ए. सूर्यप्रकाश। पूरी दुनिया करीब डेढ़ साल से कोविड-19 महामारी के स्नोत पर बहस कर रही है। एक आशंका यही जताई जा रही है कि कहीं यह चीन की किसी प्रयोगशाला में हुई घातक शरारत का परिणाम तो नहीं था। यह संदेह इससे और बढ़ जाता है कि चीन ने वुहान की संदिग्ध प्रयोगशाला में पड़ताल के लिए वहां प्रवेश देने को लेकर शुरुआत में हिचक दिखाई थी। डब्ल्यूएचओ के गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार ने इन आशंकाओं को और बल दिया। ऐसी चर्चा आम थी कि चूंकि डब्ल्यूएचओ के मुखिया टेड्रोस अधानोम चीनी अहसानों के बोझ तले दबे हैं तो वह उसे लेकर कोई सख्त कदम नहीं उठाएंगे। यह संदेह तब और गहरा गया जब चीन ने जांच के लिए गई डब्ल्यूएचओ की टीम के साथ बहुत अजीब व्यवहार किया। दरअसल चीन चाहता ही नहीं था कि कोविड के उद्गम की सही और निष्पक्ष जांच हो।

कोविड-19 से जुड़ी डब्ल्यूएचओ की जांच में चीनी अवरोधों पर दुनिया के कई मीडिया संस्थानों ने मुखरता से आवाज उठाई है। जापानी अखबार सान्की शिंबुन ने इस जांच को वैज्ञानिक न बताकर उलझाऊ करार दिया। उसके अनुसार डब्ल्यूएचओ की टीम को स्वतंत्र रूप से लोगों के साक्षात्कार करने और प्रमुख स्थानों तक जाने से रोका गया। टीम ने वायरस के उद्गम की पर्याप्त जांच नहीं की। चूंकि डब्ल्यूएचओ के निष्कर्षों में बहुत झोल है तो नए सिरे से निष्पक्ष जांच कराई जानी चाहिए। उक्त अखबार ने डब्ल्यूएचओ की टीम को चीन के रंग में रंगा हुआ पाया और उसकी जांच के नतीजों को खोखला बताते हुए खारिज कर दिया। अधानोम की ओर अंगुली उठाते हुए अखबार ने कहा कि वह जितनी जल्दबाजी में चीन को क्लीन चिट देने की जुगत में लगे थे, उससे डब्ल्यूएचओ पर भरोसा बहुत घट गया। यदि संस्थान वैश्विक समुदाय का भरोसा फिर से हासिल करना चाहता है तो उसे अवश्य ही नए सिरे से जांच का आदेश देना चाहिए। इस मामले में अपनी टीम और संगठन के अधिकारों की रक्षा में हिचक दिखाने को लेकर अधोनाम के रवैये पर हैरानी हो सकती है। यही कारण है कि पिछले दो वर्षो के दौरान डब्ल्यूएचओ और उसकी गतिविधियां संदेह के घेरे में आईं।

हाल में अमेरिका गए प्रधानमंत्री मोदी ने इस पर कोई बात नहीं की, लेकिन संयुक्त राष्ट्र महासभा के मंच से यह जरूर कहा कि वैश्विक गवर्नेस के जिन संस्थानों की साख कई दशकों में बनी उस पर कोविड की जांच और ईज आफ डूइंग बिजनेस जैसे मसलों के कारण बदनुमा दाग लगा। उन्होंने कहा कि वैश्विक गवर्नेस के संस्थानों पर आज हर तरह के सवाल उठ रहे हैं। वैसे उन्होंने किसी संस्थान या देश का नाम नहीं लिया। उनका इशारा कोविड-19 वैश्विक महामारी पर डब्ल्यूएचओ की हीलाहवाली और चीन के संदिग्ध रवैये से लेकर विश्व बैंक की ईज आफ डूइंग बिजनेस रपट में चीनी साठगांठ की ओर था।

डब्ल्यूएचओ के अलावा विश्व बैंक की साख भी हाल में बहुत धूमिल हुई है। अपनी ईज आफ डूइंग बिजनेस रपट के विवादों में घिरने के बाद बैंक ने उसे वापस ले लिया। उसमें चीन के अनुकूल आंकड़े तैयार किए गए थे, जिसकी तीखी आलोचना हुई थी। इससे पता चलता है कि ये संस्थान किस प्रकार संचालित होते हैं। यह निश्चित ही विश्व बैंक के इतिहास में सबसे कलंकित अध्याय होगा। जाने-माने अर्थशास्त्री एवं टिप्पणीकार एस. गुरुमूर्ति ने विश्व बैंक की कार्यप्रणाली पर विस्तृत अध्ययन किया है। उनके अनुसार, ‘दशकों से जारी रैंकिंग के इस खेल को न तो कोई चुनौती दी गई और न ही उसकी जांच हुई। अब संयोगवश बैंक द्वारा की जाने वाली प्रतिष्ठित ईज आफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग की पोल खुली, जिसमें चीनी धोखाधड़ी सामने आई है। इससे रैंकिंग प्रणाली की गहन जांच की जरूरत महसूस हो रही है। असल में यह लुभावना पेशा है और पता लगे कि इसे करने वालों को कौन पैसा देता है, उनका मकसद क्या है और देशों की रैंकिंग तय करने के उनके पैमाने क्या हैं।

आखिर वे किस आधार पर अच्छे देश, साफ्ट पावर, पारदर्शिता, स्वतंत्रता, अस्थिरता, मानव विकास, प्रसन्नता मापक और सामाजिक प्रगति जैसे मापदंडों का फैसला करते हैं।’ वह कहते हैं कि ला फर्म विल्मर हेल द्वारा किए गए रैंकिंग के आडिट में यह उजागर हुआ कि विश्व बैंक के वरिष्ठ अधिकारियों ने चीन और सऊदी अरब की खुशामद के लिए काम किया। इसमें सामने आया कि 2018 और 2020 के लिए विश्व बैंक की रैंकिंग को क्रिस्टालीन जार्जीवा ने प्रभावित किया, जो 2017 से 2019 के बीच बैंक की मुख्य कार्याधिकारी रहीं। उन्होंने चीन की बेहतर रैंकिंग के लिए दबाव बनाया। रिपोर्ट का संदर्भ देते हुए गुरुमूर्ति ने कहा, ‘चीन की रैंकिंग सुधारने में जार्जीवा प्रत्यक्ष रूप से सक्रिय हो गईं। इसमें रैंकिंग के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया में परिवर्तन को बढ़ावा देना भी शामिल था।’ ऐसे खतरनाक मंसूबों के बावजूद यही मोहतरमा अब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रबंध निदेशक बनी हुई हैं। इन संस्थानों के उदाहरण यही बताते हैं कि शक्तिशाली देश कैसे उनकी कार्यप्रणाली को प्रभावित करते हैं। पश्चिमी देश यह काम कुछ दबे-छिपे करते आए हैं, लेकिन चीन बहुत बेशर्मी से यह सब कर रहा है। वह अपने आर्थिक और राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाने में इन संस्थानों के दोहन में लगा है। अगर विश्व बैंक और डब्ल्यूएचओ जैसे संस्थानों की यह दशा है तो फिर वी-डेम या रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्स सहित अन्य तमाम पश्चिमी थिंक टैंक की रैकिंग पर कैसे भरोसा किया जा सकता है, जो लोकतंत्र और मीडिया की स्वतंत्रता जैसे तमाम पहलुओं पर रैंकिंग जारी करते हैं।

महासभा में प्रधानमंत्री मोदी का यह कहना यथार्थ ही था कि अगर संयुक्त राष्ट्र को प्रासंगिक बने रहना है तो उसे विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए तत्परता दिखानी होगी। मोदी यह करने में सक्षम हैं, क्योंकि प्रत्येक रैंकिंग में भारत ने हमेशा नियमों का सम्मान किया है। आचार्य चाणक्य के हवाले से उन्होंने दुरुस्त ही कहा कि-यदि सही समय पर सही काम पूरा न हो तो समय ही उस काम की सफलता को समाप्त कर देता है। संयुक्त राष्ट्र को इसका अवश्य संज्ञान लेना चाहिए। यदि वह कुछ अनैतिक देशों और व्यक्तियों को वैश्विक संस्थानों से छेड़छाड़ की अनुमति देता रहेगा तो उसकी प्रासंगिकता और प्रभाव पर गंभीर प्रश्न उठते रहेंगे।

(लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)