[ विवेक काटजू ]: नार्वे के पूर्व प्रधानमंत्री शेल माग्ने बोंदेविक ने पिछले दिनों श्रीनगर का दौरा किया। वहां उन्होंने अलगाववादी हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी, मीरवाइज उमर फारूक और यासिन मलिक से मुलाकात की। वह कश्मीर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन और कश्मीर चैंबर ऑफ बिजनेस एंड इंडस्ट्री के सदस्यों से भी मिले। श्रीनगर दौरे के बाद बोंदेविक पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) भी गए। वहां पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी और पीओके के तथाकथित राष्ट्रपति मसूद खान के साथ भी उनकी बैठक हुई। उन्होंने नियंत्रण रेखा यानी एलओसी का दौरा भी किया। बोंदेविक के इस दौरे से कई सवाल खड़े हुए हैं। तमाम विश्लेषक भी उनका जवाब ढूंढने में जूझ रहे हैं जिनमें मैं भी अपवाद नहीं हूं।

बीते कई वर्षों में पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी विदेशी राजनीतिक व्यक्ति को कश्मीर में अलगाववादी नेताओं से मिलने दिया गया हो। हालांकि बोंदेविक अभी किसी आधिकारिक पद पर नहीं हैं, लेकिन आखिर वह कश्मीर में दिलचस्पी क्यों ले रहे हैैं? चिंता की एक और वजह नार्वे के नेताओं का वह रवैया भी है जिसमें वह देशों के आंतरिक मामलों को सुलझाने में बिन बुलाए मेहमान की तरह शांतिदूत बनने की पहल करते हैैं। श्रीलंका में भी नार्वे ने यही किया, लेकिन वहां भी उसकी कोशिशें फलीभूत नहीं हुईं।

वर्ष 2005 में प्रधानमंत्री के रूप में अपना दूसरा कार्यकाल पूरा करने के बाद बोंदेविक भी शांति और सुलह कराने की कवायद में सक्रिय हो गए। वर्ष 2006 में उन्होंने ओस्लो सेंटर फॉर पीस एंड ह्युमन राइट्स की स्थापना की। इस संस्था ने अपने जैसी अन्य संस्थाओं से भी मेलजोल बढ़ाया जिसमें पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर द्वारा स्थापित पीस सेंटर भी शामिल है। अपने केंद्र के माध्यम से बोंदेविक ने सोमालिया और दक्षिण सूडान में जारी संघर्ष में मध्यस्थता के जरिये शांति बहाली के प्रयास किए। उनकी संस्था ने म्यांमार में भी दिलचस्पी दिखाई। ऐसे में उनके श्रीनगर दौरे के मकसद और उसके बाद पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर जाने की मंशा पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। क्या वह हालात का जायजा ले रहे थे?

बोंदेविक के दौरे को लेकर सरकार ने तो चुप्पी साध रखी है। नार्वे लौटने के बाद पत्रकारों को दिए साक्षात्कार में उन्होंने खुलासा किया कि दौरे को लेकर विदेश मंत्रालय के साथ उनका कोई संपर्क नहीं हुआ, लेकिन उन्होंने ‘दिल्ली’ से बात की और उनके साझेदार श्री श्री रविशंकर ने इस दौरे को संभव बनाने में मदद की। श्रीनगर बैठक शहर के डिप्टी मेयर ने कराई। बोंदेविक ने बताया कि उन्होंने हुर्रियत नेताओं से कहा कि उन्हें शांतिपूर्वक तरीके से काम करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि कश्मीर मुद्दे का कोई सैन्य समाधान संभव नही। इसे केवल बातचीत के जरिये ही सुलझाया जा सकता है और वह भी अगले साल चुनाव से पहले शुरू नहीं हो सकती। कश्मीर समस्या को सुलझाने की राह में बोंदेविक ने भारत की इस लिहाज से सराहना भी की कि वह द्विपक्षीय वार्ता जैसे विकल्प पर तैयार है, लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि ‘इसमें यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि कश्मीर से जुड़े संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव और वहां मानवाधिकारों पर आई हालिया रिपोर्ट का भी संज्ञान लिया जाए। इसमें भारत, पाकिस्तान और कश्मीर तीनों पक्षों के नेताओं के बीच बातचीत होनी चाहिए।’

साफ है कि कश्मीर को लेकर बोंदेविक के सुझाव और पाकिस्तान या हुर्रियत नेताओं की हिमायत में कोई फर्क नहीं है। यह भारतीय संविधान और लंबे समय से अपनाई गई भारतीय रणनीति के उलट है। जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है तो वहां के सभी नागरिक भी भारतीय हैं। ऐसे में उनके साथ चर्चा भी हमारे संविधान के दायरे में ही होगी और यह पूरी तरह हमारा आंतरिक मामला है। इसमें किसी अन्य देश की कोई भूमिका नहीं है। भारत में सरकारों को कश्मीर की आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे का पूरी संवेदनशीलता के साथ निपटारा करना चाहिए। इसमें राज्य के सभी वर्गों का ख्याल रखना होगा। उन्हें यह अहसास कराना होगा कि वे भी अन्य भारतीयों की तरह हमारे देश में बराबर के हिस्सेदार हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि आतंकियों और अलगाववादियों के साथ किसी तरह की नरमी बरती जाए।

कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के साथ समस्या उस इलाके से है जिसे पाकिस्तान अवैध रूप से कब्जाए बैठा है। शिमला समझौते के तहत कश्मीर मुद्दा द्विपक्षीय स्तर पर ही सुलझाया जाएगा और इसमें तीसरे पक्ष की कोई भूमिका नहीं होगी। संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव भी अब स्वीकार्य नहीं रह गए हैं। वास्तव में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कश्मीर मुद्दे पर आखिरी बार चर्चा 1965 में हुई थी। पाकिस्तान को छोड़कर किसी अन्य देश ने इस पर सवाल नहीं उठाया। वहीं इस साल जून में एलओसी के दोनों ओर मानवाधिकारों पर आई संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय की रिपोर्ट जैसे ही आई भारत ने उसे उतनी ही शीघ्रता से खारिज भी कर दिया, क्योंकि यह रिपोर्ट बहुत ही पक्षपातपूर्ण तरीके से बनाई गई थी। असल में यह पूर्व मानवाधिकार उच्चायुक्त जैद हुसनैनी की शरारत थी जिनके भारत को लेकर पूर्वाग्र्रह स्पष्ट हैैं। बोंदेविक का रुख भी भारत के खिलाफ ही लगता है। क्या ऐसे व्यक्ति को देश में दोबारा आने की इजाजत दी जानी चाहिए?

सरकार को न केवल उनके श्रीनगर दौरे को लेकर स्पष्टीकरण देना चाहिए, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि भविष्य में उन्हें भारत आने की अनुमति न मिले ताकि वह कोई गफलत न पैदा कर सकें। बोंदेविक के दौरे से पाकिस्तान का खुश होना स्वाभाविक है। वह कश्मीर मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उभारने की नाकाम कोशिशें करता रहता है। उसने दावा किया कि बोेंदेविक ने कुरैशी को अपने भारत दौरे के बारे में बताया और उन्होंने कहा कि कश्मीर मुद्दा अंतरराष्ट्रीय समुदाय के एजेंडे में ऊपर होना चाहिए और उसके प्रस्ताव सभी के लिए प्राथमिकता में होने चाहिए। अगर कुरैशी के साथ बोंदेविक की ऐसी चर्चा की बात सही है तो फिर कश्मीर को लेकर उनकी संदिग्ध भूमिका में कोई संदेह नहीं रह जाता।

यह कोई छिपी हुई बात नहीं कि पाकिस्तानी नेता यदाकदा कश्मीर का राग अलाप कर इस मुद्दे को जीवंत बनाए रखना चाहते हैं। इसमें वह स्थान और अवसर का भी लिहाज नहीं करते। 28 नवंबर को पाकिस्तान में करतारपुर कॉरिडोर के शिलान्यास के अवसर पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने यही किया। वह एक धार्मिक कार्यक्रम में भी कश्मीर मुद्दे को छेड़ने से बाज नहीं आए। आखिर भारत सरकार के दो मंत्रियों के सामने इसकी क्या जरूरत थी? इमरान ने यह क्यों नहीं समझा कि यह कार्यक्रम सियासी बयानबाजी का मंच नहीं है। इमरान का भाषण तो गुरु नानकदेव जी के उपदेशों पर होना चाहिए था। उनके भाषण के बाद पाकिस्तान फौज के मुखिया जनरल बाजवा की खालिस्तानी समर्थक से गलबहियों ने आग में घी डालने का काम किया। भारत को पाकिस्तान द्वारा बुने जाने वाले जाल और बोंदेविक जैसे लोगों की गतिविधियों को लेकर सतर्क रहने की दरकार है।

 [ लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं ]