विनीत अनुराग। पिछले दिनों पंजाब के एक युवा यूट्यूबर द्वारा अरुणाचल प्रदेश के पूर्व सांसद निनोंग एरिंग के हाव-भाव पर की गई नस्लीय टिप्पणी ने पूवरेत्तर भारत के लोगों को लेकर बनी गहरी रूढ़िवादी छवि को फिर से उजागर किया है। लुधियाना के इस यूट्यूबर ने तो यहां तक कह दिया कि एरिंग कहीं से भारतीय नहीं दिखते। कई और आपत्तिजनक तथ्य भी उसने कहे।

यदि यह टिप्पणी केवल एक नासमझ व्यक्ति की होती तो शायद इसे नजरअंदाज किया भी जा सकता था, लेकिन यह हमारे समाज के एक बड़े वर्ग की उस सोच को भी प्रदर्शित करता है जो पूवरेत्तर के लोगों को उनके शारीरिक गठन, खानपान और वेशभूषा के कारण विदेशी मानता है। देश का यह खास हिस्सा अक्सर जिन सकारात्मक वजहों से चर्चा में होना चाहिए, उससे अधिक ऐसी नकारात्मक वजहों से चर्चा में रहा है।

लंबे समय से नस्लीय भेदभाव और हिंसा के शिकार पूवरेत्तर भारत की आवाज शायद ही मुख्यधारा ने सुनी हो, पर पिछले दो दशकों से स्थितियां बदल रही हैं। वर्ष 2014 में जब अरुणाचल प्रदेश के ही युवक निदो तानिया की दिल्ली में हत्या हुई तो यह मुद्दा प्रमुखता से देश भर में उठाया गया। यहां तक कि तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा एमपी बेजबरुआ की अध्यक्षता में एक समिति का भी गठन किया गया जिसे पूवरेत्तर के लोगों पर हमलों के कारणों की जांच करने और उपचारात्मक उपाय सुझाने का कार्य सौंपा गया था। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि वर्ष 2005 से 2013 के मध्य लगभग दो लाख से अधिक पूवरेत्तर भारतीयों का दिल्ली में प्रव्रजन हुआ जिसमें 86 प्रतिशत से अधिक नस्लीय भेदभाव के शिकार हुए।

समिति ने इस स्थिति में बदलाव के लिए कठोर वैधानिक प्रविधानों के साथ साथ इस संबंध में देशभर में जागरूकता बढ़ाने पर बल दिया था। इसी संबंध में समिति ने यह अनुशंसा की थी कि शेष भारत के मन मस्तिष्क में पूवरेत्तर के हरेक पहलू को जोड़ने के लिए नवाचारी उपायों की जरूरत है। समिति ने सुझाव दिया था कि शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों द्वारा अपने पाठ्यक्रम को इस रूप में निíमत किया जाए ताकि प्रशिक्षुओं को पूवरेत्तर के मामलों पर संवेदनशील बनाया जा सके और शेष भारत के विश्वविद्यालयों व स्कूलों के कक्षा कार्यक्रम में पूवरेत्तर पर प्रोजेक्ट बनवाना अनिवार्य किया जाए।

इसीलिए जब हाल में इस यूट्यूबर द्वारा नस्लीय टिप्पणी की गई तो बेजबरुआ समिति की अनुशंसाएं फिर से चर्चा में आ गईं। इंटरनेट मीडिया के मंचों पर यह चर्चा का विषय बन गया। यह मांग की जाने लगी है कि एनसीईआरटी और सीबीएसई की पाठ्य पुस्तकों में पूवरेत्तर के इतिहास, सांस्कृतिक विशेषताओं, महान व्यक्तियों और इस क्षेत्र की भूमिका को उचित प्रतिनिधित्व दिया जाए।

इस बहस के साथ भारत के दूसरे हिस्सों में इन लोगों के साथ हो रहे नस्लीय भेदभाव एक बार फिर से केंद्र में आ गए हैं। यहां यह समझना होगा कि भौगोलिक रूप से शेष भारत से कटा हुआ यह हिस्सा ऐतिहासिक अलगाव का भी शिकार रहा है। मालूम हो कि ब्रिटिश काल में पूवरेत्तर भारत उनके संसाधनीय साम्राज्यवाद का मुख्य आकर्षण केंद्र हुआ करता था। अपने इन्हीं हितों को पूरा करने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन, 1873 लाया गया था। शेष भारत से पूवरेत्तर भारत जाने के लिए इनर लाइन परमिट के जरिये अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया गया। इसके पहले धाíमक, सांस्कृतिक और व्यापारिक रूप में शेष भारत और पूवरेत्तर भारत के मध्य अंतरसंपर्क के अनेक साक्ष्य मिलते हैं, पर इनर लाइन परमिट व्यवस्था के बाद से भौगोलिक दूरी सामाजिक दूरी के रूप में दिखने लगी।

जब भारत में राष्ट्रीय आंदोलन अपने चरम पर था, तब पूवरेत्तर भारत में भी उसका असर दिख रहा था। कुछ आंदोलन स्वतंत्र रूप में तो कुछ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के भाग के रूप में इस क्षेत्र में दिखते थे। पश्चिमी साम्राज्यवादी देश कभी भी भू-राजनीतिक रूप में भारत को एक ताकतवर देश के रूप में नहीं देखना चाहते थे, इसीलिए फूट डालो और शासन करो की जो नीति उन्होंने शुरू की उसका असर आजादी के बाद दिखने लगा। अलग नृजातीय पहचान के कारण स्वाभाविक था कि इस क्षेत्र के लोगों में स्वायत्तता की भावना प्रबल थी और वे भारतीय एकीकरण में अपनी मूल पहचान को खत्म नहीं करना चाहते थे। पर समस्या जितनी अलग नृजातीय पहचान की नहीं थी उससे अधिक राजनीतिक और सामाजिक एकीकरण की थी। प्रारंभिक दौर में हमारा ध्यान इस क्षेत्र के साथ शेष भारत के संवाद, संपर्क और समायोजन की गतिविधियों को बढ़ावा देने से अधिक यथास्थिति को बनाए रखने की रही।

इस क्षेत्र के बारे में आम भारतीयों की राय नकारात्मक होने की कई वजह है। इन्हें अक्सर सुरक्षा बोझ के रूप में देखा जाता रहा है। चीन और म्यांमार की तरफ से बढ़ते लोग हमारी अखंडता को प्रभावित कर रहे हैं और हमें लगता है कि इसके लिए यहां के लोग ही जिम्मेदार हैं। चूंकि यह गोल्डन ट्राइएंगल के पास अवस्थित है, इसलिए अक्सर ड्रग्स और हथियारों की तस्करी से भी इसे जोड़कर देखा जाता है। हालांकि भविष्य में भारत का ग्रोथ इंजन बनने की संभावना रखने वाला यह क्षेत्र आíथक, सामरिक, सांस्कृतिक हर दृष्टि से भारत का गौरव है। पर शायद हम, हमारी सरकार और हमारा समाज अपने ही इस अभिन्न भाग के महत्व को अनदेखा करते आ रहे हैं। भारतीय दिखने से नहीं, बल्कि भारतीय होने से भारतीयता समृद्ध होती है। यह बात पूवरेत्तर और अन्य भारतीय क्षेत्रों के लोगों को भी समझनी चाहिए। किसी सामान्य वार्तालाप के दौरान पूवरेत्तर और शेष भारत शब्द का इस्तेमाल दिखते ही एक अलगाववादी भावना का बोध करा दिया जाता है जो उचित नहीं है।

देश की मुख्यधारा में जोड़ने का हो प्रयास: समय के साथ साथ पूवरेत्तर की समस्याएं भी जटिल होती गई हैं। पर यह समस्या इतनी जटिल न होती अगर भारत की भारतीयता में एक झलक पूवरेत्तर का भी होता। जहां हम भारत के अन्य हिस्सों के लोकगीतों, लोक नृत्य, वेशभूषा आदि से काफी परिचित हैं, वहीं इस क्षेत्र से बेगानापन कई प्रश्न खड़े करता है। आज भी बॉलीवुड से लेकर साहित्य या खेलकूद आदि के क्षेत्र में भारत के अन्य हिस्सों की तुलना में पूवरेत्तर से प्रतिनिधित्व बेहद कम है। इसलिए इंटरनेट मीडिया के एक खास मंच के माध्यम से चल रहा यह एक वाजिब मुहिम है जो इस क्षेत्र को भारत की मुख्यधारा से जोड़ने का कार्य कर सकता है, लेकिन यह एक कृत्रिम पहल के रूप में नहीं होना चाहिए। इनसे जुड़ना अपने आप से जुड़ना जैसे होना चाहिए। इसकी शुरुआत हमारी शिक्षा व्यवस्था में पाठ्यक्रम में इन्हें पर्याप्त स्थान देकर ही हो सकती है, क्योंकि बच्चों में पूवरेत्तर के संबंध में सुनी सुनाई छवि के स्थान पर वास्तविक छवि बननी चाहिए ताकि जब भी किसी पूवरेत्तर के व्यक्ति से मिलना हो तो अजनबियत का भाव न हो। हमें शेष भारत को बताना होगा कि भारत के इतिहास में पूवरेत्तर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इनकी समृद्ध संस्कृति के प्रति आकर्षण भी हममें होना चाहिए।

भारत जैसे बहुनृजातीय और बहुसांस्कृतिक देश में नस्लभेद विरोधी शैक्षणिक संस्कृति का विकास होना बहुत जरूरी हो गया है। शिक्षा, कला, संस्कृति, साहित्य, भाषा, खेल, राजनीति हर क्षेत्र में नस्लीय भेदभावों और सोच से परे एक स्वस्थ मानसकिता का विकास होना जरूरी है। इस क्षेत्र को इसका इंतजार है। जब एनसीईआरटी और सीबीएसई के पाठ्यक्रमों में यह बताया जाएगा कि उत्तर भारत जिस होली के पर्व को मनाता है, मणिपुर उसे ही याओसांग नाम से मनाता है। इसी तरह लाई हारोबा मणिपुर और त्रिपुरा में धूमधाम से मनाया जाता है। इस क्षेत्र के लिए हमें यूनेस्को की सोच से जुड़ कर भी काम करना चाहिए। यूनेस्को का जिक्र यहां इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि यूनेस्को ने ही मणिपुर के संकीर्तन उपासना पद्धति को अपने अमूर्त धरोहर की सूची में शामिल किया था जो मेइती समुदाय के वैष्णव आराधकों के लिए एक बड़ी सांस्कृतिक पहचान है।

लेप्चा हो या मिसिंग, नगा हो या कुकी, ब्रू हो या बोडो, सबको शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का अधिकार है, सम्मान और गरिमा का अधिकार है। अब इस अधिकार के प्रति शेष भारत के मन में सम्मान का भाव बढ़े, इसके लिए स्कूली शिक्षा के दौरान ही बच्चों में इस क्षेत्र के लिए एक सहिष्णु समावेशी सोच विकसित कराने पर बल देना चाहिए। इसके लिए एनसीईआरटी और सीबीएसई में पूवरेत्तर के गरिमामय अस्तित्व और उसकी पहचान पर अध्याय होने चाहिए, ताकि जिस तरह ईद, होली, दीवाली, रमजान के प्रति आपसी सौहाद्र्र देखने को मिलता है, ऐसे ही पूवरेत्तर भारत के सांस्कृतिक त्योहारों के प्रति भी जिज्ञासा और उत्सवधíमता का भाव विकसित हो। पूवरेत्तर भारत पर्यावरणीय अनुभव और सांस्कृतिक समृद्धि की खान है, लिहाजा खानपान को लेकर भी उस पर नस्लीय टिप्पणी न हो, इस बात को सुनिश्चित करने की जरूरत है। एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि इस क्षेत्र के लोगों खासकर युवाओं को भी भारतीय संघ के प्रति सम्मान का भाव रखना जरूरी है।

यदि खानपान के स्तर पर भी पूवरेत्तर के साथ भेदभाव किया जाएगा तो त्रिपुरा के नेता से यही सुनने को मिलेगा कि यदि आपको अपने चिकेन बिरयानी को मेनस्ट्रीम फूड होने पर नाज है तो हमें हमारे पीठा, अखुनी और गाज टेंगा पर नाज है। ऐसे विवादों को खत्म करने का तरीका यही है कि ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ कार्यक्रम के मूल भावों से जुड़ कर काम किया जाए। सिक्किम का छात्र बिहार के बाटी चोखा के बारे में जाने और बिहार का छात्र ढिंडो, किनीपा, थुकपा के बारे में जाने। यहां का खानपान केवल मोमोज के रूप में न जाना जाए। कुल मिलाकर इस क्षेत्र में यह विश्वास उत्पन्न होना चाहिए कि वह भारत का अभिन्न अंग है और भारत के सभी राज्यों में पूवरेत्तर के लिए बंधुत्व भाव का विकसित होना अखंड भारत के लिए अनिवार्य शर्त है जिसे किसी के निहित स्वार्थो की बलि चढ़ाने से बचना होगा।

[पूवरेत्तर मामलों के जानकार]