पद्मश्री अशोक भगत। वर्तमान महामारी का समय अपने साथ कई अन्य प्रकार की समस्याएं भी लेकर आया है। कोरोना महामारी से बचाव के लिए अमल में लाए गए लॉकडाउन के कारण जीविका को बहुत नुकसान पहुंचा है। इसके संक्रमण से जिंदगी को बचाने के साथ आजीविका के बचे रहने की चुनौती भी है। आजीविका की चुनौती आज बीमारी के संक्रमण से शायद ज्यादा बड़ी हो गई है। देश के बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों को भी इसका समाधान खोजने में पसीने छूट रहे हैं।

पिछले कई दशकों से एक ही ढर्रे पर चल रही अर्थव्यवस्था में व्यावहारिक बदलाव कर पाना बहुत मुश्किल हो रहा है। श्रम, उत्पादन और बाजार के आधार शहरों को हाईवे या एक्सप्रेस हाईवे से जोड़ती अर्थव्यवस्था की कड़ियां अब टूट रही हैं। इसलिए अब इनसे नीचे उतरकर उपयोगिता आधारित अर्थव्यवस्था के विकास से रोजगार और समृद्धि के नए सपनों को पूरा करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि झारखंड के जंगलों की पगडंडियां विकास के इस नए मॉडल के साथ इंतजार कर रही हैं।

विकास भारती की स्थापना के साथ ही धरती रक्षा वाहिनी के प्रयोगों के माध्यम से यह महसूस हुआ कि झारखंड का हर गांव अर्थव्यवस्था की वैकल्पिक धुरी बनने की क्षमता रखता है। बड़ी बात यह कि इसके लिए निवेश और बाजार खोजने की भी जरूरत नहीं है। जंगलों के फल, फूल, पंखुड़ियों, पत्तों, जड़ों और छालों की उपयोगिता को समझ कर प्रकृति को बिना कोई नुकसान पहुंचाए उससे मांगने की आवश्यकता है। एक ओर जहां यह बाहर से भारी-भरकम खर्च पर आने वाले उत्पादों की आवश्यकता को कम कर खर्च की बचत करेगा, वहीं स्थानीय खपत का बाजार भी विकसित करेगा। यहां तक कि प्राकृतिक जीवनशैली को अपनाने की ओर अग्रसर हो रही दुनिया के लिए संसाधन का बड़ा स्रोत भी विकसित करेगा।

औषधीय और सुगंधित पौधों की खेती के जरिये एक से बढ़कर एक सौंदर्य प्रसाधन तैयार किए जा सकते हैं। नींबू घास से शर्बत से लेकर तेल, साबुन और औषधि तक का निर्माण हो सकता है। पामारोजा के पौधे स्वाद एवं गंध उद्योगों से लेकर सौंदर्य को निखारने वाले उत्पादों तक में काम आ सकते हैं। खस की जड़ एवं जड़ के तेल का उपयोग साबुन, शर्बत, पान मसाला और सुगंधित द्रव्यों में किया जाता है। सिट्रोनेला की पत्तियों से मच्छर प्रतिरोधी दवा, साबुन एवं सुंदर दिखने वाली अनेक सामग्रियों को तैयार किया जा सकता है। जापानी पुदीना जिसे मेंथा भी कहा जाता है, उसके तेल से पीपरमेंट बन सकता है। यह दर्दनाशक एवं कीटदंश में बेहद उपयोगी होता है। सुगंधित द्रव्यों एवं पान मसाले में इसका इस्तेमाल किया जाता है।

आज शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने की भी खूब चर्चा हो रही है। इसके लिए तो हमारे जंगलों और गांव से बड़ा संसाधन केंद्र अन्यत्र नहीं हो सकता है। आयुर्वेद के विकास के जरिये भी इस मौके को भुनाने की आवश्यकता है। इससे एक ओर जहां रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास कर स्वास्थ्य पर होने वाले भारी-भरकम खर्च को कम किया जा सकता है, वहीं गांवों में कमाई के अवसर भी बढ़ाए जा सकते हैं। गांवों और जंगलों में औषधि उत्पादन के बड़े केंद्र बनने की क्षमता है। काली तुलसी सर्दी, बुखार, चर्मरोग और मूत्ररोग में रामबाण की तरह काम करता है। मौलसिरी के छाल, फल और बीज का उपयोग मसूड़े एवं दातों के रोग, पेचिस आदि में खूब होता है। मधुर तुलसी यानी स्टीविया के पत्ते का उपयोग इन दिनों बड़े पैमाने पर चीनी के विकल्प के रूप में हो रहा है। इसके उपयोग से मधुमेह के रोगियों को बहुत फायदा होता है।

ब्राह्मी से स्मरण शक्ति बढ़ाने तथा स्वप्नदोष एवं मानसिक बीमारी के निदान की औषधि तैयार की जाती है। इसी तरह ऐसे सैकड़ों पौधे हैं जो गांवों को औषधि और स्वादिष्ट भोजन तैयार करने में मदद करते हैं। इसके लिए जड़ी-बूटी वाले इलाकों में औषधि उत्पादन के क्लस्टर स्थापित करने की आवश्यकता है। इससे जनजातीय समुदाय और स्थानीय ग्रामीणों की आर्थिक हालत भी सुधारी जा सकती है। बंजर जमीन को भी लहलहाया जा सकता है। झारखंड लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी ने इसके सफल प्रयोग किए हैं। आयुष विभाग को स्वास्थ्य विभाग से अलग कर वन विभाग के समन्वय से ऐसे अभियान को और फलदायी बनाया जा सकता है। प्राकृतिक संपदा के धनी हमारे गांवों को औषधि और सौंदर्य प्रसाधन के उत्पादन केंद्र बनाकर विकेंद्रित अर्थव्यवस्था की राह तैयार की जा सकती है। इससे कोरोना जैसी किसी आपदा के आने से माइग्रेशन और रिवर्स माइग्रेशन जैसा संकट पैदा नहीं होगा।

जंगल और गांव की ताकत को सरकार पहचानकर इसके मुताबिक आर्थिक ढांचा तैयार करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाए। सबसे बड़ी बात यह है कि ये तमाम उपक्रम जंगलों के साये में हो सकते हैं। इनसे वनों को कोई नुकसान भी नहीं है, क्योंकि इनमें से बहुत सारे पौधे ऐसे हैं जिनका उत्पादन बड़े वृक्षों के छाया तले होता है। हमारी आने वाली पीढ़ी इसके जरिये सेहत और संपदा दोनों पा सकती है। कम लागत में तैयार होने वाले उत्पाद हमारे बाजार को भी मजबूती देंगे। आत्मनिर्भर भारत का रास्ता भी यहीं से गुजरता है। समय की मांग है कि हम गांवों तक अर्थव्यवस्था की कथित मुख्य धारा वाली परिधि को विस्तार दें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्थानीय उत्पादों को अधिक से अधिक प्रोत्साहन करने के आह्वान की सार्थकता भी इसी से सिद्ध हो सकती है।

[सचिव, विकास भारती, बिशुनपुर, झारखंड]