[ हृदयनारायण दीक्षित ]: जागृत समाज उदात्त होते हैं। वाद, विवाद और संवाद में रस लेते हैं। समूचे विश्व को आनंदमगन बनाने की इच्छा रखते हैं। ऋग्वेद में जागरण की महत्ता है। ऋग्वेद (5.44.14) में कहते हैं-जो जागृत हैं, ऋचा मंत्र उनके पास आते हैं। जो जागे हुए हैं, उनकेपास सामगान-मधुर गीत आते हैं-‘यो जागार तं ऋच: कामयंते, यो जागार तं हि सामानि यन्ति।’ वैदिक वांग्मय जागरण के गीतों से भरा-पूरा है, लेकिन यह जागरण सामान्य जागना नहीं है। अपनी धरती के सांस्कृतिक तत्वों के प्रति सतत जागरण ही ऋषियों, पूर्वजों का संदेश है। गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में ‘इंडियन ओपीनियन’ नामक अखबार निकाला था। उन्होंने अखबार निकालने का उद्देश्य लिखा कि ‘यहां भारत से आए लोगों व उनकी संतति को भारतीय परंपरा से अवगत कराने के लिए यह पत्र निकाला गया है।’ समाचार पत्र में घटनाओं का विवरण ही पर्याप्त नहीं होता। उसे राष्ट्रीय मूल्य बोध का सतत जागरण करना चाहिए। संस्कृति का सतत बोध और पुनर्बोध राष्ट्रीय कर्तव्य है। संक्षेप में कहें तो प्रतिदिन जागरण, अर्थात दैनिक जागरण। प्रकृति का संदेश भी उत्तिष्ठत जागृत- उठो जागो ही है।

पूर्णचंद्र गुप्त जी भारतीय जीवन मूल्यों से प्रतिबद्ध थे। 1942 में उनके संपादन में शुरू हुए ‘दैनिक जागरण’ ने हिंदी पत्रकारिता में प्रभावी हस्तक्षेप किया। तब भारतीय मूल्यबोध आधारित विचार के प्रति हीनभाव का वातावरण था। हिंदी के कुछेक अखबार बेशक भारतीय मूल्यबोध के प्रति सजग थे, लेकिन कुल मिलाकर वातावरण उत्साहवद्र्धक नहीं था।

दैनिक जागरण से हमारा परिचय 1965-67 के आसपास हुआ। अखबार का केंद्र कानपुर था। मैं गांव से अपने जिला केंद्र उन्नाव में उच्च शिक्षा के लिए आया था। उन्नाव में जागरण का प्रसार था। अच्छी नौकरी के लिए अंग्रेजी अखबार पढ़ने का चलन था। हम लोग हिंदी अखबारों में रस लेते थे। मुझे दैनिक जागरण से ही अन्य अखबारों के संपादकीय पृष्ठ पढ़ने का चस्का लगा। वर्ष ठीक से याद नहीं लेकिन प्रसंग अभी भी ताजा है। जागरण ने जिलों की समस्याओं से संबंधित आलेख मांगे थे। मैंने अपने जिले की समस्याओं पर लेख भेजा। पूरा छप गया। अखबार का वह अंक महीनों तक मेरे झोले में रहा। मैं सबको पढ़ाता था। नरेन्द्र मोहन जी का ‘विचार-प्रवाह’ स्तंभ लोकप्रिय था। विचार प्रवाह के नियमित पाठकों की संख्या लाखों में थी। हमारा और हमारे जैसे लाखों पाठकों का राष्ट्रवादी मानस गढ़ने में इस अध्ययन की अलग भूमिका है। इसलिए और भी कि संपादकीय पृष्ठ पर भारतीय राष्ट्रवादी विचार के विरोधी बड़े स्तंभकारों के लेख भी छपते थे। सभी विचार एक ही अखबार में उपलब्ध होने का अपना आनंद था। लगभग 1970 तक दैनिक जागरण ने सांस्कृतिक स्वाभिमान के जागरण में अपनी अलग पहचान बना ली थी।

सही दिशा में गति ही प्रगति है, लेकिन भारत में बाहर से आए वामपंथी विचार को ही प्रगतिशील कहा जा रहा था। साहित्य और पत्रकारिता वर्तमान का विश्लेषण करते हैं, शाश्वत प्राचीन मूल्यों को उखाड़ फेंकने का काम नहीं करते। वास्तविक विवेचक वर्तमान को शाश्वत से जोड़ते हैं। भविष्य को संवारने की दृष्टि देते हैं। बाहर से आई प्रगतिशीलता ऐसी नहीं थी। भारतीय प्रगतिशीलता में कालवाह्य रूढ़ि को छोड़ने की अंतर्निहित शक्ति है।

जागरण ने भारतीय प्रगतिशीलता को आगे बढ़ाया। यूरोप से भारत आया सेकुलरवाद पंथ व मजहब बन चुका था। हिंदुत्व और भारतीय मूल्यबोध की चर्चा सांप्रदायिक थी। सुशिक्षित लोग भी इसकी पक्षधरता में संकोची थे। जागरण ने छद्म सेकुलरवाद का कवच तोड़ने और सकारात्मक लोकशिक्षण में कोई संकोच नहीं किया। 1975 का साल भारत के इतिहास का कलंकित अध्याय है। इसी साल आपातकाल की घोषणा हुई। मौलिक अधिकार कुचले गए। जागरण का 27 जून 1975 का संपादकीय पृष्ठ आज भी याद है। शीर्षक था ‘नया लोकतंत्र?’ इस शीर्षक के साथ संपादकीय कोरा था। बिना कहे तानाशाही पर हमला करने का यह उदाहरण अनूठा है। भारतीय समाज और उसकी संचालक संस्कृति जड़ नहीं है। यहां समाज परिवर्तन की गति तेज रफ्तार है। सांस्कृतिक तत्व सामाजिक परिवर्तन का नेतृत्व करते हैं। इस गतिविधि में अखबार और साहित्य अपनी भूमिका निभाते हैं। स्वाधीनता आंदोलन के समय के भाषाई अखबार स्वदेशी स्वराष्ट्र का भाव जगा रहे थे। वे आंदोलन को गति दे रहे थे। स्वयं भी आंदोलन में थे। राजनीतिक, सामाजिक गतिविधि का सक्रिय हिस्सा थे।

लोकतंत्र सतत लोकशिक्षण से ही सफल होता है। दैनिक जागरण ने महत्वाकांक्षी राष्ट्र की राजनीति को सांस्कृतिक मूल्यों से प्रभावित करने का काम किया। जागरण राजनीति के साथ-साथ चला है। राजनीति को भारतीय जीवन मूल्यों की याद कराते और उसके कृष्ण पक्ष की आलोचना करते हुए अखबार पूरे संयम से राष्ट्रवादी रास्ते पर चला है। 75 वर्ष के जागरण के अंक भारत की विचारनिष्ठ राजनीति का इतिहास हैं और जोड़तोड़ वाली राजनीति का भी। यहां 75 साल का प्रामाणिक इतिहास है। यह सामाजिक उथल-पुथल, जाति के नुकीलेपन और मजहबी आक्रामकता के ईमानदार प्रसंगों से भरा-पूरा है।

स्वतंत्र भारत के दो प्रमुख आंदोलन पत्रकारिता की भी कसौटी हैं। पहला आंदोलन जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में अखिल भारतीय बना। संपूर्ण क्रांति का उद्घोष था। इसी से डरकर आपातकाल लगाया गया। प्रेस का मुंह कुचला गया। लाखों सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता जेल भेजे गए। सत्ता परिवर्तन भी हुआ। दैनिक जागरण आंदोलन के मूल सरोकारों का पक्षधर था। इसी दौर में देश के प्रतिष्ठित अखबारों पर हमले हुए। इन पंक्तियों का लेखक भी पूरे आपातकाल जेल में था। प्रेस सेंसरशिप के बावजूद जेल में जागरण की मांग थी। आपातकाल हटा। जागरण ने जेल से छूटे प्रमुख कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न धारावाहिक रूप में छापा। मेरे घर हुई कुर्की में पुलिस मेरी तीन साल की पुत्री की दूध की शीशी भी छीन ले गई थी। जागरण में यही शीर्षक था। अन्य दलों के कार्यकर्ताओं के भी उत्पीड़न विवरण छपे थे। आमजन आपातकालीन अत्याचारों से अवगत हुए।

श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन की पक्षधरता से प्रगतिशील डराते थे। जागरण ने इस आंदोलन की सीधी पैरोकारी की। कारसेवकों पर गोलीकांड हुआ था। प्रत्यक्ष खबर के कारण जागरण की प्रतियां कम पड़ गईं। जागरण से सरकारों के भी विवाद हुए। मुलायम सिंह जी ने जागरण के बहिष्कार की घोषणा की। समर्थकों ने हॉकरों का उत्पीड़न किया। टकराव बसपा सरकार से भी हुआ। राजनीतिक दलतंत्र की सक्रियता के समानांतर जागरण की अपनी वैचारिक सक्रियता भी थी। अयोध्या में ढांचा गिरा। श्रीराम जन्मभूमि का खुला समर्थक होने के बावजूद संपादकीय का शीर्षक था-‘दुर्भाग्यपूर्ण’। लिखा गया था कि श्रीराम का मंदिर मर्यादापूर्ण मार्ग से ही बनना चाहिए। कोई 27 दिन तक यही जागरण का मुख्य विषय था।

कुछ विद्वान जागरण को दक्षिणपंथी कहते हैं। मैं लगभग 50 वर्ष से इसका विनम्र पाठक हूं। मैं उसे भारतपंथी जानता हूं। संसदीय पत्रकारिता सतर्कता मांगती है। संसद विधानमंडल की रिपोर्टिंग सहित सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही की टिप्पणियां भी ध्यान देने योग्य हैं और आर्थिक पहलुओं के विवेचन भी। अपने भारतवादी होने के कारण जागरण पंख फैलाकर उड़ा है। पूर्णचंद्र गुप्त द्वारा रोपित और नरेन्द्र मोहन द्वारा पोषित बीज पौध अब विराट वृक्ष है। लोकमन का आकर्षण, जनशिक्षण की प्रतिबद्धता से युक्त दुनिया का बहुप्रसारित, बहुपठित अखबार। भारत का मन इससे प्रभावित होता है। यह स्वयं भारत के मन से प्रभावित है। अथर्ववेद में राष्ट्रजागरण का मंत्र है ‘राष्ट्र जागृयाम वयं’। तमाम असहमति के बावजूद जागरण भारतवासियों का जागरणकर्ता है।

[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]