ब्रह्मा चेलानी

भारतीय विदेश मंत्रालय ने सही कहा कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित आतंकी और 26/11 के खौफनाक मुंबई हमले के मुख्य साजिशकर्ता हाफिज सईद की रिहाई से पाकिस्तान का असली चेहरा सामने आता है। रिहाई के बाद सईद पाकिस्तान की राजनीति में सक्रिय हो सकता है। इससे यही पता चलता है कि पाकिस्तान में किस तरह कट्टरपंथी आवाजें मुख्यधारा का हिस्सा बन रही हैं। सईद की रिहाई अमेरिका के दोहरे रवैये की भी पोल खोलती है जिसने 2012 में उस पर एक करोड़ डॉलर का इनाम तो रखा, लेकिन उसके बाद हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। इस साल जनवरी में नजरबंद होने से पहले तक सईद पाकिस्तान में छुट्टा घूमते हुए अमेरिका द्वारा उस पर रखे गए इनाम का खुलेआम मजाक उड़ाते हुए अमेरिका और भारत, दोनों को सबक सिखाने की धमकियां देता दिखता था। वास्तव में यह अमेरिका द्वारा दी गई ढील का ही नतीजा है कि सईद की रिहाई संभव हो सकी, क्योंकि अमेरिका ने अपने नए राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम से सईद के लश्कर-ए-तोइबा को बाहर कर दिया। इसके तहत अमेरिकी विदेश मंत्री के लिए यह जरूरी था कि वह आतंक के खिलाफ जंग लड़ने में अमेरिका से पाकिस्तान को मिलने वाली मदद को मंजूरी देने से पहले यह स्पष्ट करेंगे कि पाकिस्तान लश्कर-ए-तोइबा और हक्कानी नेटवर्क जैसे आतंकी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई कर रहा है। अमेरिकी कांग्र्रेस ने इसमें से लश्कर-ए-तोइबा का नाम हटा दिया और केवल हक्कानी नेटवर्क का नाम बरकरार रखा। इससे पाकिस्तान को गुंजाइश मिल गई कि वह भारत के खिलाफ इस्तेमाल होने वाले सईद जैसे अपने मोहरों को रक्षा कवच मुहैया करा सके।


हाफिज सईद की रिहाई भारत के उस रवैये की भी पोल खोलती है जिसमें वह गरजता तो बहुत है, लेकिन बरसता कम है। हाल में भारत ने पाकिस्तान को ‘टेररिस्तान’ करार दिया और भारतीय विदेश मंत्री ने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान को आतंक का निर्यात करने वाली फैक्ट्री बताते हुए कहा कि आतंक को प्रोत्साहन देना ही उसकी राष्ट्रीय उपलब्धि है। पाकिस्तान को लेकर नई दिल्ली के बड़े-बड़े बोल कार्रवाई के नाम पर बौने हो जाते हैं। पाकिस्तान की शातिर खुफिया एजेंसी आइएसआइ की पैठ वाले नई दिल्ली स्थित उच्चायोग का दायरा समेटना हो या फिर ‘सर्वाधिक तरजीही देश’ का दिया एकतरफा दर्जा वापस लेना या फिर सिंधु जल संधि का पाकिस्तान की ओर झुकाव कम करना अथवा नियंत्रण रेखा यानी एलओसी पर होने वाले व्यापार पर लगाम लगाने जैसा कोई भी कदम नहीं उठाया जा रहा है। इसमें एलओसी पर वस्तु विनिमय कारोबार को तो राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए ने आतंक की वित्तबेल के रूप में चिन्हित किया है। भारत ने बयानबाजी के अलावा पाकिस्तान को आतंकी देश साबित करने के लिए कुछ ठोस नहीं किया है। यहां तक कि बयानबाजी में भी कुछ एहतियात बरती गई। एक के बाद एक सरकारों ने पाकिस्तान पर किसी भी तरह के प्रतिबंध लगाने से परहेज ही किया है। भारत न केवल कुछ करने से हिचकता दिखा है, बल्कि कुछ मामलों में अपनी कथनी पर अमल करने से पीछे हटता है। इसमें पाकिस्तान की दुखती रग बलूचिस्तान का ही उदाहरण लीजिए। वहां पाकिस्तानी फौज द्वारा किए जा रहे बर्बरतापूर्ण दमन से पुराने पूर्वी पाकिस्तान सरीखे हालात पैदा हो रहे हैं। 2016 में स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले से अपने भाषण में जब बलूचिस्तान का मसला उठाया तो नीतिगत मोर्चे पर अहम बदलाव के संकेत मिले।
इसके बाद इस मसले पर भारत ने रहस्यमयी चुप्पी साध ली। अपने दुष्प्रचार को बढ़ावा देने के लिए पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में क्रूरता की झूठी तस्वीरों का सहारा लेता है, लेकिन बलूच लोगों के खिलाफ निर्मम पाकिस्तानी अत्याचारों को उजागर करने में भारत अनिच्छुक ही नजर आता है। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को लेकर भी भारत का ढुलमुल रवैया उसके रुख पर प्रश्न खड़े करता है। भारत ने चीन की ‘वन बेल्ट, वन रोड’ परियोजना को अपनी संप्रभुता को चोट पहुंचाने वाला बताते हुए विरोध तो किया, लेकिन पाक के कब्जे वाले इस इलाके पर अपने दावे को लेकर गंभीरता का उचित भाव नहीं दर्शाया। वहां चीन द्वारा बनाई जा रही बांध परियोजनाओं जैसे मुद्दों पर वह खामोश ही रहा। अगर भारत के स्थान पर चीन होता तो इन परियोजनाओं पर अब तक बखेड़ा खड़ा कर नाक में दम कर देता।
सिंधु जल समझौता भी भारत के शिथिल रवैये की बानगी है। मोदी ने कहा तो था कि खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते, लेकिन उल्टे स्थाई सिंधु आयोग के जिन्न को बोतल से आजाद करके उसमें विश्व बैंक की मध्यस्थता के लिए गुंजाइश बना दी। विश्व बैंक की मध्यस्थता का कोई तुक नहीं, फिर भी भारत पाकिस्तान के साथ वाशिंगटन में विश्व बैंक स्तर पर दो दौर की वार्ता में शामिल हो चुका है। ऐसी मध्यस्थता भारत के इस परंपरागत रुख वाली नीति के भी खिलाफ है कि द्विपक्षीय विवादों को सुलझाने में तीसरे पक्ष की कोई भूमिका नहीं होगी। जाहिर है कि इससे खतरनाक मिसाल बनेगी। इससे भी बदतर यह रहा कि सिंधु जल पर मोदी द्वारा गठित सचिवों की समिति कोई नई परियोजना पेश करने में भी नाकाम रही। उड़ी हमले के बाद दबाव में आए मोदी ने सर्जिकल स्ट्राइक को जरूर अंजाम दिया, लेकिन यह स्पष्ट है कि ऐसे इक्का-दुक्का झटकों से पाकिस्तान का रवैया सुधरने वाला नहीं। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भारत के एक और सैन्य ठिकाने पर हमला हुआ। पाकिस्तान पर लगातार दबाव बनाए रखकर उसे भारत को जख्मी करने की रणनीति को सिरे चढ़ाने की गुंजाइश नहीं देनी चाहिए।
पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई अकेले भारत की है। अमेरिका पाकिस्तान को क्यों आतंकी देश घोषित करेगा जब उसके आतंक से सबसे ज्यादा प्रताड़ित भारत ही अपने बिगड़ैल पड़ोसी के खिलाफ सख्त कदम उठाने से परहेज करता है? मोदी सरकार ने तो पाकिस्तान को आतंकी देश घोषित करने के राज्यसभा सदस्य राजीव चंद्रशेखर के निजी विधेयक को भी पारित नहीं होने दिया। यहां तक कि नई दिल्ली कुटिल आइएसआइ को भी आतंकी संगठन घोषित करने से भी कतराती है और पठानकोट हमले की जांच में एयरबेस पर उसकी मेजबानी करती है। कुल मिलाकर आतंक के खिलाफ भारत का आह्वान महज जुमला लगता है। भारत कोई संयुक्त राष्ट्र नहीं जो केवल कहता रहे और करे कुछ नहीं। सईद की रिहाई भारत को यही स्मरण कराती है कि खुद उसकी कथनी और करनी में अंतर है। इससे न केवल भारत की साख प्रभावित हो रही है, बल्कि उसके बर्दाश्त करने के रवैये को भी कमजोर कर रही है। भौगोलिक रूप से हमसे सात गुना छोटा, हमारी जीडीपी से आठ गुना कम और सैन्य मोर्चे पर कमतर पाकिस्तान आखिर क्यों हमारी सिरदर्दी का सबसे बड़ा सबब बना हुआ है? पाकिस्तान को लेकर भारत में सरकारों के ढुलमुल रवैये को बदलने में अभी भी देर नहीं हुई है। अगर नई दिल्ली पाकिस्तान को लेकर अपनी कथनी और करनी में अंतर खत्म करती है तो यह सुखद बदलाव होगा।
[ लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर फेलो हैं ]