डॉ. मोनिका शर्मा। देश के उन अधिकांश राज्यों या महानगरों से प्रवासी श्रमिक अपने गांव-घर लौट रहे हैं, जहां दशकों से वे किसी न किसी छोटे-मोटे उद्योग धंधे से जुडे हुए थे या फिर दिहाड़ी मजदूर के रूप में या रेहड़ी-पटरी पर कोई काम करके अपना गुजारा चला रहे थे। कई तो ऐसे भी हैं जो कहीं मैकेनिक, निर्माण मजदूर, कामगार आदि के रूप में कार्यरत थे।

इसे रोजगार छूट जाने के बाद नगरों या महानगरों में गुजारा होना मुश्किल कहें या फिर महामारी के दौर में अपनों के साथ रहने की इच्छा या अपने पैतृक आंगन में लौट जाने का भावनात्मक जुड़ाव, अब तक इन कारणों से लाखों की संख्या में मजदूर देश के दूर-दराज के गांवों में पहुंच चुके हैं और पहुंच रहे हैं। ऐसे में यह विचारणीय है कि तपती सड़क पर पैदल चलकर या फिर ट्रक, बस, ट्रेन आदि के जरिये गांव पहुंचने के बाद भी मजदूरों की समस्याएं खत्म नहीं होने वाली हैं।

कोरोना संक्रमण की वजह से सेहत सहेजने और सरकार की मदद के मोर्चे पर जो परेशानियां उनके हिस्से आई हैं, उससे कहीं ज्यादा परेशानियां श्रमिकों को समाज और परिवार के मोर्चे पर भी ङोलनी हैं। गांव लौट रहे मजदूरों की टोलियों से गांवों में बढ़ता जन-दबाव वहां की पूरी सामाजिक-पारिवारिक रूपरेखा को बदलने वाला साबित होगा। इस महामारी के दौर में बरसों बाद घर लौट रहे कई मजदूरों को वहां भी रोजगार के मोर्चे पर तो मुश्किलें ङोलनी ही हैं, अपनों-परायों के व्यवहार के पहलू पर भी उपेक्षा का रवैया उनके हिस्से आए तो कोई हैरानी की बात नहीं होगी।

दरअसल ग्रामीण समाज भी अचानक इस बढ़ते जन-दबाव को ङोलने के लिए तैयार नहीं है। यही वजह है कि इतनी बड़ी संख्या में प्रवासियों का घर लौटना गांवों में कई चुनौतियों को भी जन्म देगा। चिंतनीय यह भी है कि महामारी के बीच हमारे देश में गांवों-कस्बों में सामुदायिक स्वास्थ्य सेवाओं और बुनियादी सुविधाओं की स्थिति भी कुछ खास अच्छी नहीं है। इतना ही नहीं, अचानक अपनों के बीच लौट रहे प्रवासी श्रमिकों को सामाजिक संबंधों के मोर्चे पर भी बहुत कुछ अजब-अनपेक्षित देखने को मिल सकता है। कई मजदूर परिवार सहित बरसों बाद घर लौट रहे हैं। इस दौरान कभी काम छूट जाने की मजबूरी के चलते तो कभी आने-जाने का खर्च न कर पाने की स्थिति में जाने कितने ही सुख-दुख के मौकों पर वे अपनों के पास नहीं पहुंच पाए होंगे। ऐसे लाखों परिवार बरसों से अपने घर आंगन से दूर महानगरों में गुजर-बसर कर रहे थे। अब घर लौट आने की वजह बन रही कोरोना त्रसदी के समय सामाजिक-पारिवारिक पहलू पर उनके प्रति गांव या घर में कितनी सहज स्वीकार्यता होगी? यह एक व्यावहारिक और विचारणीय पहलू है।

यह कटु सच है कि उनके अपनों के पास पीड़ा के इस दौर में भी उलाहने देने और दूरियां बनाने के कारणों की एक लंबी फेहरिस्त होगी। यों भी इस संक्रामक बीमारी के डर ने दूरियां बनाने का बहाना दे ही दिया है। इन दिनों ऐसी कई खबरें भी आई हैं जो गांव लौटे मजदूरों के प्रति अपनों-परायों के उपेक्षा भरे व्यवहार की बानगी बनी हैं। कई मजदूरों ने कहा कि उनके घर वाले उनके साथ अजनबियों जैसा बर्ताव कर रहे हैं। गांव वाले उनसे दूरी बना रहे हैं। इतना ही नहीं, संक्रमण फैलने के डर से करीबी लोग भी उन्हें गांव नहीं आने की सलाह दे रहे हैं। हालांकि कमाई बंद हो जाने के चलते श्रमिकों के पास अपने गांव लौटने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं बचा है, पर सच यह भी है कि इस तकलीफदेह दौर में अपनों के बीच पहुंचते ही सब सहज हो जाने की उम्मीद भी बेमानी है।

दरअसल इस बीमारी से जुड़ी जागरूकता की कमी, बरसों बाद अचानक घर लौट आए पांच-सात सदस्यों को अपनाने से जुड़ी उलझनें और घर लौटे अपनों को उनकी जमीन-घर का हिस्सा देने की जद्दोजहद जैसे कई कारणों के चलते गांव-घर पहुंचे श्रमिकों के परिवार वहां भी कई परेशानियों से जूझने को विवश होंगे। उल्लेखनीय है कि रोजी-रोटी के लिए महानगरों में आ बसे मजदूरों के परिवार कितने ही बरसों से अपने हिस्से की जमीन और घर-बार को छोड़ चुके हैं। उनका हिस्सा वहां रह रहे सगे-संबंधी इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे में श्रमिकों की परिवार सहित वापसी, आपसी रिश्तों में भी कई उतार-चढ़ाव लाएगी। कोई हैरानी नहीं कि ऐसी स्थितियां आने वाले समय में ग्रामीण समाज में आपसी रंजिश और अपराध के आंकड़े बढ़ने की भी वजह बन जाएं। कहना गलत नहीं होगा कि अपार कष्ट ङोलकर अपने गांव पहुंचे श्रमिकों का अभी अपने आंगन में भी कई तकलीफों से जूझना बाकी है। घर लौटे लाखों प्रवासी वहां अपना गुजारा कैसे करेंगे? उनके अपने ही गांव-घर उनकी सहायता के लिए कितने तैयार हैं? गांवों में सामुदायिक स्वास्थ्य सेवाएं इन हालातों को कितना संभाल पाएंगी? ऐसे कितने ही चिंतनीय प्रश्न सरकार, समाज और श्रमिक परिवारों के लिए अनुत्तरित बने हुए हैं।

महामारी के बढ़ते संक्रमण के बीच हमारे देश में दूसरे राज्यों से अपने पैतृक घर लौटने वाले श्रमिकों का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है। आज भी रोजाना सौ से अधिक श्रमिक स्पेशल गाड़ियां मजदूरों को गांवों तक पहुंचाने में लगी हुई हैं। अफसोसनाक है कि महानगरों से गांव जा रहे मजदूरों को आगे भी कई विसंगतियों के मोर्चो पर लड़ाई लड़नी है। दुनिया को हिला देने वाली इस त्रसदी से जीवन का आíथक, सामाजिक, पारिवारिक या मनोवैज्ञानिक कोई पहलू नहीं बचा है। ऐसे में रोज कमाने, रोज खाने वालों की मुसीबतों का तो कोई अंत ही नहीं दिखता। न शहरों में और न ही गांवों में। लिहाजा सरकार और समाज को मिलकर इस संकट का हल तलाशना होगा, अन्यथा इससे गांव-समाज में रंजिशों का एक व्यापक दौर शुरू हो सकता है।

[सामाजिक मामलों की जानकार]