[अवधेश कुमार]। Maharashtra Political Crisis: महाराष्ट्र के संदर्भ में आज कई दलों और मीडिया के एक खास वर्ग द्वारा कहा जा रहा है कि राज्यपाल ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया का गला घोंट दिया। निस्संदेह, भारत में अनेक राज्यपालों ने संविधान की भावनाओं का अपमान कर लोकतंत्र का गला घोंटने में भूमिका निभाई है, लेकिन इसकी जमीन हमेशा नेताओं और दलों ने ही तैयार की है।

राज्यपाल के पास था एक ही चारा 

महाराष्ट्र के प्रकरण को देखें तो जनादेश के अनुसार अभी तक सरकार गठन हो जाना चाहिए था। लेकिन शिवसेना की जिद ने पूरी स्थिति को पलट दिया। न वह भाजपा के साथ जाने को तैयार है, न बहुमत का दूसरा कोई गठबंधन बन पाया। इसमें राज्यपाल के पास एक ही चारा था कि वे क्रमानुसार पहले सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को बुलाकर पूछें कि आप सरकार बनाने की स्थिति में हैं या नहीं? भाजपा के नकारने के बाद उन्होंने शिवसेना से पूछा।

अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन के प्राविधान

शिवसेना ने इच्छा तो जताई लेकिन उसके पास किसी दूसरे दल के समर्थन का पत्र नहीं था। फिर बारी आई राकांपा की। राकांपा ने राज्यपाल से दो दिनों के समय के लिए पत्र लिख दिया। राज्यपाल के सामने साफ था कि सरकार बनने की अभी स्थिति नहीं है। उन्होंने मंगलवार को करीब दो बजे केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट दी। मंत्रिमंडल की तत्काल बैठक हुई। राष्ट्रपति पांच बजे पंजाब से वापस आए और फिर उनके हस्ताक्षर से राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। यह है पूरा क्रम। संविधान में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन के प्राविधान को लेकर उच्चतम न्यायालय के कई फैसले आ गए हैं।

राष्ट्रपति शासन लगाना अपरिहार्य

संविधान सभा की बहस में भी इस पर इतना कुछ कहा गया है कि इसके लिए आधार तलाश करने की आवश्यकता नहीं। सामान्य तौर पर राष्ट्रपति शासन को अंतिम विकल्प माना गया है। समय के साथ कुछ परंपराएं भी सुदृढ़ हुई हैं। यदि चुनाव के बाद कोई सरकार बनने की तत्काल संभावना नहीं हो तो फिर कार्यकारी सरकार के लिए राष्ट्रपति शासन लगाना अपरिहार्य हो जाता है। महाराष्ट्र अभी कार्यवाहक मुख्यमंत्री के अधीन था जो नीतिगत निर्णय नहीं कर सकते थे। इसमें राज्यपाल की कोई जिम्मेदारी बनती है या नहीं? आप चाहे जितनी आलोचना कर दीजिए, लेकिन राष्ट्रपति शासन लागू होने के अगले दो दिनों में सरकार बनने की बिल्कुल संभावना नहीं थी।

राकांपा ने अपनी बैठक के बाद बयान दे दिया था कि उसने कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ा है और उसके साथ ही कोई कदम बढ़ाएगा। कांग्रेस दो बैठकों के बावजूद किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंची थी। उसने बयान जारी किया कि अभी और विचार-विमर्श की जरूरत है। शिवेसना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने पहली बार औपचारिक रूप से शरद पवार से भेंट की तथा सोनिया गांधी को फोन किया। इसका सीधा अर्थ है कि अभी तक शिवसेना की ओर से संजय राउत केवल 175 विधायकों के समर्थन का बयान दे रहे थे, राकांपा, कांग्रेस एवं निर्दलीय विधायको का समर्थन पाने की दिशा में कोई कदम उठा ही नहीं था। इस स्थिति को कब तक बनाए रखा जा सकता था।

मंगलवार को तो आरंभ में कांग्रेस एवं राकांपा में ही आरोप-प्रत्यारोप हो गया। कांग्रेस ने शरद पवार पर स्थिति स्पष्ट न करने का बयान दिया। कांग्रेस के तीन नेता जब राकांपा से बात करने विशेष विमान से मुंबई आए तो लगा कि बात बन जाएगी। लेकिन पत्रकार वार्ता में कांग्रेस के अहमद पटेल ने कहा कि सरकार को लेकर कोई निर्णय नहीं हुआ है। उन्होंने राज्यपाल की राष्ट्रपति शासन लागू करने से पहले कांग्रेस को नहीं बुलाने की आलोचना की।

राकांपा कांग्रेस दोनों साथ चुनाव लड़े थे। इसमें राकांपा बड़ी पार्टी है। राज्यपाल ने उसे बुलाया और उसने बहुमत का कोई आश्वासन नहीं दिया। राज्यपाल बुला सकते थे, लेकिन कांग्रेस से बात करने से क्या बदलाव होता? कुछ नहीं। वैसे काग्रेस के पास क्षमता थी या वे सरकार बनाने के इच्छुक थे तो राज्यपाल से स्वयं भी मिल सकते थे। राज्यपाल समय नहीं देते तो उनको दोष दिया जा सकता था। वैसे भी कांग्रेस एवं राकांपा दोनों ने पहले दिन से घोषणा की थी कि उन्हें विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला है। पत्रकार वार्ता में शरद पवार ने भी कहा कि अभी सरकार बनाने को लेकर कोई निर्णय नहीं हुआ। हमारी शर्तें क्या होंगी, किन मुद्दों और कार्यक्रमों पर सरकार बनेगी, इन सब पर कोई बातचीत हुई नहीं है। जब अहमद पटेल से पूछा गया कि क्या आप शिवेसना के मुख्यमंत्री का समर्थन करेंगे, तो उन्होंने कहा कि अभी मैंने ऐसा नहीं कहा है।

राज्यपाल के विवेक पर निर्भर

यानी आपका कुछ तय ही नहीं है और दोष राज्यपाल को दे रहे हैं? राज्यपाल ने आपको आपस में बात करने से नहीं रोका। आपको एक निश्चित समय दिया गया। यह राज्यपाल के विवेक पर निर्भर है कि वह कितना समय देते हैं। यह भी आरोप लगाया गया है कि भाजपा को 48 घंटे का समय दिया गया और हमें 24 घंटे का। कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति स्वीकार करेगा कि 24 या 48 घंटे में कोई परिवर्तन नहीं होने वाला। कहने का तात्पर्य यह कि राज्यपाल को चाहे आप खलनायक बना दें, लेकिन अगले कुछ दिनों तक सरकार बनने की संभावना नहीं नजर आ रही है। यहां 1994 का बोम्मई मामला भी लागू नहीं होता कि बहुमत का फैसला विधानसभा में होना चाहिए। विधानसभा के गठन की स्थिति तो तब बनेगी जब कोई पक्ष संख्या बल के साथ सरकार बनाने का दावा करे।

भले शरद पवार इसे अपनी सफलता मानें

तो ऐसे में शिवसेना ने जो रंग बदला उसे क्या कहेंगे? शरद पवार ने उसे जिस तरह प्रोत्साहित किया उसे क्या महाराष्ट्र के जनादेश का सम्मान कहा जाएगा? अब कांग्रेस जो कर रही है वह किस नैतिकता के दायरे में आता है? शरद पवार ने शिवेसना को राजग से अलग करवा दिया, लेकिन कांग्रेस से बात तक नहीं की, कि हमें मिलकर सरकार बनाना है। आपने एक सरकार नहीं बनने दी तो विकल्प तैयार करते। भले शरद पवार इसे अपनी सफलता मानें, लेकिन यह बिलकुल अनैतिक एवं गैर जिम्मेदार राजनीति है। मजे की बात यह भी कि उन्होंने कांग्रेस के नेताओं से बातचीत करने के काफी समय पहले साढ़े ग्यारह बजे ही पत्र लिख दिया। क्यों? इस प्रश्न का कोई समाधानपरक जवाब राकांपा के पास नहीं हो सकता।

इधर कांग्रेस की चिंता यह है कि एक कट्टर हिंदूवादी पार्टी शिवसेना के साथ जाकर वह कहीं पाने से ज्यादा खो तो नहीं देगी। इस कारण वह उहापोह में है। राकांपा को ऐसी कोई समस्या नहीं। इसलिए राकांपा एवं कांग्रेस के बीच बात बनने में समय लग रहा है। किंतु किसी भी दृष्टि से राज्यपाल सरकार गठन में न पहले बाधा थे, और न आगे होंगे।

वरिष्ठ पत्रकार

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