद था? व्यापक खोदाई के बाद एएसआइ ने अदालत को बताया कि वहां कई ऐसे साक्ष्य सामने आए हैं जो उत्तर भारतीय मंदिरों की शैली से मेल खाते हैं। इन निष्कर्षों के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ के तीनों न्यायाधीशों ने फैसला सुनाया कि विवादित ढांचे के नीचे एक मंदिर मौजूद था। इस विवाद से जुड़े तमाम पक्षकारों ने इसे चुनौती दी और उनकी आपत्तियों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले पर रोक लगा दी।

मध्यस्थता की राह

अदालतों द्वारा मध्यस्थता की राह दिखाना कोई नया चलन नहीं है। दीवानी मामलों में अक्सर अदालत मध्यस्थता का सुझाव देती हैं, क्योंकि इसके माध्यम से कोई विजेता या पराजित महसूस नहीं करता। हालांकि जब इससे बात नहीं बनती तब अदालत को किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए सुनवाई करनी पड़ती है जो विवाद से जुड़े सभी पक्षों को संतुष्ट नही कर पाती। केंद्र सरकार पहले भी बातचीत के जरिये समाधान के लिए प्रयास कर चुकी है। यहां तक कि प्रेसिडेंशियल रेफरेंस का विकल्प भी चुना। हालांकि अदालत ने उसका उत्तर देने से इन्कार कर दिया, लेकिन इस मामले में श्वेत पत्र की टिप्पणियां और इलाहाबाद हाईकोर्ट के समक्ष एएसआइ की ठोस रिपोर्ट की अनदेखी नहीं की जा सकती।

एक मौका अवश्य दें

सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त तीनों मध्यस्थों जस्टिस फकीर इब्राहिम कलिफुल्ला, श्रीश्री रविशंकर और श्रीराम पंचू जब इस दिशा में किसी स्वीकार्य समाधान पर विमर्श करेंगे तो पूरी सामग्री उनके समक्ष होगी। इस विवाद से जुड़े सभी पक्षों को आपसी समझबूझ से इसका समाधान निकालने के लिए बिना किसी हिचक के इस प्रक्रिया में शामिल होना चाहिए। उन्हें मध्यस्थों को एक मौका अवश्य देना चाहिए।

( लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )