गोवा में आठवें ब्रिक्स सम्मेलन से अलग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच गत शनिवार को बैठक हुई। दोनों नेताओं ने सीमा-विवाद सहित आतंकवाद, सुरक्षा परिषद के मुद्दों पर चर्चा की। बीते ढाई वर्षों में दोनों शासनाध्यक्षों की यह नौवीं मुलाकात थी। चिनफिंग के भारत आने से पूर्व आतंकी मसूद अजहर और ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन का हालिया रुख, भारत की सुरक्षा परिषद में सदस्यता का निरंतर विरोध, पाकिस्तान का सदैव समर्थन और गुलाम कश्मीर यानी पीओके में चीन द्वारा फ्रेंडशिप कार रैली का आयोजन स्पष्ट करता है कि भारत के प्रति उसका शत्रुवत रवैया आज भी कायम है।
अभी हाल ही में बांग्लादेश के साथ चीन ने 27 समझौते किए। वह बांग्लादेश को 133 हजार करोड़ रुपये का कर्ज भी देने जा रहा है। बीते कई वर्षों से साम्राज्यवादी चीन भारत की सामरिक-आर्थिक घेराबंदी करने में जुटा है। पाकिस्तान के बलूचिस्तान में ग्वादर बंदरगाह, म्यांमार में कोको द्वीप, श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह, बांग्लादेश के चटगांव बंदरगाह को चीन अपने स्वार्थ के लिए विकसित कर रहा है। चीनी युद्ध-रणनीतिकार सुन त्जू के अनुसार युद्ध की कला सिखाती है कि हम यह सोचकर न बैठें कि शत्रु नहीं आ रहा है या नहीं आएगा। जरूरी है कि हम स्वयं युद्ध के लिए कितने तत्पर हैं। हम अपने दुश्मन को हमला करने का मौका न दें, इसके लिए आवश्यक है कि हम अपनी सीमाओं को अभेद्य बनाएं। क्या यह सत्य नहीं कि साम्यवादी चीन कई वर्षों से भारत के खिलाफ इसी नीति का अनुसरण कर रहा है?
भारत के साथ सीमा-विवाद के लिए चीन की साम्राज्यवादी मानसिकता तो जिम्मेदार है ही, पंडित नेहरू की अदूरदर्शी नीतियां भी इस समस्या का मुख्य कारण रही हैं। अक्टूबर 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चीन की स्थापना के बाद पंडित नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र में पश्चिमी देशों के विरोध के बावजूद चीन को शामिल किए जाने की पैरवी की। 1950 में जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया, तब नेहरू सरकार मौन रही। उस समय सरदार पटेल, डॉ. भीमराव अंबेडकर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर सहित कई राष्ट्रवादी ताकतों ने चीन को लेकर पंडित नेहरू को आगाह करने का भी प्रयास किया, किंतु वह इस गलतफहमी में रहे कि चीन की दोस्ती से भारत का हिमालय क्षेत्र सुरक्षित हो जाएगा। हिंदी-चीनी, भाई-भाई के शोर में पंडित नेहरू चीनी सैनिकों की आहट को नहीं सुन पाए। तिब्बत पर कब्जा करने के बाद से ही चीन की दृष्टि लेह-लद्दाख, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम पर थी और आज भी है। नेहरू के शासन में रक्षामंत्री रहे कृष्ण मेनन ने खुफिया सूचनाओं के बावजूद सेना को साधनविहीन रखा। इस वैचारिक उलझन की कीमत भारत आज तक चुका रहा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत में चीन समर्थित वामपंथी बासठ के युद्ध में दुश्मन का समर्थन कर रहे थे।
1962 के युद्ध के बाद से चीन परोक्ष रूप से निरंतर भारत को अस्थिर कर रहा है। यदि भारत की सनातन बहुलतावादी संस्कृति को नष्ट करना पाकिस्तान का घोषित एजेंडा है तो इसे क्रियान्वित करना चीन की अघोषित नीति बन चुकी है। बांग्लादेश, बर्मा, नेपाल और पाकिस्तान में जिहादियों को प्रशिक्षण व ठिकाने उपलब्ध कराने के पीछे चीन का बड़ा हाथ है। मणिपुर के अलगाववादी गुट यूनाइटेड नेशनल-लिबरेशन फ्रंट और नक्सलियों के बीच साठगांठ चीनी साजिश का ही परिणाम है। असम के उग्रवादी संगठन-उल्फा को जिहादी ताकतों के बाद चीन का भी समर्थन प्राप्त है। क्या यह सत्य नहीं कि आज जिन दो परमाणु संपन्न देशों (पाकिस्तान और उत्तर कोरिया) से समस्त मानव-जाति और विश्व को सबसे अधिक खतरा है, चीन उनका पोषक बना हुआ है?
आर्थिक और वैचारिक दृष्टि से भारत और चीन में कई समानताएं हैं। ब्रिटिश आर्थिक इतिहासकार एंगस मेडिसन ने अपनी पुस्तक कॉन्टुअर्स ऑफ द वल्र्ड इकोनॉमी 1-2030 एडी में स्पष्ट किया है कि पहली सदी से लेकर 10वीं शताब्दी तक भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था। बेल्जियम अर्थशास्त्री पॉल बारॉच के अनुसार 1750 आते-आते वैश्विक अर्थव्यवस्था में जहां चीन की हिस्सेदारी 33 प्रतिशत हो गई थी, वहीं भारत 24.5 प्रतिशत के साथ दूसरे स्थान पर था। ब्रिटिश शासन में भारतीय अर्थव्यवस्था का जमकर दोहन हुआ। चीन पर भले ही पूर्ण रूप से किसी भी विदेशी शक्ति का उपनिवेश नहीं था, किंतु उसकी हालत किसी दूसरे गुलाम देश से कम नहीं थी। चीन में भगवान बुद्ध में विश्वास रखने वालों की एक बड़ी संख्या है और यह दर्शन भारत से ही गया है।
स्वाधीनता के पश्चात पहले चालीस वर्षों में समाजवादी नीतियों ने भारत को कंगाली के कगार पर खड़ा कर दिया। वहीं चीन में माओ के साम्यवादी विचारों ने 1970 के दशक में उसकी अर्थव्यवस्था को खोखला कर दिया। वर्ष 1976 में देंग-शियाओ-पिंग ने मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था का तिलिस्म खोजा, जिसका परिणाम यह हुआ कि चीन की राजनीति में आज भी माक्र्सवादी अधिनायकवाद का आधिपत्य है तो उसकी अर्थव्यवस्था पूंजीवाद के मकड़जाल में पूरी तरह फंसी हुई है, जिसमें श्रमिकों का शोषण ही सफलता की असली कुंजी है। मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में चीन की स्थिति क्या है? एक रिपोर्ट के अनुसार चिनफिंग के शासन में यहां मानवाधिकार गर्त में है। 2011 में चीन की एक रिपोर्ट के अनुसार यहां हर वर्ष करीब 2,87,000 यानी प्रतिदिन 786 लोग आत्महत्या करते हैं, जिसमें 75 प्रतिशत मामले ग्रामीण क्षेत्रों से हैं।
चीन के साथ व्यापार भारत के लिए घाटे का सौदा रहा है। गत एक दशक में चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा औसतन 30 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ा है। वित्त वर्ष 2015-16 में जहां भारत का चीन को निर्यात केवल नौ अरब डॉलर रहा था, जबकि चीन से भारत को आयात 61.7 अरब डॉलर का था। इस तरह व्यापार घाटा 52.7 अरब डॉलर था। वहीं 2014-15 में यह नुकसान 48.5 अरब डॉलर के आसपास था। चीन की वैश्विक प्रगति का एक बड़ा कारण वहां का प्रखर राष्ट्रवाद भी है। जब भी चीन का सामना कठिन परिस्थितियों से होता है तो वहां सर्वोच्च नेतृत्व उग्र राष्ट्रवाद की मुहिम चलाता है। क्या भारत-चीन के रिश्ते सामान्य हो सकते हैं? उत्तर हां और ना, दोनों में है। यदि भारत निर्बल है (आर्थिक और सैन्य रूप से) तो चीन उसे न केवल अपमानित करेगा, बल्कि उन सभी क्षेत्रों को हड़पने का प्रयास भी करेगा जिन पर वह अपना अधिकार जताता है। यदि भारत अपने आप को सबल राष्ट्र के रूप में स्थापित करता है तो अंततोगत्वा चीन न केवल उसका सम्मान करेगा, बल्कि एक अच्छे पड़ोसी की तरह रहना भी सीख जाएगा।
[ लेखक बलबीर पुंज, भाजपा के राज्यसभा संसद रहे हैं ]