[संजय गुप्त]। लोकसभा चुनाव के अंतिम दौर का मतदान होने के साथ ही एक लंबी चुनावी प्रक्रिया का समापन होने जा रहा है। भारत के आम चुनाव दुनिया के लिए एक मिसाल हैैं। यह मिसाल कायम करने का श्रेय एक बड़ी हद तक निर्वाचन आयोग को जाता है। बीते कुछ दशकों और खासकर टीएन शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के बाद से वह अपनी जिम्मेदारी का बखूबी पालन करता चला आ रहा है। चुनावों के समय राजनीतिक दलों को उससे कुछ न कुछ शिकायतें रहती ही हैैं। इस बार भी रहीं, लेकिन कुछ ज्यादा ही। भाजपा समेत करीब-करीब सभी दलों ने उसे आड़े हाथों लिया। विपक्षी दलों ने उस पर कुछ ज्यादा ही हमले किए। विपक्षी दलों ने उस पर ऐसे आरोप लगाए कि वह सरकार के दबाव में अथवा उसके इशारे पर काम कर रहा है।

चुनाव आयोग ने जब-जब प्रधानमंत्री के खिलाफ विपक्षी दलों की शिकायतों को खारिज किया तब-तब उनकी ओर से उस पर पक्षपात के आरोप मढ़े गए। पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा को लेकर आयोग को खास तौर पर निशाने पर लिया गया। यह अच्छा नहीं हुआ कि बंगाल में हर चरण के मतदान के समय हिंसा हुई। मतदान के आखिरी चरण के पहले जब कोलकाता में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो में उपद्रव और आगजनी की गई और एक कालेज में घुसकर समाजसेवी ईश्वरचंद्र विद्यासागर की प्रतिमा खंडित कर दी गई तो चुनाव आयोग ने सख्ती दिखाते हुए वहां चुनाव प्रचार की अवधि कम करने के साथ हिंसा रोक पाने में नाकाम कई अधिकारियों को हटा दिया। इसके बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तो आयोग को कोसने में जुटी हीं, अन्य विपक्षी दल भी चुनाव आयोग की आलोचना करने के लिए आगे आ गए।

तमाम आलोचना और निंदा के बाद भी चुनाव आयोग की प्रशंसा करनी होगी कि उसने इतनी लंबी और जटिल चुनावी प्रक्रिया को अंजाम दिया। इस दौरान उसने विभिन्न दलों के कई नेताओं के चुनाव प्रचार पर रोक लगाई और साथ ही उन्हें चेतावनी भी दी। मतदान के आखिरी चरण की समाप्ति के साथ ही अब निगाहें चुनाव नतीजों पर होंगी। नतीजे घोषित होने के साथ ही कुछ दल ईवीएम के खिलाफ नए सिरे से रोना रो सकते हैैं, क्योंकि वे पहले से ही उसे संदिग्ध बताने का अभियान छेड़े हुए हैैं। यह एक तथ्य है कि 21 राजनीतिक दल ईवीएम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे। चुनाव प्रक्रिया के बीच उन्होंने मांग की कि ईवीएम से निकलने वाली 50 प्रतिशत पर्चियों का मिलान किया जाए। दरअसल विपक्षी दल यह माहौल बनाना चाहते हैैं कि ईवीएम में छेड़छाड़ हो सकती है। यह कोशिश तब हो रही है जब हाल में कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जीत हासिल की। साफ है कि विपक्षी दल यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि उनकी पराजय के लिए वे खुद जिम्मेदार हैैं, न कि ईवीएम।

चुनाव के बीच ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल उठाकर विपक्षी दलों ने कुल मिलाकर अपनी कमजोरी को ही प्रदर्शित किया। विपक्षी दल कुछ भी कहें, चुनाव आयोग ने भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में चुनाव प्रक्रिया को लगभग सफलतापूर्वक संपन्न कराकर एक उल्लेखनीय काम किया, लेकिन उसे इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि इतनी लंबी चुनाव प्रक्रिया से कैसे बचा जाए? चुनाव प्रक्रिया को छोटा करने का काम तभी हो सकता है जब मतदान प्रक्रिया को आधुनिक बनाने के साथ ही चुनाव में गड़बड़ी की आशंका को कम से कम किया जाए। ईवीएम ने एक बड़ी हद तक यही काम किया है।

पता नहीं क्यों राजनीतिक दल यह समझने से इन्कार कर रहे हैैं कि मतपत्र से चुनाव के जमाने में किस तरह धांधली होती थी और समय भी जाया होता था। आखिर राजनीतिक दल यह कैसे भूल सकते हैैं कि एक समय मतपत्र लूटने और बूथों पर कब्जा करने की घटनाएं होती थीं। बिहार, बंगाल आदि राज्य इस तरह की घटनाओं के लिए ही जाने जाते थे। इस बार चुनार्वी ंहसा और धांधली की शिकायतें पश्चिम बंगाल में ही अधिक देखने को मिलीं। सच तो यह है कि पश्चिम बंगाल ही एक ऐसा राज्य रह गया है जहां चुनार्वी ंहसा और धांधली पर लगाम लगती नहीं दिख रही है।

चुनावों के समय यह देखने को मिलता है कि जिसको मौका मिलता है वही फर्जी वोटिंग कराने या मतदाताओं को धमकाने से पीछे नहीं रहता। चुनाव आयोग को इस पर विचार करना चाहिए कि क्या ईवीएम में किसी ऐसी तकनीक का इस्तेमाल हो सकता है जिससे मतदाता की पहचान के बिना बटन ही न दब सके। अगर सूचना तकनीक के इस दौर में हम ऐसी ईवीएम मशीन ईजाद कर पाएं जो मतदाता की पहचान जांचे बिना उसको वोट डालने से रोके तो इससे धांधली को रोकने में मदद मिलने के साथ ही चुनाव प्रक्रिया को और भरोसेमंद बनाया जा सकता है। आखिर मतदाता पहचान पत्र को आधार से क्यों नहीं लिंक किया जा सकता? इसमें कहीं कोई कठिनाई भी नहीं। ऐसा करके मतदाता सूचियों में गड़बड़ी को भी दूर किया जा सकता है।

ध्यान रहे कि इस गड़बड़ी के चलते कई लोग चाहकर भी मतदान नहीं कर पाते और मतदान प्रतिशत में कमी दर्ज होती है। लंबी चुनाव प्रक्रिया की एक खामी यह भी है कि इतना बड़ा देश डेढ़-दो माह तक केवल चुनावों में ही व्यस्त रहता है। आचार संहिता के कारण तमाम जरूरी काम अटक जाते हैैं।

चुनाव प्रक्रिया इसलिए भी छोटी होनी चाहिए, क्योंकि चुनाव प्रचार के लंबे दौर में राजनीतिक दल अलग-अलग मुद्दे उठाने की कोशिश करते हैैं। इस कारण चुनावी मुद्दों से जुड़ा विमर्श किस तरह बदलता रहता है, इसका एक उदाहरण यह है कि इस बार के चुनाव जब शुरू हुए थे तो बालाकोट हमला और राष्ट्रीय सुरक्षा बड़े मुद्दे थे। विपक्ष और खासकर कांग्रेस राफेल सौदे की गड़बड़ी और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाए हुए थी। बाद में राजीव गांधी के समय का बोफोर्स तोप सौदा और नौसेना के युद्धपोत में उनकी छुट्टियां एक मुद्दा बन गईं। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री की जाति और नाथूराम गोडसे को भी मुद्दा बनाने की कोशिश की गई। यह ठीक नहीं। चुनाव के दौरान मुद्दे बदलते रहने से असली मुद्दे पीछे छूटते हैैं और मतदाताओं का ध्यान बंटता है।

कई बार तो राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे किनारे ही हो जाते हैैं। ऐसा होने पर मतदाताओं का एक वर्ग सतही मुद्दों के प्रभाव में आ जाता है और उसी आधार पर वोट करता है। यदि अमेरिका और कुछ अन्य देशों की तरह भारत में भी एक ही दिन मतदान हो तो नए-नए मुद्दे उछालकर चुनाव जीतने की कोशिश पर लगाम लगेगी और मतदाता उन्हीं मुद्दों पर वोट देंगे जिन पर पहले से चर्चा हो रही थी। चुनाव प्रक्रिया को छोटा करने के साथ ही उसकी जटिलता को भी दूर करने की कोशिश करनी होगी, क्योंकि जटिल और समय खपाऊ मतदान प्रक्रिया के कारण कई लोग वोट देने से बचते हैैं। बेहतर होगा कि इस बात को गंभीरता से समझा जाए कि चुनाव प्रक्रिया छोटी होने से देश का समय भी बचेगा और संसाधन भी।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]

लोकसभा चुनाव और क्रिकेट से संबंधित अपडेट पाने के लिए डाउनलोड करें जागरण एप