डा. ऋतु सारस्वत। दिल्ली उच्च न्यायालय कई गैर सरकारी संगठनों की उस याचिका पर सुनवाई कर रहा है जिसमें उन्होंने वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध करार देने का अनुरोध किया है। उच्च न्यायालय के अनुसार, 'यह कहना ठीक नहीं है कि अगर किसी महिला के साथ उसका पति जबरन संबंध बनाता है तो वह महिला भारतीय दंड संहिता की धारा-375 (दुष्कर्म) का सहारा नहीं ले सकती और उसे अन्य फौजदारी या दीवानी कानून का सहारा लेना पड़ेगा।' पीठ ने यह भी कहा कि 'भारतीय दंड संहिता की धारा-375 के तहत पति पर अभियोजन चलाने से छूट ने एक दीवार खड़ी कर दी है। अदालत को यह देखना होगा कि यह दीवार संविधान के अनुच्छेद-14 (कानून के समक्ष समानता) और 21 (व्यक्ति स्वतंत्रता और जीवन की रक्षा) का उल्लंघन करती है या नहीं।' उच्च न्यायालय की यह टिप्पणी अनेक प्रश्न खड़े करती है। अगर वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध की श्रेणी में सम्मिलित कर लिया जाता है तो भविष्य में इसके क्या परिणाम होंगे, इस पर गंभीरता से चिंतन करने की आवश्यकता है।

वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध बनाने के पीछे जो तर्क दिए जा रहे हैं, उनमें एक यह है कि वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध नहीं बनाए जाने से विवाहित महिलाएं हिंसा चक्र में फंसी रहती हैं। उन्हें अपमानित होते हुए घरों में रहने के लिए विवश होना पड़ता है। दूसरा तर्क यह है कि जब विश्व के कई विकसित देशों में यह अपराध की श्रेणी में आता है तो फिर भारत में क्यों नहीं? ये दोनों ही तर्क अतार्किक प्रतीत होते हैं, क्योंकि हर समाज और देश विशेष की सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियां अलग होती हैं। किसी अन्य देश या समाज से भारत की तुलना करना उचित नहीं है। दूसरी महत्वपूर्ण बात अगर तुलनात्मक प्रवृत्ति ही कानून के निर्माण की पृष्ठभूमि बननी चाहिए तो फिर यह एकपक्षीय क्यों? घरेलू हिंसा संरक्षण अधिनियम, 2005 पुरुषों को घरेलू हिंसा से सुरक्षा नहीं देता। जबकि विश्व के अन्य देश जहां वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध माना जाता है, वहां यह भी स्वीकार किया जाता है कि पुरुषों के साथ घरेलू हिंसा होती है। इसीलिए महिलाओं के समान वहां पुरुषों को भी घरेलू हिंसा से कानूनी संरक्षण प्राप्त करने का अधिकार है।

इसमें किंचित संदेह नहीं कि महिलाओं के समानता के अधिकार सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। किसी भी स्थिति में किसी भी महिला के पति को यह अधिकार नहीं कि वह जबरन उससे संबंध स्थापित करे। इस क्रूरता के विरुद्ध महिलाओं को घरेलू हिंसा संरक्षण अधिनियम के तहत संरक्षण प्राप्त है। तो फिर लगातार यह दबाव किसलिए कि भारतीय दंड संहिता की धारा-375 दुष्कर्म में सम्मिलित की जाए?

वैवाहिक दुष्कर्म घर की चाहरदीवारी के भीतर घटित वह घटना है, जिसका साक्षी कोई नहीं हो सकता। ऐसे में पत्नी का यह कहना कि उसके साथ पति ने दुष्कर्म किया, वह एकपक्षीय प्रमाण होगा, जिसकी सत्यता और असत्यता को सिद्ध करना दुष्कर कार्य है। अगर पत्नी का कथन ही अंतिम सत्य माना जाएगा तो यह समानता के अधिकार का गला घोंट देगा। यह चिंतनीय विचार है कि महिलाओं को अधिकार देने की मुहिम में भारत पुरुषों के प्रति घोर असंवेदनशील हो रहा है। यहां तक कि सामाजिक एवं कानूनी व्यवस्था बिना किसी अपराध के उसे शोषक मान लेती है। भारत साक्षी है कि पूर्व में महिलाओं के संरक्षण के लिए बने कानून 498 'ए' तथा घरेलू हिंसा संरक्षण अधिनियम का दुरुपयोग भारत की सामाजिक व्यवस्था को खंडित कर रहा है। 2014 में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री किरन रिजिजू ने राज्यसभा में बताया था कि 2014 में घरेलू हिंसा के 639 मामलों में से केवल 13 लोगों को दोषी ठहराया गया। सरकार ने तब यह स्वीकार किया था कि समय-समय पर घरेलू हिंसा और दहेज विरोधी अधिनियम के प्रविधानों का दुरुपयोग भी किया गया है। पुरुषों को पीड़ा से मुक्त मान लेना उनको 'मानव' मानने से इन्कार करने जैसा है। 'नारायण गणेश दास्तान बनाम सुचेता नारायण दास्तान' (एआइआर 1975, एससी 1534) मामले में शीर्ष अदालत ने यह स्पष्ट किया था कि 'क्रूरता पत्नी द्वारा भी की जाती है और पत्नी भी पति को मानसिक रूप से प्रताड़ित कर सकती है।' घरेलू हिंसा के दुरुपयोग के संबंध में 10 जुलाई, 2018 को पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने कहा था, 'घरेलू हिंसा संरक्षण अधिनियम का दोष यह है कि यह महिलाओं को इस कानून का दुरुपयोग करने के लिए प्रेरित करता है। साथ ही यह पुरुष को भयभीत करने और महिलाओं के लिए अपने पति को सबक सिखाने का एक साधन बन गया है।' इसी न्यायालय ने इसी तरह की टिप्पणी 2015 में 'अनूप बनाम वानी श्री' के फैसले में की थी। उसने कहा था, 'महिलाएं इस कानून का अनुचित लाभ उठाती हैं। इसका इस्तेमाल पतियों, उनके परिवारों और रिश्तेदारों को आतंकित करने के लिए किया जा रहा है। इस वास्तविकता ने कानूनी आतंकवाद की संज्ञा हासिल कर ली है।'

घरेलू हिंसा और 498 'ए' के दुरुपयोग के संबंध में न्यायालयों के कई निर्णय यह बताने के लिए काफी हैं कि किसी भी अधिनियम का निर्माण जब दबाव के चलते होता है तो उससे समाज का भला नहीं हो सकता। महिलाओं के अधिकारों का संरक्षण जितना जरूरी है उतना ही आवश्यक पुरुषों को बिना किसी अपराध के दोषी मानने की प्रवृत्ति का त्याग भी। वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध की श्रेणी में सम्मिलित करने से पूर्व इन सभी तथ्यों पर अगर विचार नहीं किया गया तो यह तय है कि भविष्य में युवा विवाह जैसी संस्था से दूरी बना लेंगे तो क्या ऐसे में समाज का अस्तित्व रह पाएगा?

(लेखिका समाजशास्त्र की प्रोफेसर हैं)