[ निरंकार सिंह ]। सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक चेतना से जुड़ा कुंभ पर्व, भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक अवधारणाओं का जीवंत प्रतीक है। इसीलिए इसे भारतीय संस्कृति का महापर्व कहा गया है। 15 जनवरी से 4 मार्च 2019 तक प्रयाग में संगम के तट पर कई परंपराओं, भाषाओं और लोगों का भी अद्भुत संगम होगा। संगम तट पर स्नान और पूजन का तो विशिष्ट महत्व है ही, साथ ही कुंभ का बौद्धिक, पौराणिक, ज्योतिषीय और वैज्ञानिक आधार भी है। एक प्रकार से कहें तो कुंभ स्नान और ज्ञान का भी अनूठा संगम सामने लाता है। इसे विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक मेला माना जाता है। यह गर्व की बात है कि यूनेस्को ने कुंभ मेले को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता प्रदान की है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस मेले को दिव्य और भव्य स्वरूप प्रदान करने के लिए कृतसंकल्पित हैैं। उनका प्रयास है कि कुंभ मेले में आने वाले श्रद्धालुओं को सुविधा, सुरक्षा और श्रद्धाभक्ति से परिपूर्ण माहौल मिले। इसके लिए सरकार कई तरह के उपाय कर रही है।

कुंभ पर प्रयागराज की छटा देखते ही बनती है। इस बार यह छटा कुछ और निराली दिखती है। इस बार मेला क्षेत्र में बड़े-बड़े होर्डिंग्स और बैनरों पर कुंभ की गौरव गाथा लिखी गई है। इसे ‘कुंभ की कहानी, प्रयाग की जुबानी’ थीम पर प्रस्तुत किया गया है, जिससे पौराणिक महत्व के साथ चित्र भी उकेरे गए हैं। इसी थीम पर शहर में विभिन्न चौराहों पर स्क्रीन पर वीडियो भी चलाए जा रहे हैं। होर्डिंग्स पर चारों वेद तथा स्कंद पुराण, मत्स्य पुराण, गरुड़ पुराण समेत 18 पुराणों और उपनिषदों के प्रमुख सूत्र वाक्य और रामचरितमानस की चौपाई-दोहे लिखे गए हैं।

प्रयाग के बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा गया है, जैसे ‘अमृत कलश से बूंद गिरी और तीर्थ हुई प्रयाग की धरती।’ इसी तरह यह भी कहा गया है, ‘88 हजार ऋषियों की तपोभूमि है प्रयाग’, ‘दसों दिशाओं से संत यहां आते हैं और धर्म के महापर्व की शोभा बढ़ाते हैं’, सृष्टि की रचना के बाद ब्रह्मा जी ने यहीं पहला यज्ञ किया।’ प्रयागराज के बारे में एक मान्यता यह भी है कि उत्कृष्टता के कारण यह प्रयाग है और प्रधानता के कारण राज। वास्तव में कुंभ पर्व देश के समवेत सांस्कृतिक जीवन का व्यावहारिक उदाहरण है। कुंभ सरीखे पर्वों और मेलों ने भारतीयता के रूप में राष्ट्रीयता को प्राणवान बनाए रखा है। मनुष्य की उत्सवप्रियता की भावना ने ही सांस्कृतिक बोध से स्वयं को परिपुष्ट करते हुए पर्व-चेतना रूप में विकसित किया है। इसी अर्थ में कुंभ पर्व एक राष्ट्रीय पर्व है। अमृत स्नान करते हुए, अमृत पान करने का अनुभव, आत्म भाव से परिपुष्ट हो जाता है। हजारों वर्षों से चली आ रही कुंभ पर्व की इस सांस्कृतिक विरासत को हमारे देश के मनीषी-चिंतकों, पुराणकारों, ऋषि-मुनियों, दार्शनिकों, धर्माधिकारियों और साधु-संतों ने निष्ठाभाव के साथ, लोकांचलों में निवास करने वाले पठित-अपठित साधारण जनों तक पहुंचाया है।

इस पर्व भावना के पीछे जीवंत आस्था और निष्ठा भाव ही कार्यशील रहा है। यह निष्ठा लाखों-लाख मनुष्यों की चेतना को, सीमित ‘स्व’ से निकालकर खुले मैदान में, शीत-ग्र्रीष्म की चिंता न करते हुए सागर-नदियों के तटों पर खींचकर ले जाती रही है। नदियों के तट पर बिना किसी निमंत्रण के श्रद्धालु जन-समाज जीवन-अमृत की खोज में अपार जन-समूह के रूप में उमड़ पड़ता है। इस शरीर रूपी घट में आत्मा रूपी अमृत तत्व विद्यमान माना गया है, जिसको सद्-असद् भाव, अपनी-अपनी आसक्ति मूलक लोभ-मोह आदि वृत्तियों से आच्छादित किए रहते हैं, किंतु विचारवान मनुष्य, शरीर रूपी घट में निहित जल (ब्रह्म) तत्व का साक्षात्कार करते हुए नारायण रूपी महासागर में व्याप्त अमृत तत्व का आचमन करता रहता है।

कबीर ने भी शरीर रूपी घट में विद्यमान उस अमृत तत्व का महासागर अथवा शून्याकाश के रूप में ही साक्षात्कार किया है। इस प्रकार घट में निहित अमृत तत्व की अनुभूति ही युग-युगों से भारतीय जन-जीवन को आस्थाशील बनाए हुए है। कुंभ मरणशील मानव के मन को उद्धेलित एवं प्रेरित करता है। इसी प्रेरणा से अभिभूत होकर लाखों लोग कुंभ पर्व के अवसर पर पवित्र जल में स्नान एवं आचमन को प्राथमिकता देते हैं। ऐसा करते हुए सनातन भाव वाला जन-मन, अमृत-भाव की तलाश में उमड़ता हुआ संगम तट पर समाहित होता है।

कुंभ के आयोजनों ने भौगोलिक-ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक एकता बनाए रखकर राष्ट्रीय जीवन संदर्भों के प्रति सांस्कृतिक अस्मिता को जागृत करने में अहम भूमिका निभाई है। जब-जब कहीं कोई कुंभ आयोजित होता है तब-तब लाखों लोग बिना किसी आमंत्रण उमड़ पड़ते हैैं। विभिन्न आयु-वर्ग एवं जाति वर्ग-वर्ण के लोग, प्रदेशों की सीमाओं को लांघते हुए गरीब-अमीर के दायरों को तोड़ते-छोड़ते हुए अनेक भाषा-बोलियों में शब्द-साधना करते हुए अपने को परम में समर्पित करने के लिए संकल्पशील दिखाई देते हैं। ऐसा न जाने कब से होता चला आ रहा है। ऐसे आस्थावान श्रद्धालुओं के गतिशील चरण ही रागात्मक संबंधों को जोड़ते हैैं। यह जन-आस्था अद्भुत है।

कुंभ के अवसर पर मौसम की कष्टपूर्ण परिस्थिति में भी लोगों को जीवन ध्येय का परमश्रेय मिलने का अनुभव तो होता ही है, साथ ही जीवन जीने की सार्थकता का भी अनुभव होता है। कुंभ स्नान के बाद लोगों का समूह जब अपने-अपने घरों को लौटता है तब भी उसकी यही कामना रहती है- ‘हे गंगा मैया, हमें फिर बुलाना।’

आज सामाजिक-सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों के अवमूल्यन के माहौल में कुंभ सरीखे सांस्कृतिक उत्सवों की बड़ी आवश्यकता है। योगी सरकार इस महापर्व से अधिक से अधिक लोगों को जोड़ने का प्रयास कर रही है। वैसे पवित्र कुंभ का रंग ऐसा होता है कि वह तरह के लोगों को अपनी ओर सहज ही आकर्षित करता है। जो लोग भारत दर्शन के लिए आना चाहते हैं उन्हें पूरे भारत की विविधता एक जगह सिमटी हुई मिल जाती है और जो लोग आध्यात्मिक लाभ के लिए आना चाहते हैैं उनके लिए तो इससे भव्य आयोजन कोई हो ही नहीं सकता। ऐसे अवसरों पर समाज और सरकार अपने जन-जागरण के कर्तव्यों को गहराई तक समझते हुए सोचें कि ‘सुरसरि सम सबकर हित’ करने वाली भावना का प्रचार-प्रसार कैसे हो? लोक-मंगल की भावना वाले कुंभ की सार्थकता तभी बढ़ सकती है जब देश के लोगों में सेवा धर्म, परोपकार और नैतिकता की भावना बढ़े और लोगों को दुख, दरिद्रता से मुक्ति मिले।

( लेखक हिंदी विश्वकोश के सहायक संपादक रहे हैैं )