[निरंकार सिंह]। मौजूदा कोरोना संकट दूसरे सामाजिक और पर्यावरणीय संकटों को लाने वाले जरियों का ही विस्तार है। वास्तव में यह एक तरह के मानक पर दूसरे को प्राथमिकता देने से जुड़ा हुआ है। इस महामारी से निपटने में दुनिया की सोच तय करने में इसी आधार की बड़ी भूमिका है। ऐसे में जैसे-जैसे इस वायरस को लेकर दुनिया की घारणा बन रही है, उसे देखते हुए यह सोचना जरूरी है कि हमारा आर्थिक भविष्य क्या शक्ल लेगा?

यह संभव है कि हम बर्बरता के दौर में चले जाएं या एक मजबूत सरकारी पूंजीवाद आए अथवा एक चरम सरकारी समाजवाद आए। यह भी हो सकता है कि आपसी सहयोग पर आधारित एक बड़े समाज के तौर पर परिवर्तन दिखाई दे। इन चारों के भविष्य में नए रूप भी संभव हैं। जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता का खत्म होना, पेयजल और भोजन के घटते स्नोत और तूफान से गर्म हवा चलने तक के मौसम की घटनाएं मानवता के लिए बड़ी चुनौती होंगी।

कोरोना हमारी आर्थिक संरचना की ही एक आंशिक समस्या है। हालांकि दोनों पर्यावरण या प्राकृतिक समस्याएं प्रतीत होती हैं, लेकिन ये सामाजिक रूप पर आधारित हैं। कोरोना महामारी और जलवायु परिवर्तन से निपटना तब कहीं ज्यादा आसान हो जाएगा, अगर हम गैर-जरूरी आर्थिक गतिविधियों को कम कर देंगे। जलवायु परिवर्तन के मामले में अगर आप उत्पादन कम करेंगे तो आप कम ऊर्जा का इस्तेमाल करेंगे और इस तरह से कम ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होगा।

अगर हम भविष्य की महामारियों के सामने टिके रहने की ताकत चाहते हैं तो हमें एक ऐसा सिस्टम बनाना होगा जो उत्पादन को इस तरह से कम करने में समर्थ हो जिसमें लोगों की आजीविकाओं पर बुरा असर न पड़े। ऐसे में हमें एक अलग तरह के आर्थिक दृष्टिकोण की जरूरत है। इस संकट को महात्मा गांधी ने बहुत पहले ही भांप लिया था। कोरोना महामारी और ग्लोबल वार्मिग से उपजे जलवायु संकट के कहर से यदि दुनिया को बचाना है तो गांधीवादी विकल्प के अलावा शायद कोई दूसरा रास्ता नहीं है। जिस तरह से जंगल खत्म हो रहे हैं उसे देखते हुए समझ में नहीं आ रहा है कि मनुष्य को सांस लेने के लिए ऑक्सीजन कहां से मिलेगी। महात्मा गांधी ने प्राकृतिक संसाधनों का विवेक और संयम के साथ उपयोग करने की ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना प्रस्तुत की थी।

दुनिया भर के 53 नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने आज से करीब 25 वर्ष पहले ही यह अपील की थी कि दुनिया को शोषण और विनाश से बचाने के लिए गांधी के बताए रास्ते पर ही चलना होगा। औद्योगिक विकास के दुष्परिणामों की परिकल्पना गांधी ने बहुत पहले ही कर ली थी। उन्होंने कहा था, ‘यूरोपीय सभ्यता यूरोप वालों के लिए अच्छी है, लेकिन अगर हम उसकी नकल करेंगे तो वह भारत को बर्बाद कर देगी। मेरा यह मतलब नहीं कि उस सभ्यता में जो कुछ अच्छा हो और हमारे पचाने लायक हो, उसे अपना कर हम न पचाएं।

मेरे कहने का यह मतलब है कि यूरोप की सभ्यता में जो कुछ बुराई पैठ कर गई है उसका यूरोप के लोगों को त्याग नहीं करना पड़ेगा। भौतिक सुख-सुविधा की निरंतर खोज और उनकी बुद्धि यूरोपीय सभ्यता में घुसी हुई ऐसी एक बुराई है और मैं यह कहने का साहस करता हूं कि यूरोप के लोग जिन सुख सुविधाओं के गुलाम बनते जा रहे हैं, उनके बोझ के नीचे दबकर यदि उन्हें नष्ट नहीं होना है तो उन्हें अपने मौजूदा दृष्टिकोण में सुधार करना होगा। संभव है मैं गलत साबित हो जाऊं, परंतु जानता हूं कि भारत के लिए इस माया के पीछे दौड़ना निश्चित ही मृत्यु को निमंत्रण देना होगा।’

आर्थिक चुनौतियों की ही तरह आधुनिक विश्व के सामने पर्यावरणीय चुनौतियां भी हैं जो विभिन्न प्रकार के विनाशों, खाद्य तथा ऊर्जा संकट और सामाजिक तनावों तथा संघर्षो की ओर ले जा रही है। जलवायु परिवर्तन इस चुनौती का सबसे प्रत्यक्ष तथा सिर पर आ खड़ा हुआ अवतार है। मौजूदा विकास क्षेत्र में कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए अपनाया जा रहा मशीनी रवैया नई समस्याओं को जन्म देगा।

तथ्य यह है कि मानव समाज ने संसाधनों का जरूरत से ज्यादा दोहन ही नहीं किया है, बल्कि मनुष्य तथा प्रकृति के बीच के मौलिक तादात्म्य को तोड़ दिया है। गांधी इसके बारे में सजग थे। उन्होंने चेतावनी दी थी कि आधुनिक उद्योगवाद विश्व को ऐसे नग्न कर देगा जैसे टिड्डी दल ने मैदान साफ किया हो। यह बात किसी भी तर्क से नहीं समझाई जा सकती कि मानव समाज की लगातार बढ़ती आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन की स्थिति बरकरार रहते हुए भी हम आसन्न पर्यावरणीय महाविनाश को रोक पाने में सक्षम हो सकेंगे।

गांधी के अनुसार किसी व्यक्ति के या राष्ट्र के नैतिक स्वास्थ्य को क्षति पहुंचाने वाली अर्थव्यवस्था अनैतिक और पतित है। उनका स्वदेशी तथा स्वराज का सिद्धांत वर्तमान पूंजीवादी विकास के प्रारूप के रोगों का इलाज करने में सक्षम है। महात्मा गांधी का स्वराज तथा स्वदेशी के माध्यम से लोगों को अपने वातावरणों (पर्यावरणीय, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक) पर नियंत्रित करने का दृष्टिकोण आज के बाजार संचालित पूंजीवादी तरीके के विकास की तुलना में विश्व को पर्यावरण अनुकूल विकास की ओर ले जाने में ज्यादा सक्षम है।

आखिर वहनीय विकास क्या है? यह विनाश की अवधारणा के साथ प्रकृति तथा भावी पीढ़ियों के प्रति गांधीवादी नैतिक दायित्वों को मिलाने से ही तो बना है। इस नैतिक दायित्व के भाव का लोगों, समाजों और सरकारों द्वारा निर्वहन हुए बिना वहनीय विकास का विचार सफल नहीं हो सकता। इसके बिना आम लोगों के आम संसाधनों के संरक्षण के लिए चल रहे प्रयास भी सफल नहीं हो सकते। वे केवल तभी सफल हो सकते हैं, जब नैतिक दायित्व की भावना सभी पक्षों की भागीदारी से मजबूत की जाए।

[स्वतंत्र टिप्पणीकार]