डॉ. मुरलीधर चांदनीवाला। मकर संक्रांति किसी न किसी रूप में पूरा भारत मनाता है। यह हमारा सबसे प्राचीन त्योहार है और वैदिककाल से लेकर अब तक मनाया जा रहा है। वेदों में काल गणना का केंद्र सूर्य हैं। आजकल भारत में मनाए जाने वाले प्राय: सभी त्योहार चंद्रमा से जुड़े हुए हैं। दशहरा, दीपावली, होली, जन्माष्टमी, गुड़ी पड़वा, रक्षाबंधन, महाशिवरात्रि, ईद, बुद्ध पूर्णिमा सहित सब छोटे-बड़े त्योहार चंद्रमा की कलाओं पर निर्भर हैं। मकर संक्रांति अकेला त्योहार है जो सीधे तौर पर सौर गणना पर आधारित है।

यह सूर्य के स्वागत का महापर्व है। सूर्य के साथ-साथ चल पड़ने की तैयारी का उत्सव मनाते हुए भारतीय लोग इस दिन समूची पृथ्वी की ओर से सूर्य के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए अघ्र्य देते हैं। अंग्रेजी कैलेंडर और हिंदू पंचांग के बीच झूलते हुए हम भारतीयों के लिए यह सुखद आश्चर्य है कि मकर संक्रांति के दिन पूरब और पश्चिम के कैलेंडर आपस में गले मिलते हैं। यह पर्व संदेश देता है कि इस पृथ्वी का तिथिपत्र देश, धर्म, जाति या संप्रदाय का नहीं है। सूर्य हमारा भी उतना ही है, जितना ईस्वी सन को मानने वालों का।

सूर्य हमेशा ही पृथ्वी के आकर्षण का सबसे बड़ा केंद्र रहा है। वेदों में हमारे जो सर्वोच्च देवता कहे जाते हैं, वे सबके सब सूर्य के कलेवर में देखे गए। मित्र, वरुण, सविता, पूषा, विष्णु सहित सब देवता सूर्य की ही सत्ता हैं। सूर्य जब उत्तरायण की ओर प्रस्थान करते हैं, तब पूरे सौरमंडल में उत्सव होता है। यह एक दिव्य और ज्योतिर्मय उत्सव है, जिसमें पृथ्वी भी शामिल होना चाहती है। पृथ्वी पर सबसे प्रकाशवान सत्ता में मनुष्य है। उसके पास संकल्प है, वह ब्रrा और उसके सत्य को जानने के लिए सदियों से प्रयत्नशील है, इसलिए वह इस सौर उत्सव में पृथ्वी की ओर से निवेदित होता है। इस उत्सव में शामिल होने के लिए हम आर्यावर्त में रहने वाले लोग ब्रह्म मुहूर्त में उठते हैं। पवित्र तीर्थ में अवगाहन कर अघमर्षण सूक्त का पाठकर सूर्य को अघ्र्य देने की अपनी पात्रता सुनिश्चित करते हैं। यह दिन धीरे-धीरे पूर्वजों की वंदना में डूबता चला जाता है। हमारा भारतीय मन घोषणा करता है कि सूर्य हमारे पूर्वज हैं। हम सूर्य के वंशधर हैं, इसलिए अमृतपुत्र हैं। संक्रांति प्रतिमाह आती है, पर धनु राशि से मकर राशि में सूर्य की संक्रांति पौष में ही होती है। भारतीय गणित के अनुसार अस्सी से सौ वर्ष के बीच यह संक्रांति एक दिन आगे बढ़ जाती है। स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी, 1861 को हुआ, तब मकर संक्रांति थी। अभी यह दिन कभी 14 और कभी 15 जनवरी को आता है। कुछ वर्ष बाद लंबे समय तक मकर संक्रांति 15 जनवरी को ही आएगी।

संक्रांति एक देवपर्व है जो पौष माह में आता है। पौष का संबंध पूषा से है। पूषा बारह आदित्यों में से एक हैं। वह ज्योतिर्मय पथ के स्वामी हैं। सामान्य तौर पर देखा जाए तो पूषा और सूर्य एक ही हैं। संक्रांति का दिन मोटे तौर पर सूर्य के पथ की संक्रांति है। सूर्य का दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर जाना मात्र सौर जगत की एक घटना नहीं है। यह वैदिक परंपरा में वह दिन है, जब सूर्य हमें अपनी अंगुली पकड़ाकर दिव्य प्रकाश की यात्र पर ले चलते हैं। यह ज्योतिर्मय प्रकाश को वरण करने का उत्सव है। यही वह दिन है, जब हमारे पूर्वज सूर्य के पीछे-पीछे पितृयान से देवयान की ओर जाते हैं। वेदों में सूर्य का एक नाम पतंग भी है। ऋग्वेद में एक पूरा पतंग सूक्त ही मिलता है। संक्रांति के दिन पतंग उड़ाना कोई खेल नहीं है। यह ऊध्र्वमुख होकर ध्यान की पुरानी परंपरा है जो हमारी चेतना को सूर्य के संस्कार से जोड़ती है। मनुष्य सूर्य होना चाहता है, इसलिए पतंग उड़ाता है। वह सूर्य की तरह अपने जीवन में पथ की संक्रांति चाहता है, इसलिए पतंग उड़ाता है। वह चाहता है कि उसकी सांसों की डोर सूर्य की रश्मियों के साथ मिलकर एकाकार हो जाए, इसलिए वह पतंग उड़ाता है।

यह महापर्व दक्षिण भारत सहित दूसरे कई देशों में पोंगल के रूप में मनाया जाता है। नवान्न के स्वागत का यह उत्सव उमंग और उल्लास से भरा होता है। वहीं सिख समाज संक्रांति की पूर्व संध्या पर अग्नि प्रज्वलित कर लोहड़ी का उत्सव नाचते-गाते हुए मनाता है। इस दिन तिल का बड़ा महत्व है। तिल सबसे छोटा, किंतु सबसे प्राचीन धान्य है। अपने पोषक तत्वों के कारण तिल के व्यंजनों का पौष माह में लगभग एकाधिकार है। महाराष्ट्र के परिवारों में मकर संक्रांति ढेर सारी मनोकामनाएं लेकर आती है। इस दिन को दान-पुण्य से जोड़ा गया है। परिवार में बड़ों के आगे सिर झुकाकर आशीर्वाद लेने को इतना महत्व दिया गया कि अब यह भारतीय संस्कारों के जागरण का ही पर्व लगने लगा है। यह प्रकाश की गतिशीलता में अपने आपको लयबद्ध करने का उत्सव भी है। सूर्य की अविराम गति में जो सौंदर्य है, उसमें अवगाहन का इससे रमणीय दूसरा कोई पर्व नहीं। यह महापर्व मनुष्य की उन आदिम इच्छाओं को फिर से जगाने का त्योहार है, जिन्होंने प्राचीन ऋषियों को ज्योतिर्मय आनंद से भर दिया था।

[भारतीय संस्कृति के जानकार]