[ संजय गुप्त ]: लोकसभा चुनाव के लिए मतदान के दो दौर समाप्त होने के बाद चुनाव प्रक्रिया जैसे-जैसे आगे बढ़ रही है वैसे-वैसे राजनीतिक दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप बढ़ता जा रहा है। इसी के साथ चुनावी मुद्दे भी बदलते जा रहे हैैं। जब चुनाव प्रचार शुरू हुआ था तब भाजपा राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल को आगे बढ़ा रही थी और कांग्रेस अपनी न्याय नामक योजना पर जोर दे रही थी, जिसके तहत सबसे गरीब 20 प्रतिशत परिवारों को सालाना 72 हजार रुपये देने का वादा किया गया है। इसके अलावा वह राफेल सौदे के बहाने चौकीदार चोर है.. नारे को उछाल कर प्रधानमंत्री मोदी को चोर बता रही थी। ऐसा करके वह प्रधानमंत्री पद का अपमान ही कर रही थी। कांग्रेस के इस आक्षेप का जवाब देने के लिए प्रधानमंत्री और उनके सहयोगियों ने चौकीदार शब्द अपने नाम में जोड़ने का फैसला किया।

चूंकि पुलवामा हमले के जवाब में बालाकोट में भारतीय वायुसेना की एयर स्ट्राइक का देश-दुनिया में खासा असर हुआ इसलिए प्रधानमंत्री ने इसका उल्लेख करना शुरू किया। इसी के साथ उन्होंने कांग्रेस पर हमले भी जारी रखे। इस सबके बीच यह जो उम्मीद की जा रही थी कि आगे आम आदमी के, विकास के और राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे चुनाव प्रचार का हिस्सा बनेंगे वह धूमिल होती जा रही है। राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्र के एक-दो बिंदुओं की ही चर्चा कर रहे हैैं। ऐसा लगता है कि वे आम आदमी को प्रभावित करने वाले मुद्दों को अपनाने के लिए तैयार ही नहीं।

विकास के मुद्दों के बजाय चुनाव प्रचार धीरे-धीरे जातीय और मजहबी आधार पर धु्रवीकरण पर केंद्रित होता जा रहा है। यह शायद इसलिए भी है, क्योंकि औसत मतदाता सामाजिक एवं आर्थिक उन्नति के मुद्दों को उतना महत्व नहीं देते जितना कि देना चाहिए। यदि जाति और मजहब के आधार पर वोट दिए जाएंगे तो फिर विकास के मुद्दे पीछे छूटने तय हैं। राजनीतिक दल इन मुद्दों को छोड़कर भावनात्मक मुद्दों को जिस तरह अहमियत दे रहे हैैं वह शुभ संकेत नहीं। विडंबना यह है कि भावनात्मक मसलों को धार देने में कोई भी दल पीछे नहीं दिख रहा है। समझौता एक्सप्रेस कांड के अभियुक्तों के बरी हो जाने के बाद भाजपा की ओर से कांग्रेस पर यह कहकर निशाना साधा गया कि उसने हिंदुओं को बदनाम करने के लिए हिंदू आतंकवाद का जुमला उछाला। कांग्रेस को इस आरोप का कोई जवाब सूझता, इसके पहले ही भाजपा ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को भोपाल से अपना उम्मीदवार बना दिया।

साध्वी के भाजपा में शामिल होकर भोपाल से प्रत्याशी बनने के पहले ही मुस्लिम मतों के धु्रवीकरण की कोशिश शुरू हो गई थी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक रैली में बसपा प्रमुख मायावती ने खुले आम अपील की कि मुस्लिम अपना मत बंटने न दें। इसके जवाब में योगी आदित्यनाथ ने अली-बजरंगी बल का सवाल उछाला। चुनाव आयोग ने इन दोनों नेताओं को कुछ दिन के लिए प्रचार करने से रोका, लेकिन दूसरे नेताओं पर इसका असर नहीं पड़ा। बिहार की एक रैली में पंजाब के मंत्री और कांग्रेस के स्टार प्रचारक नवजोत सिंह सिद्धू ने मुसलमानों से कहा कि वे एकमुश्त वोट देकर मोदी को सबक सिखाएं। मुस्लिम समाज को लुभाने का काम अन्य अनेक नेता भी करने में लगे हुए हैैं। वे मुस्लिम समाज को डराने के लिए भाजपा का हौवा खड़ा कर रहे हैैं।

मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण की कोशिश नई नहीं है। आम धारणा है कि मुस्लिम भाजपा को वोट नहीं देते, लेकिन देश के विभिन्न हिस्सों में मुस्लिम समुदाय के कुछ लोग उसे वोट देते भी हैैं। माना जाता है कि तीन तलाक के मसले पर कुछ मुस्लिम इस चुनाव में भी भाजपा को वोट दे सकते हैैं। शायद इससे रोकने के लिए ही उन्हें भाजपा के खिलाफ गोलबंद करने की कोशिश हो रही है।

समस्या केवल इतनी ही नहीं, मजहबी आधार पर मतदाताओं को गोलबंद करने की कोशिश हो रही है। समस्या यह भी है कि जातीय आधार पर भी उन्हें गोलबंद किया जा रहा है। कई राजनीतिक दल विभिन्न जातीय समुदायों को यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैैं कि उनके हितों के सच्चे हितैषी वही हैैं और इसलिए उनका वोट उन्हें ही मिलना चाहिए। राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव पिछड़ी जातियों के ध्रुवीकरण के लिए यहां तक कह रहे हैैं कि 85 प्रतिशत आबादी के हक की लड़ाई है, जिस पर 15 प्रतिशत लोगों ने कब्जा कर रखा है। उनकी मानें तो दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय को मिले आरक्षण के अधिकार को छीनने की कोशिश हो रही है।

बसपा प्रमुख मायावती मुलायम सिंह यादव के साथ मंच साझा करके यह कह रही हैैं कि वह मोदी की तरह पिछड़ों के नकली नेता नहीं हैैं। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की जाति को चुनावी मुद्दा बनाते हुए यह कह जाते हैैं कि उन्हें उनकी जाति के कारण राष्ट्रपति बनाया गया। खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी एक जाति विशेष को निशाना बनाते हुए यह कह जाते हैैं कि सारे मोदी चोर होते हैैं।

अपने देश में जातीय आधार पर राजनीति भी कोई नई बात नहीं, लेकिन मंडल आयोग की रपट लागू होने के बाद इस तरह की राजनीति ने कहीं तेजी पकड़ी है। इसके तहत आरक्षण संबंधी मांगों को हवा दी जाती है। दलित-पिछड़ी जातियां इसलिए जातिवादी राजनीति करने वालों की ओर आकर्षित हो जाती हैैं, क्योंकि वे विकास की मुख्यधारा का हिस्सा नहीं बन सकी हैैं। दलित-पिछड़ी जातियों को यह आभास कराया जाता है कि शासन-प्रशासन में उनकी अपेक्षित भागीदारी नहीं। नि:संदेह यह एक सच्चाई है, लेकिन यह कहना कठिन है कि आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था दलित-पिछड़ी जातियों की समुचित भागीदारी के सवाल को सही तरह से हल करने में सक्षम है।

संकट यह है कि कोई भी दल इसके लिए तैयार नहीं कि आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था की समीक्षा करके ऐसी कोई व्यवस्था बने जिससे पीछे छूट गए लोग सही तरह से लाभान्वित हो सकें। राजनीतिक दल और खास तौर पर क्षेत्रीय दल पिछड़े वर्गों के पिछड़ेपन का सवाल उठाकर उनकी भावनाओं को भुनाने का काम ही अधिक कर रहे हैैं। यही काम गरीबी दूर करने के नाम पर भी हो रहा है। मुश्किल यह है कि गरीब तबका और पिछड़ी जातियां यह नहीं देख पा रही हैैं कि उनके पिछड़ेपन को चुनावों में भुनाने का काम किस तरह वे लोग कर रहे हैैं जो आरक्षण का पात्र न होते हुए भी उसका लाभ उठा रहे हैैं। अगर आरक्षण संबंधी क्रीमी लेयर इसी तरह कायम रही तो शायद ही पिछड़ों में जो पिछड़े हैैं उन्हें आरक्षण का सही लाभ मिल पाए।

चुनाव के मौके पर अगड़े-पिछड़े का सवाल जिस तरह सतह पर आता है उससे भारतीय समाज विभाजित ही होता है। नि:संदेह यही काम मजहबी आधार पर लोगों को गोलबंद करने की कोशिश के कारण भी होता है। यदि भारतीय समाज जाति-मजहब के आधार पर विभाजित होकर मतदान करेगा तो फिर वह मताधिकार का इस्तेमाल करके भी लोकतंत्र को मजबूत बनाने का काम नहीं कर सकेगा।

लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]