विजय क्रांति। लोकसभा चुनाव के समुद्र मंथन में जहां कुछ नेताओं की विषैली टिप्पणियों ने राजनीतिक परिदृश्य को दूषित करने का काम किया तो वहीं जम्मू-कश्मीर से आए समाचारों से इस मंथन में कुछ रत्न और अमृत कलश भी छलक कर बाहर आए। एक समय वह भी था, जब राज्य की राजनीति पर कुंडली मारकर बैठे कुछ परिवारों के नेता गुपकार रोड के बंगलों से देश को धमका रहे थे कि अगर मोदी सरकार ने अनुच्छेद-370 को खत्म करने का प्रयास भी किया तो कश्मीर की जनता उठ खड़ी होगी और पूरे राज्य में खून के दरिया बहने लगेंगे।

यह बात अलग है कि अगस्त 2019 में जब मोदी सरकार ने अनुच्छेद-370 और 35-ए का सफाया कर दिया तब ऐसा कुछ नहीं हुआ। पूरी दुनिया ने देखा कि इतने बड़े बदलाव के बाद भी कश्मीर में न तो किसी ने पत्थर फेंके और न कोई हड़ताल हुई। अब अनुच्छेद-370 के हटने के पांच साल बाद हो रहे पहले लोकसभा चुनाव में कश्मीर घाटी की जनता ने मतदान में जिस प्रकार पूरे उत्साह से बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, उसने पूरी दुनिया को चौंका दिया।

पिछली सदी के आखिरी दशक में इसी जम्मू-कश्मीर में चुनावों के दौरान यह भी देखने को मिला था कि श्रीनगर के एक पोलिंग बूथ के बाहर रखे एक कलर टीवी के साथ आतंकवादियों का एक पोस्टर लगा था जिस पर लिखा था, ‘इस बूथ पर पहला वोट डालने की हिम्मत दिखाने वाले वोटर को यह टीवी इनाम में मिलेगा।’ जबकि इस बार के चुनाव में अलगाववादियों की ‘राजधानी’ बन चुके श्रीनगर में 2019 के 14.4 प्रतिशत के मुकाबले 38.5 प्रतिशत कश्मीरी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का उपयोग किया।

हिंसा की खबरों के केंद्र में रहने वाले अनंतनाग और बारामूला ने 59 प्रतिशत से ज्यादा मतदान कर पिछले 35 साल के रिकार्ड तोड़ डाले और दिल्ली जैसे महानगर से भी बाजी मार ली। इन चुनावों की एक खास बात यह भी रही कि पूरे चुनाव अभियान के दौरान समूची कश्मीर घाटी में न तो चुनाव के बहिष्कार की एक भी अपील जारी हुई और न ऐसा कोई कोई पोस्टर देखने को मिला। पूरी घाटी में एक भी ऐसा बूथ नहीं था, जिसे ‘जीरो-वोट’ बूथ बताकर भारत-विरोधी कोई नया नैरेटिव गढ़ा जा सकता।

इस बार तो वोटिंग की लंबी कतारों में खड़े लोगों के चेहरों की मुस्कुराहटों और आत्मविश्वास ने दिखा दिया कि अनुच्छेद-370 हटने और लगातार पांच साल की शांति के फल चखने के बाद जनता को समझ आ गया कि अलगाववाद और लोकतंत्र में क्या अंतर है। अनुच्छेद-370 हटने के बाद घाटी में स्थापित हो चुके प्रभावशाली सुरक्षा परिवेश, कानून और व्यवस्था की बहाली, पाकिस्तान समर्थक हुर्रियत की गुंडागर्दी की समाप्ति और हर महीने जारी होने वाले हड़ताल कैलेंडर के शिकंजे से मुक्ति के बाद आम कश्मीरियों को पता चल चुका है कि खून-खराबे और अशांति की उन्होंने और उनके बच्चों ने कितनी बड़ी कीमत चुकाई।

अनुच्छेद-370 की समाप्ति के बाद राज्य के इतिहास में पहली बार कराए गए ब्लाक और जिला स्तर पर हुए चुनावों में स्थानीय नेताओं की भारी सक्रियता ने ही संकेत दे दिया था कि अब जम्मू-कश्मीर की राजनीति अब्दुल्ला और मुफ्ती जैसे परिवारों से पूरी तरह मुक्त होने को आतुर है। लोकसभा चुनावों ने उसी रुझान की पुष्टि की है। चुनाव की बात करें तो श्रीनगर में आठ मान्यता प्राप्त दलों सहित 24 उम्मीदवार मैदान में हैं। बारामूला में आठ पार्टियों समेत 22 और अनंतनाग-राजौरी में 10 पार्टियों समेत 20 उम्मीदवार ताल ठोक कर आम कश्मीरी वोटर से वोट मांगने को उतरे।

आइएनडीआइए का हिस्सा होते हुए भी नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के उम्मीदवार घाटी की तीनों सीटों पर आपस में भिड़े। यह बात भी रोचक है कि कांग्रेस ने नेकां के साथ गठबंधन में उसे घाटी की तीनों सीटें देकर खुद जम्मू और ऊधमपुर सीटों पर लड़ने का फैसला किया। जबकि भाजपा ने घाटी में अपना एक भी उम्मीदवार नहीं उतारा। दुनिया के सबसे बड़े इस्लामी टीवी चैनल और कश्मीरी अलगाववाद का चैंपियन अल-जजीरा इसे घाटी में भाजपा की अलोकप्रियता के प्रमाण के तौर पर पेश करने में लगा था।

हालांकि अल-जजीरा और उसके भारतीय वामपंथी समर्थक यह बात नहीं समझ पा रहे हैं कि घाटी में चुनावी मैदान से बाहर रहकर भाजपा ने कूटनीति का एक बड़ा दांव खेला है। उसने कश्मीर के गुपकार रोड गैंग, हुर्रियत और पाकिस्तान समर्थक तत्वों के हाथ से यह मौका छीन लिया कि भाजपा विरोध के नाम पर सभी अलगाववादियों को इकट्ठा करके घाटी की राजनीति को फिर से केंद्र विरोधी एजेंडा दे दिया जाए।

ऐसा नहीं है कि कश्मीर में अलगाववाद का समर्थन करने वालों और भारत-विरोधी नैरेटिव गढ़ने वालों ने हथियार डाल दिए हैं। अब मोदी विरोधी एक नया नैरेटिव खड़ा करने में लगे हैं। राज्य में बदले माहौल का अपने एजेंडे को सिरे चढ़ाने के लिए इस्तेमाल करने के लिए ये लोग जेलों में बंद कश्मीरियों की रिहाई, राज्य से राष्ट्रपति शासन हटाने और विधानसभा को बहाल कर पूर्ण राज्य का दर्जा देने की बातें कर रहे हैं।

वास्तविकता यही है कि कश्मीर के अलगाववादी इतिहास को देखते हुए ऐसे कदमों से यह राज्य फिर अशांति और अलगाववाद की चपेट में आ सकता है और पांच साल की उपलब्धियां निष्प्रभावी हो जाएंगी। ऐसे में, सही नीति यही होगी कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को देखते हुए आगामी सितंबर से पहले न केवल राज्य विधानसभा के चुनाव कराए जाएं, बल्कि पंचायत, ब्लाक और जिला समितियों के भी चुनाव कराए जाएं, जिससे राज्य की राजनीति में गुपकार गैंग और उसके अलगाववादी आकाओं के बजाय आम जनता के प्रतिनिधियों का नियंत्रण अपनी जड़ें जमा सके।

जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने से पहले उसे अनुच्छेद-370 के नकारात्मक असर को पूरी तरह उतारने का समुचित समय दिया जाना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए कश्मीर को लेकर कोई भी फैसला जल्दबाजी में नहीं होना चाहिए, निहित स्वार्थी तत्वों को खुश करने और उनसे मिलने वाली वाहवाही का लालच पूरे देश और भारत सरकार के लिए बहुत महंगा साबित होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सेंटर फार हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन हैं)