प्रदीप सिंह। सपने देखना, महत्वाकांक्षी होना और उसके लिए प्रयास करना स्वाभाविक बात है, पर अति किसी भी चीज की बुरी होती है। अति महत्वाकांक्षा कई बार व्यक्ति या संगठन को बंद गली में धकेल देती है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की विपक्षी एकता की धुरी बनने और उसका नेतृत्व करने की कोशिश को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। उनके कामयाब होने की जितनी संभावना है, उससे ज्यादा नाकामी की आशंका। ममता एक मरीचिका के पीछे भाग रही हैं। उन्हें लग रहा है कि कांग्रेस के कमजोर होने से मुख्य विपक्षी दल की जगह खाली हो गई है।

उन्हें यह भी लग रहा है कि राहुल गांधी की अकर्मण्यता और पूर्णकालिक राजनीति में अरुचि से विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व उनकी पहुंच के दायरे में है। उन्हें मुगालता हो रहा है कि वह कांग्रेस का विकल्प बन सकती हैं और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती दे सकती हैं। तीसरी बार बंगाल जीतने के बाद ममता को लग रहा है कि अब उनके प्रधानमंत्री बनने का समय आ गया है। उन्होंने अपना अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा छोड़ दिया है।

जुलाई में ममता दिल्ली आईं तो संधि का प्रस्ताव लेकर आईं। वह सोनिया गांधी से मिलीं। हो सकता है कि उस समय संप्रग अध्यक्ष या संयोजक के पद से बात बन जाती, पर राहुल गांधी की उपस्थिति ने उन्हें प्रस्ताव रखने से रोक दिया। वह लौटकर कोलकाता गईं और नई रणनीति पर विचार किया। भाजपा से लड़ते-लड़ते वह अब कांग्रेस से लड़ने लगी हैं। उन्हें लग रहा है कि उनके रास्ते की बाधा कांग्रेस या सही मायने में कहें तो गांधी परिवार है। इसलिए गांधी परिवार पर हमला बोल दिया। गांधी परिवार पर हमला बोलने के लिए राहुल पर हमला बोलना काफी है।

उन्होंने पहला हमला राहुल की विदेश यात्राओं के मुद्दे पर बोला, फिर अपने रणनीतिकार प्रशांत किशोर से हमला करवाया कि कांग्रेस का नेतृत्व किसी का दैवीय अधिकार नहीं है। प्रधानमंत्री बनने की ममता की महत्वाकांक्षा को हवा दे रहे हैं, प्रशांत किशोर। उन्होंने उन्हें समझा दिया है कि गांधी परिवार को रास्ते से हटाइए और फिर आपके अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े की रास पकड़ने वाला कोई नहीं होगा।

ममता ने इसके लिए पहले जिन दो दलों के नेताओं का दरवाजा खटखटाया, उनके अतीत को भूल गईं। मुंबई जाकर वह शरद पवार से मिलीं। वही शरद पवार, जिन्होंने अपने राजनीतिक गुरु को ही दगा दे दिया था। वह जहां दिखते हैं, वहां होते नहीं और जहां होते हैं, वहां दिखते नहीं। राजनीति में उनका एक ही सिद्धांत है कि उन्होंने कभी किसी सिद्धांत को नहीं माना। शरद पवार मुट्ठी में बंद रेत की तरह हैं। कब फिसल जाएंगे, पता नहीं। दूसरे हैं, उद्धव ठाकरे। उन्होंने अपने पिता और पार्टी के संस्थापक के बनाए सिद्धांतों को तिलांजलि देकर सत्ता पाई है। बाल ठाकरे इस पक्ष में नहीं थे कि परिवार का कोई व्यक्ति सरकार में जाए। हिंदुत्व उनका एकमात्र आधार था। उद्धव ने दोनों को छोड़ने में कोई संकोच नहीं किया।

विपक्षी एकता एक मरीचिका है, जिसका पीछा करते हुए न जाने कितने नेता और पार्टियां खत्म हो गईं। देश के मतदाता ने 1989 से 2014 तक 25 साल केंद्र में गठबंधन की राजनीति का प्रयोग किया और फिर तौबा कर लिया। विपक्षी एकता का प्रयोग उस दौर में चला, जब सत्ता की स्वाभाविक पार्टी कांग्रेस अपनी ढलान पर थी। जैसे-जैसे वह लुढ़कती गई, विपक्षी एकता का प्रयोग सफल होने लगा। ममता और दूसरे विपक्षी दल यह नहीं समझ रहे हैं कि ढलती कांग्रेस के खिलाफ दलों को एकजुट करना जितना आसान था, चढ़ती भाजपा के खिलाफ उतना ही कठिन है। भाजपा अभी अपनी विकास यात्र के शिखर नहीं पहुंची है।

भाजपा छह दशक से ज्यादा समय के संघर्ष से यहां तक पहुंची है। भाजपा और आरएसएस की पीढ़ियां इस यात्र में खपी हैं। भाजपा और संघ, दोनों ही आज ऐसे लोगों की वजह से उस स्थान पर पहुंचे हैं, जिन्होंने अपने लिए कभी कुछ नहीं चाहा। वे एक विचारधारा को लेकर चले और उस पर तमाम झंझावातों के बावजूद टिके रहे। ऐसी पार्टी से ममता की जेबी पार्टी मुकाबला भी कैसे कर सकती है? जीतने की तो बात ही छोड़िए।

तृणमूल कांग्रेस की विचारधारा क्या है? राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर उसकी सोच क्या है? ममता पार्टी की स्थापना के दिन से ही पार्टी की अध्यक्ष हैं। ममता की बात ही पार्टी का संविधान है। वह नरेन्द्र मोदी और भाजपा को अधिनायकवादी और जनतंत्र विरोधी बता रही हैं। भारतीय राजनीति की इसस बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है? कमाल तो यह है कि माओ, स्टालिन जैसे तानाशाहों, जिन्होंने लाखों लोगों की हत्या करवा दी, उनके समर्थक और अनुयायी भी मोदी को बहुत बेशर्मी से तानाशाह और जनतंत्र विरोधी कहने का दुस्साहस करते हैं। पहली बात तो ममता और उनके राजनीतिक सलाहकारों को यह समझ लेना चाहिए कि कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता की गाड़ी हमेशा एक पहिए की रहेगी। कांग्रेस विपक्ष की एकमात्र पार्टी है जिसका राष्ट्रीय जनाधार है। बाकी सभी पार्टियों का अपने प्रदेश से बाहर कोई प्रभाव नहीं है।

ममता अपने राज्य से बाहर किसी पार्टी के जनाधार में एक वोट का इजाफा नहीं करवा सकतीं। दूसरी पार्टियों के दगे हुए कारतूसों के बल पर राष्ट्रीय दल बनने की कोशिश लंगड़े घोड़ों से घुड़सवारों की फौज तैयार करने जैसा है। अशोक तंवर हों, कीर्ति आजाद हों या गोवा के फ्लेरियो, उनकी राजनीतिक हैसियत वही है जो तृणमूल की सदस्यता लेने से पहले थी।

विपक्षी एकता के नाम पर ममता बनर्जी को जिस मरीचिका के पीछे प्रशांत किशोर दौड़ा रहे हैं, वास्तव में वह एकता की संभावना को खत्म करने का प्रयास है। परिवारों की पार्टियों के जमघट में कोई एक परिवार दूसरे परिवार की जमींदारी क्यों स्वीकार करेगा? कहावत है कि आधी छोड़ पूरी को धावे, आधी मिले न पूरी पावे। कहीं ऐसा न हो कि प्रधानमंत्री बनने की आपाधापी में मुख्यमंत्री की कुर्सी खतरे में पड़ जाए। सावधानी हटी और दुर्घटना घटी, क्योंकि 2024 में मोदी और भाजपा से उनका मुकाबला राष्ट्रीय स्तर पर नहीं, बंगाल में ही होगा।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)