[ राजीव कुमार ]: नरेंद्र मोदी को अभूतपूर्व बहुमत देने में भारतीयों ने विलक्षण परिपक्वता और दूरदर्शिता का प्रदर्शन किया है। यह उन तीन राज्यों में भाजपा द्वारा विपक्ष का सूपड़ा साफ करने से भी झलकता है जहां वह बीते दिसंबर में चुनाव हार गई थी। मतदाताओं ने दर्शाया कि वे राष्ट्रीय और प्रांतीय मुद्दों में अंतर कर सकते हैं और उन्हें नेतृत्व की गुणवत्ता का भी बखूबी अहसास है। पिछले पांच वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कामकाज के आधार पर लोगों ने उन पर फिर से अपना भरोसा व्यक्त किया। लोगों ने यह महसूस किया कि मोदी ने समाज के सबसे निचले तबके के जीवन में सुधार के लिए हरसंभव प्रयास किए। इससे लोगों में भरोसे का भाव भी बढ़ा और उन्होंने मोदी को खुला हाथ दिया ताकि वह देश को अपने हिसाब से आगे ले जा सकें।

इससे पहले भारतीय जनता ने देश के राजनीतिक नेतृत्व में ऐसी आस्था 1965 में व्यक्त की थी जब तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के दोहरे आह्वान पर देश एकमत हो गया था। शास्त्री ने एक तो युद्ध के खर्चे को पूरा करने के लिए लोगों से अपने पुश्तैनी जेवर दान देने की अपील की थी और दूसरे यह अनुरोध किया था कि एक सप्ताह में एक दिन एक वक्त के खाने में अनाज को छोड़ दें ताकि अमेरिकी आयात पर हमारी निर्भरता घट सके। करीब आधी सदी बाद हमने राजनीतिक वर्ग को लेकर निराशावाद की आम धारणा को उलट दिया और उसमें भरोसा बहाल किया। हमारे लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आदर्श और प्रतिभाशाली युवा इससे राजनीतिक क्षेत्र की ओर आकर्षित होंगे और आने वाले दशकों में वे वैश्विक पटल पर भारत को एक प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित करने में योगदान दे सकेंगे।

राजनीतिक नेतृत्व में जनता के भरोसे की बहाली के साथ ही और भी शक्तिशाली संदेश मिले हैैं। एक तो यही कि अब शासक और शासित के बीच कोई अंतर नहीं रह गया है। पहले अंतर वाली ही परंपरा थी और इसे दिल्ली के पश्चिमी ढर्रे वाले अभिजात्य वर्ग ने पोषित किया था। इसी वर्ग के सदस्यों ने देश की राजनीति, नौकरशाही, न्यायिक और यहां तक कि नागरिक संगठनों पर भी अपना कब्जा जमा लिया था। मोदी को जिस विश्वास और भरोसे के साथ दिल खोलकर बहुमत दिया गया उससे यह कुलीन वर्ग, जिसे अमूमन लुटियंस समूह या खान मार्केट गिरोह के रूप में जाना जाता है, इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया गया है।

प्रधानमंत्री शासन को जिस तरह पारदर्शी और जवाबदेह बनाने की कोशिश में जुटे हैं और जिस तरह जनता से प्रत्यक्ष संवाद कर रहे हैं उससे नए भारत के नागरिकों ने यह भरोसा करना भी शुरू कर दिया है कि वे भी राष्ट्र निर्माण और देश के आर्थिक विकास में राजनीतिक वर्ग के साथ मिलकर योगदान दे सकते हैं। दिल्ली के मीडिया के एक बड़े हिस्से और कुलीन वर्ग को भले ही यह नजर न आए, लेकिन जमीनी स्तर पर यही भावना बलवती हुई है कि मोदी ने यह सुनिश्चित किया कि विकास का फल निरंतरता के साथ सभी के पास पहुंचेगा। विकास को जन आंदोलन बनाने के लिए यह एक बुनियादी शर्त है।

हम सभी भारतीय, यहां तक कि वंचित वर्ग के लोग भी व्यक्तिगत स्तर पर विकास और वृद्धि में योगदान करने की उम्मीद और प्रयास कर सकते हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि हम किस क्षेत्र में काम कर रहे हैं। मायने यही रखता है कि हम अपना काम करते हुए राष्ट्र निर्माण में तत्पर रहें। अब ‘माइ बाप सरकार’ वाली नकारात्मक व्यवस्था पर निर्भर रहने के दिन बीत गए, जिसे कुछ कुलीन वर्गों ने अपनी थाती बना लिया था। अब भारतीयों ने विकास को अपनी खुद की मुहिम बना लिया है और वे चाहे जिस पेशे में हों, अपने-अपने स्तर पर इस अभियान में योगदान दे रहे हैं। यह एक ऐतिहासिक कायाकल्प का पड़ाव है जो भारतीय अर्थव्यवस्था को ऊंची वृद्धि के दौर में दाखिल करेगा और यह तेज वृद्धि आने वाले दशकों में भी कायम रहेगी।

अगर राष्ट्रीय लक्ष्यों की बात करें तो यह वर्ष 1942 में महात्मा गांधी द्वारा अंग्र्रेजों के खिलाफ ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन और लाल बहादुर शास्त्री द्वारा 1965 में एक वक्त के भोजन का त्याग करने की अपील वाले वक्त जैसा है। इसमें सभी भारतीय अपनी प्रतिभा, समझ और नए तौर-तरीकों वाली क्षमता के साथ न केवल यह सुनिश्चित करेंगे कि देश मध्यम आय के दायरे से बाहर निकल आए, बल्कि तेजी से आगे बढ़ते हुए उस समय तक दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाए जिस समय हम अपनी आजादी की सौवींं वर्षगांठ मना रहे हों।

राजग के नवनिर्वाचित सांसदों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने उनसे साफ तौर पर कहा कि वे शासक वाले रवैये का परित्याग करें। इससे जनप्रतिनिधियों और आम लोगों के बीच भरोसा बढ़ेगा। अगला लक्ष्य नौकरशाही में भी यही भाव लाना और अंतत: उपनिवेशवादी विरासत का परित्याग करना होना चाहिए। नौकरशाही की जवाबदेही परिणामों पर आधारित होनी चाहिए। इससे ही नौकरशाही शासक वर्ग की मानसिकता से बाहर आएगी और टैक्स चुकाने वाले उन लोगों के प्रति और जिम्मेदार बनेगी जिनके पैसे से वह चलती है।

अपने इसी संबोधन में प्रधानमंत्री ने अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा में लाने, विकास में भागीदार बनाने और उन्हें डराकर रखने वालों से मुक्त करने की भी बात कही। यह सबका साथ सबका विकास नारे का स्वाभाविक विस्तार है। इसके लिए जमीनी स्तर पर गंभीरता से कोशिश करनी होगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि समाज का कोई भी तबका विकास प्रक्रिया से अछूता न रहे। अच्छी बात यह है कि बीते पांच सालों में सबको समाहित करने वाली जनकल्याणकारी योजनाओं ने सब तक अपनी पहुंच बनाई है।

इन योजनाओं के तहत 35 करोड़ से अधिक जनधन खाते खुले हैैं। नौ करोड़ से अधिक शौचालय बने हैैं। 714 जिलों में सात करोड़ से अधिक रसोई गैस सिलेंडर बंटे हैैं। इसके अलावा महज सात माह में तीस लाख लोगों ने आयुष्मान योजना का लाभ उठाया है। इन योजनाओं की सफलता ने भरोसे की बुनियाद मजबूत की है। यह एक बड़ा बदलाव है और इसने सरकार और उसके वायदों को लेकर आम आदमी की सोच को बदला है।

आखिरकार भारत उन देशों में शामिल होगा जो अपने लोगों को बेहतर सार्वजनिक सेवाएं और सुविधाएं देने के लिए जाने जाते हैैं। नि:संदेह अभी एक लंबा सफर तय करना है, लेकिन प्रचंड जनादेश ने यह दिखाया है कि भारतीय मतदाता इस पर यकीन कर रहे हैैं कि एक व्यापक बदलाव आया है और सरकार पर यह भरोसा कर रहे हैैं कि वह उनके हित में ईमानदारी से काम करेगी। यह कायाकल्प इस बात को सुनिश्चित करेगा कि यह सदी भारत की होगी।

( लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री हैैं )

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