प्रशांत मिश्र। हाल के विधानसभा चुनावों ने आगामी लोकसभा चुनावों का गणित बदल दिया है। मझोली ही नहीं छोटी और व्यक्तिवादी पार्टियों की सौदेबाजी में बढ़ोतरी हुई है। कांग्रेस ने पहले से ही इन क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करने की नीति बनाई हुई थी, लेकिन भाजपा ने नीतीश कुमार को अपनी जीती हुई पांच सीटें देकर उसके जैसी नीति पर आगे चलने का इशारा कर दिया। तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर के फेडरल फ्रंट को राष्ट्रीय मोर्चे जैसी सफलता भले ही न मिल पाए, लेकिन क्षेत्रीय दलों की निर्णायक भूमिका को अब नकारना संभव नहीं है।

चरण सिंह, चंद्रशेखर, देवेगौड़ा और गुजराल को प्रधानमंत्री बनाने वाली स्थिति तो अभी नहीं बनी है, लेकिन 30 साल बाद 2014 में पूर्ण बहुमत वाली संभावना फिलहाल क्षीण दिखाई दे रही है और अगर ऐसा होता है तो इन दलों का दबदबा बढ़ना लाजिमी है। बिहार में भाजपा ने 22 सीटें जीतने के बाद भी दो सांसदों वाली पार्टी जदयू के साथ बराबरी का रिश्ता बनाकर साफ संकेत दे दिया कि उसने भी जमीनी सच्चाई समझकर प्लान बी पर काम करना शुरू कर दिया है। बिहार में राजग सरकार में साथी दल लोजपा के भी मंत्री हैं, लेकिन जब लोकसभा चुनावों के लिए गठबंधन की बात आई तो सारा त्याग भाजपा को ही करना पड़ा। भाजपा ने लोजपा को बिहार में न सिर्फ छह सीटें दीं, बल्कि अपने खाते से लोजपा के नेता राम विलास पासवान को राज्यसभा में भेजने का आश्वासन भी दिया। इससे पहले वह पूरे परिवार के साथ मुंबई जाकर बैठ गए थे। दूसरी तरफ शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने पंढरपुर रैली में आक्रामक शैली में बोलकर सौदेबाजी की शुरुआत कर दी। लंबे अरसे से भाजपा और शिवसेना के रिश्ते खराब हैं। शिवसेना की ओर से गठबंधन से अलग होकर लड़ने की बातें की जा रही हैं। वह केंद्र और महाराष्ट्र सरकार में शामिल रहते हुए भी भाजपा नेतृत्व को आंख दिखा रही है, लेकिन भाजपा चुप है। शायद इसी कारण अब अपना दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी जैसे दल भी राजनीतिक हैसियत से ज्यादा वसूलने की ताक में हैं।

अगर भाजपा ने अपने साथी दलों को सीमा से अधिक सीटें दीं तो साफ हो जाएगा कि अब छोटे और मझोले और दल अपनी वास्तविक शक्ति से अधिक सौदेबाजी करने में सफल हो रहे हैं। हाल के दिनों में छोटे दलों की ओर से जैसे बयान आए हैं वे यह दर्शाते और साथ ही आगाह भी करते हैं कि जनता ने वोट देने में समझदारी नहीं दिखाई तो शासन-प्रशासन के लिहाज से अच्छे दिन लद सकते हैं। इसके बजाय दबाव की राजनीति और मजबूर प्रशासन के दिन शुरू हो सकते हैं। छोटे और मझोले दलों में केवल सीपीएम और बसपा ही राष्ट्रीय पार्टी हैं। इनका प्रतिनिधित्व जो भी हो, इनका आधार क्षेत्रीय दलों से बड़ा है। बाकी सभी दलों का दायरा अपने-अपने राज्य तक ही सिमटा हुआ है। वाम दलों का अलग राह पर चलना उनकी मजबूरी है। उनके पास अब केवल एक राज्य केरल बचा है और वहां कांग्रेस से समझौता करना आत्मघाती होगा। यही कारण है कि उनकी ओर से बार बार बयान आता है कि चुनाव पूर्व गठबंधन का कोई मायने नहीं है। गठबंधन चुनाव के बाद ही बनाना होगा, लेकिन दूसरे कई दल हैं जो चुनाव पूर्व गठबंधन ही चाहते हैं। इन क्षेत्रीय दलों का एक जमावड़ा केसीआर तैयार कर रहे हैं। उन्होंने ममता बनर्जी, नवीन पटनायक जैसे नेताओं को इकट्ठा करने की कोशिश शुरू की है। इससे पहले चंद्रबाबू नायडू ने भी ऐसी ही कोशिश की थी। उससे पहले ममता बनर्जी इसी तरह की कवायद में जुटी थीं। इससे यही साफ होता है कि क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षा बढ़ गई है।

अपने-अपने राज्य तक सिमटे होने के बाद भी क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पकड़ मजबूत कर क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा को साधना चाहते हैं। इसीलिए फेडरल फ्रंट की कवायद शुरू हुई है, लेकिन यह भी सच्चाई है कि फेडरल फ्रंट तभी शक्ल ले सकता है जब उत्तर प्रदेश की बड़ी पार्टी यानी बसपा और सपा भी उसमें शामिल हो जाएं। अब तक जो कुछ दिख रहा है उसमें इसकी ज्यादा गुंजाइश नहीं है। बसपा और सपा कांग्रेस से भले ही दूरी बनाए हुए हों उनकी ओर से बार-बार यह याद दिलाया जा रहा है कि कांग्रेस अहंकारी है। फिलहाल ये दोनों दल फेडरल फ्रंट का हिस्सा बनने के लिए उत्साहित भी नहीं दिख रहे हैं। सच्चाई यह है कि फेडरल फ्रंट भी सौदेबाजी का एक मोर्चा होगा। नतीजे के बाद अगर किसी गुट को जरूरत हुई तो एकजुट होकर ज्यादा मोलभाव किया जा सकता है।

कांग्रेस ने हाल में तीन राज्यों में सरकार बनाई है। इसके बाद उसे उम्मीद थी कि वह आसानी से विपक्ष की धुरी बन जाएगी, लेकिन अभी तक ऐसा हो नहीं पाया है। उलटे खटास थोड़ी और बढ़ने लगी है। सपा नेता अखिलेश यादव ने कुछ दिनों पहले इसका इजहार भी किया। उनका जो मौजूदा रुख है उसमें कांग्रेस को ही तालमेल बैठाना पड़ेगा। क्षेत्रीय दलों की बढ़ी हुई शक्ति से सामंजस्य बैठाने में भाजपा और कांग्रेस, दोनों को समस्या होगी। कांग्रेस को पता है कि जिन राजनीतिक दलों को साथ लेकर वह सत्ता में वापस आना चाहती है वही उसे बैशाखी बनाकर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहते हैं। वरना कोई कारण नहीं था कि ममता बनर्जी यह प्रस्ताव करतीं कि जिस राज्य में जो दल मजबूत है, बाकी दल इकट्ठे होकर उसे ही बढ़ाएं। अगर यह प्रस्ताव माना गया तो फिर पश्चिम बंगाल में खुद तृणमूल कांग्रेस, उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा, तमिलनाडु में डीएमके, बिहार में राजद, ओडिशा में बीजद जैसे दलों का दबदबा होगा। फिर कांग्रेस लड़ेगी कहां और कितनी सीटें जीतने के लिए? सच्चाई यह है कि भाजपा के खिलाफ खड़े दिख रहे दल भी कांग्रेस को मजबूत होते हुए नहीं देखना चाहते।

भाजपा की स्थिति अलग है और इस अलग स्थिति का एक कारण यह भी है कि आंध्र प्रदेश, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में भाजपा कांग्रेस को पीछे धकेलने में सफल हुई है। पश्चिम बंगाल और ओडिशा में तो उसने मुख्य विरोधी दल की हैसियत प्राप्त कर ली है। इसी कारण टीडीपी, बीजद और तृणमूल कांग्रेस को भाजपा से समझौता करने में कठिनाई हो रही है। जिन राज्यों में भाजपा है वहां साथी दल बदले हुए माहौल का फायदा उठाना चाहते हैं। यह साफ दिख रहा है कि भाजपा को जॉर्ज फर्नाडिस सरीखे कुशल संयोजक की कमी खल रही है। उसकी पैरवी करने वाला ऐसा कोई व्यक्तित्व खड़ा नहीं हो पाया है जो तमिलनाडु से लेकर कश्मीर तक संभावित साथी दलों से स्पष्ट बात कर सके और जिस पर साथी दल भी भरोसा कर सकें। हाल में भाजपा की ओर से 17 राज्यों के प्रभारी तैनात किए गए हैं, लेकिन ऐसे कम ही हैं जो संबंधित राज्यों में पार्टी नेताओं की भी श्रद्धा जीत सकें। कांग्रेस में भी कुछ यही हाल है। छोटे दलों की ओर से अपना रुतबा बढ़ाने की कोशिश आश्चर्यजनक नहीं, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति के लिए उनका दबदबा अच्छा नहीं होगा।

(लेखक दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैं)