[ डॉ. महेश भारद्वाज ]: इन दिनों देशभर में एक माहौल बनता जा रहा है जिसमें गंगा की सफाई से लेकर पारिवारिक और सामाजिक परिवेश मे आ रही गिरावट तक की जिम्मेदारी सरकार के मत्थे मढ़े जाने का चलन जोर पकड़ता जा रहा है। बड़े पैमाने पर किए जाने वाले कार्यों के बारे मे यह सोच ठीक भी है, क्योंकि गंगा की सफाई जैसे विस्तृत और बहुआयामी कार्य को संभालना किसी व्यक्ति या समूह के बस की बात नहीं है। चूंकि इसमें गंगा के उद्गम से लेकर समुद्र में समाहित होने तक की व्यापक कार्ययोजना की जरूरत थी और वह भारत सरकार के विभिन्न विभागों और संबंधित राज्य सरकारों को साथ में लिए बिना संभव भी नहीं थी तो केंद्र सरकार का आगे आकर जिम्मेदारी लेना भी बनता था। यह बात अलग है कि प्रदूषण की आरंभिक अवस्था मे यह काम भी कुछ व्यक्तियों या किसी समूह द्वारा किया जा सकता था, लेकिन प्रदूषण की मौजूदा स्थिति के मद्देनजर इसे अखिल भारतीय स्तर की सहभागिता के बिना शुरू किया जाना भी मुश्किल था।

वायु और दूसरे प्रकार के प्रदूषणों की स्थिति भी कमोबेश यही है और इसलिए इनके समाधान भी राष्ट्रीय स्तर पर ही खोजे जाने हैं। ऐसे ही कुछ अन्य बड़े स्तर के कार्यों जैसे राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण और बड़ी नदियों को जोड़ने के कार्यों को केंद्र सरकार के हिस्से में रखा गया। यूं तो अब भ्रष्टाचार भी राष्ट्रीय स्तर की ऐसी ही समस्या बन चुका है जिससे निपटना अब एक राष्ट्रीय स्तर के अभियान के बिना असंभव जान पड़ता है।

बड़े और बहुआयामी प्रकृति के कार्यों के लिए सरकार की ओर देखने में कोई बुराई भी नहीं है, लेकिन उस मानसिकता का क्या करें जो सब कुछ सरकार के भरोसे छोड़ने की बनती जा रही हो। क्या नागरिकों की अपने देश-समाज के प्रति और अपने प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है? जो लोग व्यक्तिगत या सामुदायिक स्तर पर गंगा में गंदगी फेंकते आ रहे हैं, क्या उन्हें अपनी जिम्मेदारी का अहसास नही है! अधिकारों के प्रति जागरूकता और सोशल मीडिया की सक्रियता के वर्तमान दौर में ऐसा मानना अतार्किक ही होगा, क्योंकि ये ऐसे ज्वलंत विषय हैं जिन पर राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ी हुई है और सूचनाएं स्वच्छंद तरीके से जनता के सामने हैं। इसलिए यह मानकर चला जा सकता है कि प्रदूषण फैला रहे अधिकांश लोगों को अपने कृत्यों के कुप्रभावों की और भ्रष्टाचार कर रहे लोगों को इसके दुष्परिणामों की जानकारी भलीभांति है।

यहां सवाल यही है कि फिर भी लोग बाज क्यों नही आ रहे! इसके तमाम कारण हो सकते हैं, मसलन दूसरों को भी ऐसा करते देखकर, स्वयं पर इसका कोई सीधा दुष्प्रभाव न देखकर, आगा-पीछा न सोचकर, ऐसा करने के कोई दूसरे विकल्प न पाकर या फिर तात्कालिक तौर पर इसे अपने लिए फादयेमंद मानकर लोग ऐसा करते जा रहे हों। कमोबेश यही तर्क भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों के हो सकते हैं। इन स्थितियों में लिप्त लोगों के एक बड़े वर्ग का सोचना और कहना है कि चाहे गंगा में या वातावरण में प्रदूषण हो या देश मे भ्रष्टाचार, इसे पहले ऊपर यानी कि सरकार के स्तर से रुकना या रोकना चाहिए।

भ्रष्टाचार के प्रति निजी क्षेत्र की सोच भी यही हो सकती है कि इसे रोकने की शुरुआत सरकार के स्तर पर पहले हो। यह तो कुछ ऐसा हुआ कि ऊपर वाला नीचे वाले की तरफ और नीचे वाला ऊपर वाले की तरफ देखकर जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ रहा है। तरबूज और चाकू के इस खेल में लोग यह नहीं समझ रहे कि आखिर नुकसान तो देश और समाज का ही हो रहा है, चाकू का कुछ नहीं बिगड़ने वाला। जिम्मेदारियों को लेकर हो रही ऊहापोह की इस स्थिति मे अंतत: राष्ट्रनिर्माण के वृहद उद्देश्य में लगे लोगों से ही उम्मीद बंधती है और सरकार को सक्रिय होना पड़ता है।

सरकार की इस बढ़ती सक्रियता का एक नतीजा यह भी होने लगता है कि जनता अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटने लगती है और सरकार से उम्मीद भी बढ़ा लेती है कि उनके बच्चों को नैतिक शिक्षा और हेप्पीनेस तक के बारे में स्कूलों में ही बता दिया जाए। और तो और मिड-डे मील के रूप में कुपोषण के मर्ज का निदान भी स्कूलों में ही हो जाए! इसके लिए उन्हें बच्चों को दो साल की उम्र में भी स्कूल भेजने में कोई गुरेज नहीं है। तो क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि नौबत सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुंह चुराने तक आ पहुंची है। एनसीआरबी के ताजा आंकड़ों के मुताबिक जिस कदर बाल अपराध बढ़ रहे हैं, उसे देखकर तो यही लगता है।

देश के बाल अपराध सुधार गृहों मे बाल अपराधियों की बढ़ती तादाद और जघन्य अपराधों में नाबालिगों की बढ़ती संलिप्तता इसके प्रत्यक्ष साक्ष्य हैं। बात यहीं जाकर नहीं रुक रही, बल्कि तमाम तरह की जागरूकता बढ़ाने और फैलाने के अभियान भी सरकार द्वारा ही चलाए जाने की उम्मीद होने लगी है और सरकारें भी ऐसा कर रही हैं। सड़क सुरक्षा जागरूकता अभियान, भ्रष्टाचार के खिलाफ सतर्कता अभियान, अपराधों से बचाव के उपाय सुझाने जैसे तमाम अभियानों को देखकर तो यही लगता है।

यह रुझान लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के मद्देनजर तो ठीक है, लेकिन जब बात दुनिया भर में सरकारों की भूमिका को कम से कम करने, यानी मिनिमम गवर्नेंस की हो रही हो तो ऐसे में सरकार पर बढ़ती निर्भरता कितनी न्यायोचित है और इसके चलते ‘इंस्पेक्टर राज’ को कैसे खत्म किया जा सकता है! इसके उलट विकसित मुल्कों मे तो यही रुझान देखने को मिलता है कि लोग अपने ज्यादा से ज्यादा काम स्वयं या सामुदायिकस्तर पर निपटाने की कोशिश करने लगे हैं और विभिन्न प्रकार के सहकारी प्रयासों द्वारा स्थानीय मसलों के हल स्थानीय स्तर पर ही निकालने लगे हैं।

जाहिर है इसके लिए लोगों मे देश और समाज के प्रति अपनेपन और लगाव की भावना का होना जरूरी है तभी लोग अपने घर की सफाई और अपने मुहल्ले, गांव और शहर की सफाई के बारे में एक जैसी सोच रख सकेंगे। शुरुआत करने के लिए हम प्राइवेट डेवलपर्स, निजी शैक्षणिक संस्थान, निजी अस्पतालों की ऐसे विषयों के प्रति मानसिकता और कार्यप्रणाली से कुछ सीख सकते हैं जिसके चलते ये लोग न केवल अपने परिसर, बल्कि आसपास के इलाकों के रख-रखाव पर भी ध्यान देने लगे हैं। इसे व्यापक स्तर पर अपनाए जाने से निश्चित ही बड़ा बदलाव आएगा।

 [ लेखक आइपीएस अधिकारी हैं ]