गिरीश्वर मिश्र : भारत का स्वतंत्रता संग्राम मात्र अंग्रेजों को बेदखल करने वाला राजनीतिक प्रयास न होकर एक रचनात्मक सांस्कृतिक विमर्श का आगाज भी था, जो समग्र भारतीय समाज की आकांक्षा को अभिव्यक्त कर रहा था। साम्राज्यवाद के दमनचक्र का विरोध सिर्फ विरोध न होकर एक नए शोषणमुक्त और न्यायमूलक समाज के निर्माण का उद्घोष था। इसलिए आजादी को सिर्फ राजनीतिक आजादी मानना भ्रामक है। स्वतंत्रता का संघर्ष सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-शैक्षिक समग्र आजादी का स्वप्न था। उस संघर्ष के महानायक महात्मा गांधी विकेंद्रीकृत, समतामूलक और सहभागी व्यवस्था वाले भारत की कल्पना कर रहे थे, जिसकी जड़ें नैतिकता और सर्वोदय में थीं। यह स्वतंत्रता दिवस हमें इस यात्रा की उपलब्धियों और सीमाओं पर ध्यान देने के लिए आमंत्रित करता है, ताकि हम आगे की तैयारी कर सकें।

लंबी दासता के बाद 1947 में न चाहते हुए भी अखंड भारत के विभाजन के साथ भारत को अंग्रेजों से राजनीतिक आजादी मिली और भारतीयों की सरकार बनी। भारत लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत उत्थान के प्रयास में संलग्न रहा और विविधताओं के साथ आगे बढ़ने के लिए कई कदम उठाए। देश ने वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठा अर्जित की और आज दृढ़ता से खड़ा भारत सांस्कृतिक, आर्थिक, सामरिक और प्रौद्योगिक हर क्षेत्र में अपनी पहचान बना रहा है।

लोकतंत्र की इस यात्रा की शुरुआत जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में हुई थी जब आधुनिक संस्थाओं और उपक्रमों का ढांचा खड़ा हुआ। लालबहादुर शास्त्री की हरित क्रांति, इंदिरा गांधी का बैंक राष्ट्रीयकरण, राजीव गांधी की कंप्यूटर क्रांति, नर्रंसह राव के समय हुए आर्थिक सुधार, अटल बिहारी वाजपेयी के समय उद्योग क्षेत्र में निजीकरण, सर्व-शिक्षा अभियान, परमाणु परीक्षण, मनमोहन सिंह द्वारा अर्थव्यवस्था को गति देना, ग्रामीण स्वास्थ्य योजना, आरटीआइ एक्ट और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में लोक हितकारी अनेक योजनाओं (जैसे-उज्ज्वला, शौचालय निर्माण, आयुष्मान, जनधन, प्रधानमंत्री आवास) का सफल संचालन, सामरिक शक्ति का विस्तार, अनुच्छेद 370 की समाप्ति, तीन तलाक से मुक्ति, नोटबंदी, जीएसटी, सरकारी बैंकों का विलय बड़ी उपलब्धि रही।

कोविड महामारी के दौर में और उसके बाद अर्थव्यवस्था और स्वास्थ्य की मुश्किल चुनौती को संभालना, यूक्रेन से भारतीयों की वापसी, मिसाइल और अंतरिक्ष कार्यक्रम में वर्तमान नेतृत्व ने अपनी सार्थकता प्रमाणित की है। अब अर्थव्यवस्था रास्ते पर आ रही है। मंगलयान का प्रक्षेपण, चंद्रयान और समुद्रायन की तैयारी उल्लेखनीय पहल है। सड़क, बिजली, पक्के मकान, संचार माध्यम, नागरिक जागरूकता आदि की दृष्टि से निश्चय ही व्यापक पैमाने पर सुधार हुआ है। जीडीपी के हिसाब से देश की अर्थव्यवस्था आज विश्व में पांचवें नंबर पर है। भारत पांच लाख करोड़ डालर की अर्थव्यवस्था का सपना देख रहा है।

1947 की तुलना में आज देश में जीवन विस्तार 37 वर्ष से 70 वर्ष हो गया है। साक्षरता 18 से 74 प्रतिशत हो गई है। आय और खाद्यान्न उत्पादन बढ़ा है। गरीबी घटी है। नागरिकों को सुरक्षा और सभी अधिकार प्राप्त हैं।

इतिहास में झांकें तो आपातकाल लगना, सिखों का नरसंहार, कश्मीरी पंडितों का नरसंहार और विस्थापन जैसे घटनाक्रम लोकतांत्रिक प्रक्रिया में चूक को दर्शाते हैं, जिनके दीर्घकालिक प्रभाव पड़े। छोटी-बड़ी कई आकस्मिक कठिनाइयां अप्रत्याशित रूप से भारत की प्रगति की यात्रा में अवरोध पैदा करती रही हैं, पर यह भी सही है कि जिस लगन और ईमानदारी से हमें देश-निर्माण के कार्य में जुड़ना था, उसमें कमी रह गई। शिक्षा के लिए संसाधनों की कमी, पाठ्यक्रम की अनुपयुक्तता और गुणवत्ता को लेकर बहुत दिनों से गहरा असंतोष बना हुआ है।

प्रचलित व्यवस्था में भारतीय ज्ञान परंपरा और संस्कृति की उपेक्षा भी होती रही है। हालांकि इस समस्या को दूर करने के लिए मौजूदा सरकार नई शिक्षा नीति लेकर आई है। अब उसके कार्यान्वयन का काम चल रहा है। इसके अलावा न्याय की प्रक्रिया जटिल, महंगी और समयसाध्य होती गई है। न्याय की प्रक्रिया पर अवांछित प्रभाव की घटनाएं भी सुनाई पड़ती हैं। आज चार करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं। इसी तरह व्यवस्था में भ्रष्टाचार का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है।

तथाकथित सेक्युलर नीति के साथ सांप्रदायिकता राजनीति और जातीय संगठन का तीव्र विकास भी चिंताजनक है। तुष्टीकरण की नीति ने सामाजिक संतुलन को चोट पहुंचाई है। संस्थाओं पर राजनीति की छाया गहराती जा रही है जिनसे व्यवस्था के संचालन में व्यवधान आते हैं। हमारे तमाम कार्य सीमित राजनीतिक हितों के इर्द-गिर्द चलने के कारण व्यापक उद्देश्यों से भटक जाते हैं। इनका परिणाम व्यापक लोकहित के विरोध में चला जाता है। आजकल राजनीतिक विचार-विमर्श छिद्रान्वेषण करने और अनुत्पादक विवाद में उलझकर रह जाते हैं। इन सबके साथ सरकारी उपक्रमों की कार्यसंस्कृति में गिरावट एक आम बात हो चली है। सरकारी नौकरी को आराम की नौकरी मानना और दायित्व बोध तथा जिम्मेदारी को लेकर उदासीनता की संस्कृति फैलती गई है। सरकारी सामान और सुविधा का दुरुपयोग बढ़ता गया है। छोटे-छोटे आंदोलनों में भी लोग निर्ममता से सरकारी सामान की तोड़-फोड़ और जलाने और नष्ट करने पर उतारू हो जाते हैं।

स्वतंत्रता की दीप शिखा हमेशा प्रज्वलित रहे इसके लिए औपनिवेशिक मानसिकता छोड़कर कार्य प्रणाली की अड़चनों को दूर करना होगा। हम सब भारत के हैं और उसकी जय-गाथा में हम सबका हिस्सा होना चाहिए। हम न भूलें कि सत्य, अहिंसा और शांति के मूल्य हमारी रगों में प्रवाहित हैं और मानवता का भविष्य उन्हीं को स्थापित करने में है।

(लेखक पूर्व प्रोफेसर एवं पूर्व कुलपति हैं)