[पीयूष द्विवेदी]। पश्चिम बंगाल इस समय लगातार चर्चा में बना हुआ है, मगर दुर्भाग्यवश चर्चा के कारण नकारात्मक हैं। बीते दिनों डॉक्टरों पर हमले के बाद राज्य सरकार के अड़ियल रवैये के कारण उनकी हड़ताल का जो प्रकरण घटित हुआ, उसका असर पूरे देश में दिखाई दिया। शुरुआत में डॉक्टरों के प्रति अनावश्यक सख्ती दिखाने के बाद आखिर ममता सरकार को उनके आगे झुकना पड़ा और उनकी मांगें माननी पड़ीं, लेकिन यही काम यदि पहले कर लिया गया होता तो यह मामला शायद इतना न बिगड़ता। दूसरी तरफ केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दिशा-निर्देश जारी करते हुए पश्चिम बंगाल सरकार पर राज्य में हिंसा रोकने एवं कानून का शासन सुनिश्चित करने में विफल रहने का आरोप लगाया है। साथ ही केंद्र ने ममता सरकार से राजनीतिक हिंसा और उसके दोषियों पर हुई कार्रवाई का विवरण देने को भी कहा है।

गृह मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के मुताबिक बीते वर्षों के दौरान राज्य में राजनीतिक हिंसा की घटनाओं में लगातार इजाफा हुआ है। वर्ष 2017 में जहां बंगाल में 509 राजनीतिक हिंसा की घटनाएं हुई थीं, वहीं 2018 में यह आंकड़ा 1035 तक जा पहुंचा, जबकि इस वर्ष अभी इन छह महीनों में ही 773 हिंसा की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। इन आंकड़ों से इतर हाल के कुछ वर्षों में बंगाल की राजनीति का अवलोकन करने पर भी यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्य में कानून-व्यवस्था की क्या स्थिति है।

अभी बीते लोकसभा चुनाव और उससे पूर्व पंचायत चुनाव में ही बंगाल में जो हिंसात्मक घटनाएं हुईं, वे राज्य की कानून-व्यवस्था की कलई खोलने के लिए काफी हैं। भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या और उन पर हमले के जो मामले सामने आए हैं, वे ममता सरकार के अपराध एवं अपराधियों के आगे बेबस हो चुकी कानून-व्यवस्था की ही कहानी कहते हैं। इसके अलावा मालदा, धूलागढ़, रानीगंज, आसनसोल आदि राज्य के अनेक क्षेत्रों में सांप्रदायिक टकराव की घटनाएं भी यही बताती हैं कि अराजकता और अशांति बंगाल की नियति बन गई हैं। ऐसे में बंगाल की उक्त स्थिति को देखते हुए गृह मंत्रालय की तरफ से कानून-व्यवस्था को लेकर जानकारी मांगना उचित ही है, परंतु ममता बनर्जी इस विषय को भी राजनीति से जोड़ते हुए केंद्र पर आरोप लगाने में लगी हैं। उन्हें गृह मंत्रालय द्वारा जवाब मांगने में भी राजनीति नजर आ रही है।

विरोध की राजनीति

ऐसा प्रतीत होता है कि दिल्ली में केंद्र से जो टकराव की राजनीति केजरीवाल सरकार करती रही है, बंगाल में ममता सरकार उससे भी दो कदम आगे निकल चुकी है। देखा जाए तो वास्तव में उनका विरोध केंद्र की सरकार से नहीं, भाजपा से है। इसी कारण वर्ष 2014 में जब केंद्र में भाजपा की सरकार आई, उसके बाद से ही केंद्र से उनके संबंध बिगड़ने शुरू हो गए। कोई भी विषय हो, वे आंख बंद करके केंद्र सरकार के विरोध में उतरी रहती हैं। अभी हाल ही में जिस तरह कोलकाता के पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से शारदा चिटफंड मामले में पूछताछ करने गई सीबीआइ के साथ ममता सरकार ने बर्ताव किया, वह केंद्र के साथ उनके टकराव का सबसे ताजा और सशक्त उदाहरण है। हालांकि इसी मामले में जब न्यायालय ने राजीव कुमार को पूछताछ के लिए सीबीआइ के समक्ष उपस्थित होने का फैसला सुनाया तो इससे ममता सरकार को सबक लेना चाहिए था, मगर उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ा।

केंद्रीय योजनाओं की उपेक्षा

ममता बनर्जी ने बंगाल में तमाम केंद्रीय योजनाओं को भी लागू नहीं किया है। केंद्र सरकार की गरीबों को पांच लाख तक का मुफ्त स्वास्थ्य बीमा देने वाली आयुष्मान योजना वहां लागू नहीं की गई है। इस योजना के तहत 60 प्रतिशत खर्च केंद्र को और 40 प्रतिशत राज्य सरकार को वहन करने का प्रावधान है, बस इसी बात को मुद्दा बनाकर ममता बनर्जी ने अपने हिस्से का खर्च वहन करने से इन्कार करते हुए इस योजना से बाहर रहने का एलान कर दिया। स्वास्थ्य, राज्य सूची का मामला है, लिहाजा इसमें राज्य सरकार की सहमति के बिना केंद्र बहुत कुछ कर नहीं सकता। ममता का ऐसा ही गतिरोधी रुख ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना’ को लेकर भी है जिसका पूरा खर्च केंद्र वहन कर रहा है। किसान सम्मान निधि योजना में राज्यों की भूमिका बस इतनी है कि उन्हें अपने यहां से इस राशि की पात्रता रखने वाले किसानों की सूची भेजनी है, लेकिन केंद्र द्वारा बार- बार कहे जाने के बावजूद अब तक पश्चिम बंगाल से सूची नहीं भेजी गई है, जिस कारण वहां के किसान इस योजना के लाभ से वंचित हो रहे हैं। गौरतलब है कि संविधान में केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर तमाम प्रावधान करते हुए यही अपेक्षा की गई है कि ये दोनों परस्पर समन्वय और समझ के साथ राष्ट्र की प्रगति के लिए कार्य करेंगे, मगर अभी केंद्र और पश्चिम बंगाल सरकार के बीच जो संबंध दिख रहे हैं, वे इस संवैधानिक अपेक्षा के बिल्कुल ही विपरीत हैं।

विविधता पर हमला

संविधान जो भी कहता हो, लगता है कि ममता बनर्जी को उससे कोई ज्यादा सरोकार नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे बंगाल में एक अलग ही शासन का ढर्रा जमाने में जुटी हुई हैं। हाल के उनके कुछ निर्णयों एवं वक्तव्यों पर नजर डालें तो यह बात कुछ हद स्पष्ट होती नजर आती है। चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने कहा

था कि वे नरेंद्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री ही नहीं मानतीं। देश के मतदाताओं द्वारा बहुमत से चुने गए प्रधानमंत्री के प्रति एक राज्य की मुख्यमंत्री का इस तरह की बात कहना क्या देश की जनता और लोकतांत्रिक व्यवस्था का अपमान नहीं है? अब उन्होंने एक और फरमान सुनाया है कि बंगाल में रहना है तो बांग्ला भाषा

ही बोलनी होगी। बांग्ला बोलने में कोई बुराई नहीं है, मगर उसे इस तरह सब पर थोपना भारतीय संस्कृति की विविधता पर कुठारघात करने के साथ-साथ संविधान प्रदत्त स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन भी है। इसी तरह पिछले दिनों राज्य में जय श्रीराम का नारा लगाए जाने पर गिरफ्तारी करवाकर भी ममता बनर्जी ने बंगाल में अपने अलोकतांत्रिक शासन का ही एक नमूना पेश किया।

सियासी जमीन खिसकने का डर

दरअसल बंगाल में भाजपा के बढ़ते जनाधार और राजनीतिक सफलताओं को देखते हुए कहीं न कहीं ममता बनर्जी को यह लगने लगा है कि राज्य में उनकी राजनीतिक जमीन खिसक रही है। शायद इसी कारण उन्होंने अपनी राजनीति को भाजपा विरोध की तरफ एकोन्मुख कर रखा है। किसी भी बात पर वह भाजपा और

उसके नेतृत्व वाली सरकार का विरोध करने का मौका नहीं छोड़ रही हैं। केंद्र की योजनाओं को राज्य में लागू कर वे भाजपा को किसी प्रकार का श्रेय नहीं देना चाहती हैं, परंतु अपनी इस राजनीति के उत्साह में ममता बनर्जी भूल गई हैं कि वे सिर्फ टीएमसी की नेता नहीं, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री भी हैं और इस नाते उनका संवैधानिक दायित्व बनता है कि केंद्र के साथ मिलकर राज्य की जनता के कल्याण और विकास के लिए काम करें। संघीय ढांचे में केंद्र और राज्य दोनों को परस्पर समझ एवं सहयोग की भावना के साथ काम करना होता है। संविधान में इसी का प्रतिपादन किया गया है, परंतु लगता है कि ममता बनर्जी अपने राजनीतिक हित के लिए संघीय ढांचे को भी नुकसान पहुंचाने में लगी हैं। माना जा रहा है कि वे ताकत के दम पर अपनी सत्ता को स्थायी करना चाहती हैं, मगर उन्हें समझना चाहिए कि यह लोकतंत्र है, जहां ताकत से नहीं, जनमत से निर्णय होते हैं और जनमत को अपने पक्ष में करने का केवल एक ही उपाय है कि संकीर्ण राजनीतिक हितों एवं स्वार्थों को छोड़ सकारात्मक सोच के साथ देश की प्रगति के लिए कार्य किया जाए। अन्यथा लोकसभा चुनाव में जिस जनता ने उनकी सीटें कम की है, वह विधानसभा में उनका सूफड़ा भी साफ कर सकती है।

संविधान में केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर तमाम प्रावधान करते हुए यही अपेक्षा की गई है कि ये दोनों परस्पर समन्वय और समझ के साथ राष्ट्र की प्रगति के लिए कार्य करेंगे, मगर अभी केंद्र और पश्चिम बंगाल सरकार के बीच जो संबंध दिख रहे हैं, वे इस संवैधानिक अपेक्षा के बिल्कुल विपरीत नजर आ रहे हैं। ममता बनर्जी बंगाल में एक अलग ही शासन का ढर्रा जमाने में जुटी हुई हैं। हाल के उनके कुछ निर्णयों पर नजर डालें तो यह बात कुछ हद स्पष्ट होती नजर आती है।

[स्वतंत्र टिप्पणीकार]

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