[ गोपालकृष्ण गांधी ]: सियासत में पांच महीने बहुत होते हैं। उनमें जीत हार में और हार जीत में बदल सकती है। कहने का मतलब यह है कि कांग्रेस को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मिली जीत को अगले पांच महीनों में बहुत संभालकर रखना होगा। लापरवाही, बेपरवाही, गफलत और इन सबसे ऊपर अंदरूनी आपसी द्वंद्व बना-बनाया काम बिगाड़ सकते हैं। जनादेश आसानी से जाया हो सकता है। इन पांच महीनों के दौरान अगर कांग्रेस जनता को यह दिखाती है कि वह राहुल गांधी की प्राथमिकताओं के अनुसार बेरोजगारी, कृषि संकट और भ्रष्टाचार का मुकाबला ईमानदारी से कर रही है तो फिर 2019 के वसंत-ग्रीष्म में होने वाले चुनावों में जीत की उम्मीद रख सकती है। नहीं तो नहीं।

वही मतदाता जिन्होंने उसे अपना समर्थन दिया है वे उसे वापस ले सकते हैं। इतना ही नहीं, देश के अन्य प्रदेशों में भी यदि यह मानसिकता बनती है कि इन तीन प्रदेशों में कांग्रेस ने सुअवसर गंवा दिया है और मतदाता के विश्वास को ठुकरा दिया है तो उन प्रदेशों में भी मायूसी बढ़ सकती है, जो कांग्रेस को डुबो सकती है। जनता को-मतदाता को ‘अपना’ समझना सपना देखना है। मतदाता स्वाभिमानी है, स्वतंत्र, स्वायत्त। वह बहलाया जा सकता है कुछ समय के लिए, बहकाया नहीं जा सकता। वह भले राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों से जुड़ा हो, लेकिन उनकी ‘जेब’ में नहीं है। मजाल है कि कोई उसके बारे में यह सोचे या कहे कि ‘अरे ये तो हमारे वश में है।’ जैसे यह तथ्य व्यक्तिगत मतदाता पर लागू होता है वैसे ही समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों पर भी।

आज भारत में कोई भी दल या नेता यह नहीं कह सकता कि सब जाट हमारे साथ हैं या सब गुर्जर या सारे के सारे भूमिहार या बिश्नोई या फिर ब्राह्मण या मुसलमान या दलित! जिसे अंग्रेजी में ‘नॉट टु बी टेकेन फॉर ग्रांटेड’ कहते हैं वह स्थिति लोकतंत्र के लिए बहुत अच्छी बात है। हर मतदाता का निर्वाचन-निर्णय अपना है। मत-कक्ष में वह रानी है या राजा है। वह वो सब है जो कि हमारा राष्ट्र है- प्रभुता-संपन्न। तीन प्रदेशों की जीत ने कांग्रेस के कंधों पर एक अहम जिम्मा बैठा दिया है। उसे इन तीनों राज्यों में अपने शासन को निष्ठावान, समर्पित और जनहित के लिए सक्रिय करना होगा। विशेषकर किसानों के दिल-ओ-दिमाग में उसे अपने लिए अपने परिश्रम, अपने हुनर से ‘किसानों के दोस्त’ की छवि बनानी होगी।

किसानों ने अभी कुछ दिनों पहले अपनी शक्ति और अपना संगठन दिखाया है। उनका धैर्य और सहन नहीं कर सकेगा। लोकसभा और राज्यसभा का एक संयुक्त अधिवेशन बुलाना होगा। कांग्रेस को किसानों की इस अनथक मांग को अपनी मांग बनाकर साकार करना होगा। यदि भाजपा सरकार इस मांग को स्वीकार नहीं करती तो फिर कांग्रेस और उन सभी दलों को, जिन्होंने 30 नवंबर की दिल्ली की रैली में भाग लिया था, भारत की उन सभी विधानसभाओं में ऐसा अधिवेशन बुलाना होगा, जहां गैर-भाजपा सरकारें हैं।

किसानों को यह आश्वासन देने के लिए कि चुनाव-विजय के बाद चुनाव-पूर्व दिए गए वचन को गैर-भाजपा सरकारें भूली नहीं हैं, पंजाब से लेकर कर्नाटक तक, राजस्थान से लेकर छत्तीसगढ़ तक, किसान अधिवेशन होने चाहिए, विधानसभाओं में। उनमें ठोस, विवेकी प्रस्ताव पारित होने चाहिए, जिनमें कर्ज-माफी से आगे की फर्ज-अदायगी हो। देश की जनता का देश की खेती के लिए अपना फर्ज। अगर गैर-भाजपा प्रदेशों में अब किसान खुदकुशी करता है तो यह एक बहुत बड़ी शर्मिंदगी की बात होगी। भाजपा विपक्ष के रूप में इसे लेकर अपनी आवाज उठाएगी। यह उसका अधिकार भी होगा और कर्तव्य भी।

मेरा सुझाव है कि कांग्रेस अध्यक्ष को 30 नवंबर की दिल्ली रैली के आयोजकों के साथ अतिशीघ्र एक बैठक में वार्तालाप करना चाहिए, जिसमें किसान संबंधी एक कार्य-सूची बनाई जाए। इसमें किसान-वाणी भी शामिल हो और किसान-सोच, किसान-दर्द सुनाई दे। यह सर्वविदित सत्य है कि विपक्ष का नेता जैसे ही कुर्सी पर विराजमान होता है तो ब्यूरोक्रेसी उसका स्वागत करते हुए उसके इरादों के ‘दूध’ में पानी मिला देती है। ‘यह कठिन है, सर’, ‘व्यावहारिक नहीं’, ‘ पेचीदा है’, ‘इस पर कानून तेवर चढ़ाएगा’, ‘इसके लिए राशि कहां है सर?’, ‘यह तो सर सर्वथा असंभव है।’ इस नकारात्मक धुन से कल का विद्रोही और आज का मंत्री चौंक जाता है और जैसे ही उसके उसूलों, उसकी योजनाओं पर पानी बहने लगता है वैसे ही कल के मंत्री और आज के विद्रोही की आवाज में जोश आने लगता है, रोष बहने लगता है। भूमिकाएं करवट बदलती हैं।

कांग्रेस को अपने वचनों को गोस्वामीजी के वचनों में तौलना होगा- ‘रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाहिं पर वचन न जाई।’ आदिवासी प्रश्नों के लिए नई सरकारों को नए उपाय निकालने होंगे। जाहिर है कि भाजपा सरकारों की नीतियों से आदिवासी वर्ग असंतुष्ट था। क्यों? कैसे? क्या खामियां थीं उन नीतियों में? इस पर नई सरकारों को गहरा विचार-विमर्श करना होगा गैर-राजनीतिक तबकों से, आदिवासी विचारकों के साथ, मसलन-डॉ. जीएन डेवी, डॉ. अभय बंग, डॉ. ज्यां द्रेज, डॉ. नंदिनी सुंदर। उग्रवाद को कैसे ‘रोल-बैक’ किया जाए, इस पर गैर-राजनीतिक विचार महत्वपूर्ण होंगे।

यदि मनरेगा योजना पर ये तीनों सरकारें कायदे और ईमानदारी से अमल करें तो समझिए आधा युद्ध जीत गए, लेकिन चुनावी विजय और सत्ता के बीच का रास्ता बहुत सुखमय होता है। हिंदी फिल्म ‘मधुमति’ में मुकेश के गीत के लफ्ज याद आते हैं-‘सुहाना सफर और ये मौसम हसीं...।’ उस सफर में खो जाना बहुत आसान है। दो बातें उस सफर में खो जाने को कहती हैं- सत्ता (पॉवर) और रुपया (धन)। इन दोनों का सदुपयोग होता है और दुरुपयोग भी। खुदा नई सरकारों को इन दोनों के दुरुपयोग से बचाए। भ्रष्टाचार का लांछन इन सरकारों के करीब न आए। इसमें सबसे बड़ा खतरा है ‘विकास मॉडल’। उद्योग के बिना आज कौन सा समाज चल सकता है? लेकिन उद्योग एक बात है, उद्योग के नाम पर उद्योगपतियों का एकाधिकार दूसरी बात। मैं देख सकता हूं अपनी काल्पनिक आंखों के पर्दों पर, जैसे ही शपथ-ग्रहण होते हैं और पोर्टफोलियो आवंटन समाप्त होता है, उद्योगपतियों के प्रतिनिधि गुलदस्तों समेत पहुंच जाएंगे मंत्रियों के सामने।

मंत्रिगण फूलों को जरूर लें सधन्यवाद, लेकिन उनमें जो कांटे हैं उनसे सचेत रहें। उद्योग को उद्योग की विषमताओं से, जिनमें प्रदूषण और प्रदूषीकरण सम्मिलित है, अलग रखें। यह नामुमकिन नहीं, बिल्कुल मुमकिन है। कोई भी उद्योग मुनाफे के बिना नहीं चल सकता। मुनाफा न हो तो मजदूरों को कैसे वेतन मिलेगा? मुनाफा जरूरी है उद्योग में, लेकिन मुनाफे की सीमाएं होती हैं, उस मुनाफे को हासिल करने के तरीके, सही तरीके भी होते हैैं। बहुत उद्योगपति हैं जो इन सीमाओं को, तरीकों को जानते हैं, मानते हैं। कुछ हैैं जो लाभ-केवल लाभ में मगन रहते हैैं!

अगले पांच महीने बहुत अहम हैं। तीनों नई सरकारों को कामयाब होना है, उन प्रांतों की भलाई के लिए और देश में लोकतंत्र के बचाव के लिए। अच्छे दिन का नारा अपना काम कर गया है। अब सच्चे दिनों की बारी है।

[ वर्तमान में अध्यापन में रत लेखक पूर्व राजनयिक एवं पूर्व राज्यपाल हैं ]