[ मनोज जोशी ]: भारत ने पिछले एशियाई खेलों में 11 स्वर्ण सहित कुल 57 पदक हासिल किए थे। हाल के समय में विभिन्न खेलों में भारत का जैसा प्रदर्शन रहा है उसे देखते हुए अगर यह संख्या इस बार बढ़ जाए तो आश्चर्य नहीं होगा, मगर यह तस्वीर का एक पहलू भर है। दूसरा पहलू यह है कि जहां राष्ट्रमंडल खेलों में कुछ स्पर्धाओं में कड़ी प्रतियोगिता के अभाव में भारत ने खूब वाहवाही लूटी, वहीं एशियाई खेलों में कई ऐसे खेल हैं जहां भारत को आज तक एक भी पदक नसीब नहीं हो सका है। जिन खेलों में भारत को खूब पदक मिले हैं उनमें से अधिकांश स्पर्धाएं या तो ओलंपिक खेल नहीं हैं या फिर उन खेलों में चीन अपने प्रमुख खिलाड़ियों को नहीं उतारता। ऐसे खेलों में स्वर्ण जीतने वाले खिलाड़ी विश्व स्तर पर या ओलंपिक स्पर्धाओं में औंधे मुंह गिरते दिखाई देते हैं। एशियाई खेलों में भारत को आज तक टेबल टेनिस, बास्केटबॉल, हैंडबॉल, बीच वॉलीबॉल और महिलाओं में वाटरपोलो, वॉलीबॉल और फुटबॉल में कांसे का तमगा भी नहीं मिल सका है।

इतना ही नहीं, जिस बैडमिंटन को इन दिनों देश का नंबर एक खेल कहा जाने लगा है, उसमें भारत को आज तक न स्वर्ण पदक नसीब हुआ और न ही रजत पदक। इस खेल में पिछली बार मिले एकमात्र कांस्य पदक के लिए हमें 28 साल इंतजार करना पड़ा। साइक्लिंग और गोताखोरी में भारत को कांसे का पदक जीते 67 साल हो चुके हैं जबकि वेटलिफ्टिंग में 20 साल। इसी तरह इन खेलों के 44 साल के जिम्नास्टिक इतिहास में भारत को अब तक इकलौता कांसा ही मिल पाया है और फुटबॉल में भी पिछले 48 वर्षों से पदक का सूखा पड़ा हुआ है। यह सूखा अभी और आगे बढ़ेगा, क्योंकि भारत ने इस बार अपने दल को इन खेलों में नहीं भेजा है। वॉलीबॉल की पुरुष टीम भी आज तक स्वर्ण पदक का मुंह नहीं देख पाई है वहीं महिला हॉकी टीम को भी स्वर्ण पदक जीते 36 साल हो चुके हैं। यह हालत तब है जबकि बैडमिंटन में भारत के पास पीवी सिंधू और साइना नेहवाल के रूप में दो ओलंपिक पदक विजेता और किदांबी श्रीकांत के रूप में पूर्व नंबर एक खिलाड़ी मौजूद हैं।

वहीं टेबल टेनिस में मणिका बत्रा जैसी धाकड़ मौजूद हैं जो राष्ट्रमंडल खेलों में दो स्वर्ण सहित कुल चार पदक जीतकर तहलका मचा चुकी हैं। इसी तरह जिस वेटलिफ्टिंग में विश्व चैंपियन मीराबाई चानू से लेकर 18 साल पहले ओलंपिक पदक जीतने वाली कर्णम मल्लेश्वरी हों वहां भी पिछले 20 साल से पदक नहीं मिला है। सच यह है कि हम एशियाई खेलों में उन स्पर्धाओं में चमके हैं जो या तो ओलंपिक में शामिल नहीं हैं या फिर जिनकी गिनती दुनिया के प्रतिष्ठित खेलों या स्पर्धाओं में नहीं होती। बतौर उदाहरण कबड्डी में भारत ने आज तक एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक नहीं गंवाया है। न पुरुषों में और न ही महिलाओं में। मगर यह खेल ओलंपिक से अभी कोसों दूर है। शतरंज में कोनेरू हंपी अब तक वैयक्तिक और टीम दोनों स्पर्धाओं में भारत को स्वर्ण पदक दिला चुकी हैं, लेकिन इस खेल की पहुंच भी ओलंपिक तक नहीं है।

स्क्वैश में भारत को इंचियोन के पिछले आयोजन में पुरुष टीम इवेंट में स्वर्ण पदक हासिल हुआ था, लेकिन यह खेल अभी ओलंपिक में प्रवेश के लिए संघर्ष कर रहा है। बिलियर्ड्स-स्नूकर में भारत ने पांच स्वर्ण, चार रजत और छह कांस्य पदकों के साथ तहलका मचाया है। इन खेलों में भारत विश्व शक्ति के रूप में उभरकर आया है, लेकिन यह खेल भी ओलंपिक की दहलीज से दूर है। इसी तरह निशानेबाजी में भारत ने अब तक एशियाई खेलों में जो सात स्वर्ण पदक जीते हैं उनमें से अधिकांश स्पर्धाएं ओलंपिक खेल नहीं हैं।

जसपाल राणा ने दो मौकों पर वैयक्तिक और एक मौके पर टीम इवेंट में 25 मीटर सेंटर फायर में स्वर्ण पदक जीते थे, लेकिन ये स्पर्धाएं ओलंपिक में महिलाओं के इवेंट तक ही सीमित हैं। 2006 के दोहा एशियाई खेलों में जसपाल राणा ने जिस स्टैंडर्ड पिस्टल में स्वर्ण हासिल किया वह कभी ओलंपिक का हिस्सा नहीं रही। रोंजन सोढी ने जिस डबल ट्रैप इवेंट में स्वर्ण जीता उसे अब ओलंपिक से हटा दिया गया है।

एथलेटिक्स में भारत को एशियाई खेलों में अब तक 72 स्वर्ण, 77 रजत और 84 कांस्य पदक हासिल हो चुके हैं। हम एशियाई देशों में खासकर चीन को इस खेल में विश्व शक्ति के रूप में उभरते देख चुके हैं। इस लिहाज से तो भारत भी इस खेल में विश्व शक्ति के रूप में दिखना चाहिए, लेकिन सच यह है कि भारत को आज तक इस खेल में एक भी ओलंपिक पदक नहीं मिल सका है।

यहां तक कि विश्व चैंपियनशिप में भी भारत को इतिहास की इकलौती कामयाबी ही मिल पाई है जो अंजू बॉबी जॉर्ज ने 2003 में पेरिस में कांस्य पदक जीतकर दिलाई थी।सवाल यह है कि जब भारत ओलंपिक, विश्व चैंपियनशिप और राष्ट्रमंडल खेलों की एथलेटिक्स स्पर्धा में एक कमजोर कड़ी साबित होता है तो फिर एशियाई खेलों में चीन की मौजूदगी में इतना अच्छा प्रदर्शन कैसे कर लेता है?

सच यह है कि चीन अधिकांश मौकों पर इन खेलों की एथलेटिक्स स्पर्धा में अपने उभरते एथलीटों को ही भेजता रहा है और हम प्रतियोगिता के अभाव में कई-कई स्वर्ण पदक जीतकर अपने प्रदर्शन पर इतराने लगते हैं। एथलेटिक्स की कुछ स्पर्धाओं में चीन के हल्के प्रतिद्वंद्वी उतारने का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि पिछली बार चीन की जिस खिलाड़ी ने महिलाओं की सौ मीटर की फर्राटा स्पर्धा जीती, उसकी टाइमिंग भारतीय राष्ट्रीय रिकॉर्ड से काफी पीछे थे। ऐसी स्थिति में अगर दूती चंद अपने राष्ट्रीय रिकॉर्ड के आसपास भी प्रदर्शन करने में सफल रहीं और प्रतियोगिता का स्तर पिछले साल जैसा ही रहा तो उनका इस प्रतिष्ठित इवेंट में स्वर्ण पदक जीतना पक्का है। एथलेटिक्स के कई फील्ड इवेंट्स और महिलाओं की कम दूरी की स्पर्धाओं में ऐसी ही स्थिति है।

गैर-ओलंपिक स्पर्धाओं और कुछ अन्य स्पर्धाओं में चीन की मेहरबानी के दम पर हमारी जय-जयकार तो हो जाएगी, लेकिन इससे ओलंपिक या विश्व स्तरीय प्रतियोगिताओं में वही कहानी दोहराई जाएगी जो पिछली कई प्रतियोगिताओं से दोहराई जा रही है। जरूरत है अपनी क्षमताओं को विश्व स्तर के करीब ले जाने की। ऐसे भ्रम खेलों का भी नुकसान करते हैं और खिलाड़ियों का भी।

[ लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार एवं कमेंटेटर हैैं ]