[ कृपाशंकर चौबे ]: पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ मतुआ समुदाय एक बार फिर चर्चा में आ गया है। इस चर्चा ने तबसे और जोर पकड़ा है, जबसे यह सूचना आई है कि प्रधानमंत्री अपनी बांग्लादेश यात्रा के दौरान मतुआ समुदाय के गुरु हरिचंद ठाकुर की जन्मस्थली जा सकते हैं। उन्होंने ही मतुआ धर्म महासंघ की स्थापना की थी। यह महासंघ बंगाल में दलितों का सबसे बड़ा आंदोलन है। बंगाल में इस संघ के सदस्यों की संख्या करीब पौने दो करोड़ है और उनका 70 से अधिक विधानसभाओं में असर है। बंगाल के बाहर भारत के विभिन्न राज्यों में फैले बांग्लादेशी शरणार्थी भी इस संघ के समर्थक हैं। मतुआ आंदोलन पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) से पश्चिम बंगाल आया। हरिचंद ठाकुर ने उन्नीसवीं शती के मध्य में पूर्वी बंगाल के गोपालगंज में मतुआ धर्म महासंघ की स्थापना की थी।

पूर्व और पश्चिम बंगाल में दलितों को धर्म का अधिकार सबसे पहले मतुआ संघ ने दिया

पूर्व और पश्चिम बंगाल में दलितों को धर्म का अधिकार सबसे पहले हरिचंद ठाकुर के मतुआ संघ ने ही दिया। मतुआ यानी जो मतवाले हैं। जो जाति, धर्म, वर्ण से ऊपर उठे हुए हैं। हरिचंद ठाकुर ने मुख में नाम, हाथ में काम और सबको शिक्षा के अधिकार का नारा दिया और दलितों के लिए अनेक स्कूलों की स्थापना की। उन्होंने जीव मात्र से दया करने की शिक्षा दी थी। हरिचंद ने अपने महासंघ के लोगों को दूसरों से स्नेह, दूसरे के प्रति सहनशीलता, स्त्री-पुरुष में समानता, जाति आधारित भेदभाव को नहीं मानने के साथ लालची नहीं होने की शिक्षा दी थी। धीरे-धीरे उनके संदेशों का असर होने लगा। झुंड के झुंड लोग उनके अनुयायी बनने लगे और मतुआ धर्म महासंघ आकार लेने लगा। हरिचंद ठाकुर के निधन के बाद मतुआ महासंघ को उनके पुत्र गुरुचंद ठाकुर ने आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा था, ‘जार दल नेई, तार बल नेई।’ यानी जिनका दल नहीं, उनका बल नहीं। परवर्ती काल में मतुआ आंदोलन को बढ़ाने का काम गुरुचंद के पौत्र प्रमथ रंजन विश्वास, रसीकलाल विश्वास, मुकुंद बिहारी मल्लिक, विराटचंद मंडल और विश्वदेव दास ने किया।

हिंदुओं पर अत्याचार बढ़ा तो मतुआ बांग्लादेश से भागकर पश्चिम बंगाल समेत अन्य राज्यों में पहुंचे 

देश विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल में हिंदुओं पर अत्याचार बढ़ने लगा तो मतुआ धर्ममहासंघ के अनुयायी बांग्लादेश से भागकर पश्चिम बंगाल समेत भारत के विभिन्न राज्यों में आने लगे। स्वयं गुरुचंद के पौत्र प्रमथ रंजन विश्वास भी 13 मार्च, 1948 को पश्चिम बंगाल के बनगांव आ गए और एक छोटा सा घर बनाकर रहने लगे। मतुआ धर्म की तरह जोगेंद्रनाथ मंडल भी बांग्लाभाषी समाज में दलितों के जागरण के लिए समर्पित होकर काम करते रहे थे। देश विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल को जब पाकिस्तान में मिलाने की बात आई तो प्रारंभ में उसका मंडल ने विरोध किया, लेकिन अंतत: देश विभाजन होने पर वे पूर्वी बंगाल में ही रह गए और जिन्ना के विश्वासपात्र बन गए। पूर्वी बंगाल यानी तत्कालीन पाकिस्तान में दलितों की स्थिति में सुधार लाने का सपना लेकर जोगेंद्रनाथ मंडल पाकिस्तान की पहली कैबिनेट में कानून और श्रम मंत्री बने, लेकिन लाख कोशिश कर भी वह अपने सपने को पूरा नहीं कर सके। पाकिस्तान सरकार के मंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद मंडल पश्चिम बंगाल आए और डॉ. आंबेडकर की रिपब्लिकन पार्टी के लिए काम करते रहे।। मंडल स्वयं नम शूद्र समुदाय से थे। उस समुदाय के हितों की रक्षा के लिए वे निरंतर आंदोलनरत रहे। इससे उनकी जनप्रियता इतनी बढ़ी कि उन्होंने बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर को बंगाल से लड़ाया और जिताया भी। 1968 में बनगांव में पार्टी के लिए प्रचार करते हुए उनकी तबियत खराब हुई और वे चल बसे।

मतुआ धर्म महासंघ के प्रयासों से बंगाल में दलित आंदोलन का हुआ विस्तार 

जोगेंद्रनाथ मंडल जैसे नेताओं और मतुआ धर्म महासंघ के प्रयासों से बंगाल में दलित आंदोलन का विस्तार सुदूर जिलों तक में हो गया। गुरुचंद के पौत्र प्रमथ रंजन विश्वास ने 1948 के बाद बंगाल में मतुआ धर्म महासंघ को संगठित करने का निरंतर यत्न किया। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी वीणापाणि देवी (बड़ो मां) मतुआ धर्म की सबसे बड़ी नेता बनीं। वीणापाणि देवी वह पहली शख्स थीं, जिन्होंने बांग्लादेश से भारत आए शरर्णािथयों को नागरिकता देने की मांग की थी। यह मांग आज भी अधूरी है।

मतुआ समाज का दशकों से नागरिकता के लिए प्रतीक्षारत

भाजपा ने इसे नागरिकता संशोधन कानून के तहत पूरा करने का आश्वासन दिया है। हालांकि मतुआ समुदाय को वोट देने का अधिकार प्राप्त है, लेकिन नागरिकता उनके लिए एक भावनात्मक मुद्दा है। मतुआ धर्म महासभा शरणार्थियों के सवाल पर लगातार मुखर रहा। बांग्लादेश से आए शरणार्थियों में सर्वाधिक संख्या दलितों की है। आश्चर्य है कि जो दल दलितों के हितैषी होने का दावा करते हैं, उन्होंने मतुआ समुदाय के लोगों की नागरिकता का सवाल कभी नहीं उठाया। मतुआ समाज का दशकों से नागरिकता के लिए प्रतीक्षारत रहना यही बताता है कि कैसे देश ने पाकिस्तान और बांग्लादेश से जान बचाकर आए कुछ पीड़ित-प्रताड़ित लोगों को भुला दिया?

मतुआ धर्म महासंघ समाज के दबे-कुचले तबके के उत्थान के लिए काम करता है

मतुआ धर्म महासंघ समाज के दबे-कुचले तबके के उत्थान के लिए काम करता है। 2011 की जनगणना के अनुसार पश्चिम बंगाल में कुल आबादी के 23.5 प्रतिशत दलित और 5.8 प्रतिशत आदिवासी हैं। बंगाल के दलित एवं आदिवासी मतुआ धर्म महासंघ के स्वाभाविक समर्थक माने जाते हैं। उत्तर 24 परगना जिले में बनगांव स्थित मतुआ धर्म महासंघ के मुख्यालय में मतुआ माता वीणापाणि देवी के साथ गत वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बैठक की थी। वीणापाणि देवी के दबाव में ही ममता बनर्जी के नेतृत्ववाली पश्चिम बंगाल सरकार को मतुआ कल्याण परिषद का गठन करना पड़ा। वीणापाणि देवी का गत वर्ष निधन हो गया। अब उनके पुत्र और पौत्र मतुआ आंदोलन को आगे बढ़ा रहे हैं। माना जा रहा है कि इस बार के चुनाव में उनका मत निर्णायक साबित होगा।

( लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि में प्रोफेसर हैं )